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Written By Author कमलेश सेन
Last Updated : बुधवार, 25 मई 2022 (00:10 IST)

नगर की पहली राजनीतिक संस्था हो गई राजनीति का शिकार

नगर की पहली राजनीतिक संस्था हो गई राजनीति का शिकार - city's first political institution became a victim of politics
राजा के अधीन शासन व्यवस्था में राजनीतिक गतिविधियों का चलन सामान्यत: नहीं के बराबर था। जाहिर है राज व्यवस्था का सर्वोपरि राजा ही हुआ करता था, ऐसे में राज्य के विरुद्ध और राजा के खिलाफ किसी भी तरह की राजनीतिक गतिविधियां बेमानी थीं। राजशाही के कमजोर होने और अंग्रेजों के व्यापार के बहाने आने से अंग्रेजी शासन का देश में फैलाव और देश में उनके अत्याचारों से आम जनता परेशान रहने लगी। अंग्रेजी अत्याचारों से मुक्ति के लिए कई प्रकार के आंदोलनों ने जन्म लिया।
 
देश में सीधे तौर से राजनीतिक गतिविधियां देशद्रोह की श्रेणी में दायरे में आती थीं, ऐसे में आजादी के दीवानों ने कोई ऐसा विकल्प तलाशने का उपाय सोचा कि मिलाना-जुलना भी हो जाए और देश, राजनीति की चर्चा भी हो जाए। भारत एक धार्मिक और त्योहार प्रधान देश है। आजादी के दीवानों को धार्मिक उत्सवों की परंपरा एक हथियार के रूप में मिल गई।
 
लोकमान्य तिलक ने 1893 में पूना में पहला गणेश उत्सव मनाया तो देश में इस परंपरा ने एक आंदोलन का रूप ले लिया। प्रदेश का पड़ोसी प्रदेश था महाराष्ट्र। पूना के इस गणेश उत्सव की लहर होलकरों के राज्य मालवा में 1896 आ गई और इस वर्ष पहली बार गणेश उत्सव आयोजित किया गया जिसमें राजनीतिक चर्चा, भाषण और स्वदेशी के प्रचार का यह माध्यम बन गया।
 
1897 में दामोदर चाफेकर द्वारा ब्रिटिश अधिकारियों की हत्या, 1905 के बंग-भंग आंदोलन से नगर के युवाओं और विद्यार्थियों में देशप्रेम की लहर जाग्रत हो गई। युगांतर और अरविन्द घोष के गान, प्रचार के मुख्य माध्यम बन गए थे। राज्य में कई बंदिशों के बाद भी साहित्य एवं विचारों की सामग्री का आदान-प्रदान होने लगा और राजनीतिक गतिविधियां जारी रहीं।
 
राजनीतिक गतिविधियों को और विस्तार देने के लिए नगर के युवाओं ने 1907 में ज्ञान प्रसारक मंडल की स्थापना की। इंदौर में राजनीतिक स्तर पर ज्ञान प्रसारक मंडल प्रथम प्रयास था। यह मंडल लाइब्रेरी, लाठी चलाने का प्रशिक्षण, संगठन का महत्व आदि बातों का महत्व समझाता था। इस मंडल ने कई राष्ट्रीय महत्व के नगर में कार्यक्रमों को संचालित किया। एक मुट्ठी अनाज प्रत्येक घर से एकत्र कर इस मंडल ने अनूठा कार्य किया था। वि.सी. सरवटे, सी.न. गवारिकर, रामभाऊ गोगटे, भाई कोतवाल, रामू भैया दाते इस मंडल के संरक्षक और प्रमुख थे।
 
राजनीतिक गतिविधियों को और विस्तार देने के लिए नगर में शिवाजी जयंती मनाई जाने लगी। राज्य के प्रमुख को ये सब राजनीतिक गतिविधियां पता चलीं तो अधिकारियों ने श्री सरवटे को चेतावनी दी और धार के एक युवक को राज्य से निष्काषित कर दिया गया। गणेश उत्सव भी होलकर राज्य के इस नगर में अपनी लोकप्रियता के शिखर पर होने से इस तरह की गतिविधियों को बाधित करने के लिए भाई कोतवाल, दाते और गोगटे को राज्य से निष्कासित कर दिया गया। इस तरह राजनीतिक गतिविधियों को नहीं चलने देने के कई प्रयास किए गए थे।
 
1908 में लोकमान्य तिलक को सजा होने के विरोध में नगर के युवा नेताओं और विद्यार्थियों में काफी रोष व्याप्त था। नगर में धारा 144 लागू की गई। इसके बावजूद छात्रों ने हड़ताल रखी और दशहरा मैदान में सभा आयोजित की। अपने अल्पकाल में ज्ञान प्रसारक मंडल के कई साथी मतभेद होने से अलग हो गए और यह मंडल बिखर गया। इस तरह इंदौर नगर की पहली राजनीतिक संस्था राजनीति का शिकार हो गई।