मुगल काल से ही देश में सांप्रदायिक तनाव की स्थिति बनी हुई है। धर्म और संप्रदाय के नाम पर लोगों को आपस में खूब लड़ाया जाता है। पहले राजा हुआ करते थे फिर अंग्रेज हुए और अब राजनैतिक दल एवं राजनेता स्वयं जातिवाद या सांप्रदायवाद के प्रतीक बन गए हैं।
ऐसे तनाव भरे माहौल को हटाने के लिए समय-समय पर कई संत हुए हैं, जैसे सांई बाबा, अजमेर वाला ख्याजा साहब, सत रहिम, रैदास आदि। उन्हीं की जमात के एक संत थे संत कबीर। कबीर हिन्दू थे या मुसलमान यह सवाल आज भी जिंदा है उसी तरह कि सांई हिन्दू है या मुसलमान। कबीर का पहनावा कभी सूफियों जैसा होता था तो कभी वैष्णवों जैसा। लोग समझ नहीं पाते थे कि अलस में वे हैं क्या।
कबीर वैरागी साधु थे उसी तरह जिस तरह की सूफी होते हैं। उनका विवाह वैरागी समाज की लोई के साथ हुआ जिससे उन्हें दो संतानें हुईं। लड़के का नाम कमाल और लड़की का नाम कमाली था। कबीर का पालन-पोषण नीमा और नीरू ने किया जो जाति से जुलाहे थे। ये नीमा और नीरू उनके माता-पिता थे या नहीं इस संबंध में मतभेद हैं।
एकता के प्रयास :
कुछ लोगों का मानना है कि वे जन्म से मुसलमान थे और युवावस्था में स्वामी रामानंद के माध्यम से उन्हें हिन्दू धर्म की बातें मालूम हुईं और रामानंद ने चेताया तो उनके मन में वैराग्य भाव उत्पन्न हो गया और उन्होंने उनसे दीक्षा ले ली। कबीर ने हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिए कार्य किया। सांप्रदयिक भेद- भाव को समाप्त करने और जनता के बीच खुशहाली लाने के लिए निमित्त संत- कबीर अपने समय के एक मजबूत स्तंभ साबित हुए। उनकी खरी, सच्ची वाणी और सहजता के कारण दोनों ही धर्म के लोग उनसे प्रेम करने लगे थे।
कुछ लोग मानते हैं कि वे नाथों की परंपरा से थे। हालाँकि उन्होंने वैष्णव पंथी गुरु रामानंद से दीक्षा जरूर ली थी, लेकिन उनका जो बाना था व मुस्लिमों जैसा और जो विचार थे वे सभी शैव कुल के संकेत देते हैं। कुछ भी हो वे थे तो अक्खड़, फक्कड़ या विद्रोही किस्म के इसीलिए माना जाता है कि उन्होंने अपने गुरु से अलग ही एक मार्ग बनाया।
काशी से मगहर :
ऐसी मान्यता है कि काशी में देह त्यागने वाला स्वर्ग और मगहर में देह त्यागने वाला नरक जाता है। कबीर जीवन भर काशी में रहे, लेकिन कबीर ने काशी के पास मगहर में देह त्याग दी। ऐसी मान्यता है कि मृत्यु के बाद उनके शव को लेकर विवाद उत्पन्न हो गया था। हिन्दू कहते थे कि उनका अंतिम संस्कार हिन्दू रीति से होना चाहिए और मुस्लिम कहते थे कि मुस्लिम रीति से।
इसी विवाद के चलते जब उनके शव पर से चादर हट गई, तब लोगों ने वहाँ फूलों का ढेर पड़ा देखा। बाद में वहां से आधे फूल हिन्दुओं ने ले लिए और आधे मुसलमानों ने। मुसलमानों ने मुस्लिम रीति से और हिंदुओं ने हिन्दू रीति से उन फूलों का अंतिम संस्कार किया। मगहर में कबीर की समाधि है और दरगाह भी।
दलितों के मसीहा :
दलित व गरीबों के मसीहा कबीर जन नायक थे। आज भी उनके भक्ति गीत ग्रामीण, आदिवासी और दलित इलाकों में ही प्रचलित हैं। छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश के गांवों में कबीर के गीतों की धून आज भी जिंदा है।
कबीर पंथ :
कबीर पंथ एकेश्वरवादी और मूर्तिभंजकों का पंथ हैं। यह ईश्वर के निर्णुण रूप की उपासना करते हैं और किसी भी प्रकार के पूजा और पाठ से दूर रहकर ईश्वर की भक्ति को ही सर्वोपरी मानते हैं। माना जाता है कि इस पंथ की बारह प्रमुख शाखाएं हैं, जिनके संस्थापक नारायणदास, श्रुतिगोपाल साहब, साहब दास, कमाली, भगवान दास, जागोदास, जगजीवन दास, गरीब दास, तत्वाजीवा आदि कबीर के शिष्य हैं।
शुरुआत में कबीर साहब के शिष्य श्रुतिगोपाल साहब ने उनकी जन्मभूमि वाराणसी में मूलगादी नाम से गादी परंपरा की शुरुआत की थी। इसके प्रधान भी श्रुतिगोपाल ही थे। उन्होंने कबीर साहब की शिक्षा को देशभर में प्रचार प्रसार किया। कालांतर में मूलगादी की अनेक शाखाएं उत्तरप्रदेश, बिहार, आसाम, राजस्थान, गुजरात आदि प्रांतों में स्थापित होती गई।
- शतायु