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Written By ND

अणियों का महत्व

- महेश पांडे

धर्मयुद्ध
SUNDAY MAGAZINE
अणियों का महत्व रामायणकाल से ही है। चार अणियों का जिक्र उस समय को रूपायित करनेवाली रचनाओं में खूब आया है। त्रेता में लंका विजय के निमित्त धर्मयुद्ध के लिए भगवान श्रीराम ने इन अणियों की स्थापना की थी। इनकी तत्कालीन कमान हनुमान, जामवंत और अंगद सहित द्विविद जैसे योद्धाओं के हाथों में दी गई लेकिन महाभारत काल में अत्याचारी बन गए द्विविद को भगवान श्रीकृष्ण के भाई बलराम ने मार गिराया। इसके बाद मात्र तीन ही अणियाँ रह गईं। इनमें निर्वाणी अणि, दिगंबर अणि और निर्मोही अणि ही बचीं।

हिंदू जो कि अपनी पारंपरिक जीवनशैली में वर्ण और आश्रम व्यवस्था में विश्वास रखते हैं। वे कार्य विभाजक के आधार पर चार वर्णों और आयु विभाजन पर चार आश्रमों की व्यवस्था से संचालित होते रहे हैं। उस वर्णाश्रम व्यवस्था को ही जीवन में पूर्णता के लिए धर्मादेश के तौर पर स्वीकार किया गया है। ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ एवं संन्यास नामक यह वर्णाश्रम व्यवस्था पच्चीस-पच्चीस वर्ष की काल अवधि में विभाजित होकर मानव जीवन को शतायु निर्धारित करते हैं।

हिंदुओं की सामाजिक एवं धार्मिक मान्यताओं को संबल देने के लिए आदि शंकराचार्य ने वर्णाश्रम की चौथी अवस्था यानी संन्यास को व्यवस्थित करने पर ध्यान दिया। इसके लिए दशनामी परंपरा का सूत्रपात हुआ। संन्यासियों के ये दशनाम थे गिरी, पुरी, भारती, सरस्वती, वन, अरण्य, पर्वत, सागर, तीर्थ और आश्रम। जो शैव थे वे शिव की उपासना करते थे। धर्म की रक्षा के उद्देश्य से इन्हें अस्त्र-शस्त्र की शिक्षा दी गई। साधुओं की अधिक संख्या को अस्त्र-शस्त्र में प्रवीण कर उनसे धर्म एवं समाज की रक्षा का व्रत धारण कराया गया। योद्धा नागा संन्यासी इस अपेक्षा पर हमेशा खरे उतरे।

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दशनामी संन्यासियों की एक रचना के अंतर्गत मढ़ी पद एवं आम्नाय को संगठन का आधार बनाया गया। समाज को इसने शास्त्र सिखाया तो आध्यात्म के द्वारा जीव-जगत-ब्रह्म-प्रकृति और माया के संबंध में शंकर के अद्वैत मत की भी शिक्षा दी। सामरिक संगठन की रचना का आधार बनी धूनी, मढ़ी, दावा और अखाड़ा नामक इकाइयाँ। नागा संन्यासियों ने इसी के चलते वस्त्र भी त्याग दिए।

समाज हित के लिए शस्त्रधारी होने की ठान ली। शंकराचार्य ने चारों दिशाओं में चार मठ भी स्थापित कर दशनामी परंपरा के संन्यासियों को इससे जोड़ दिया। वन और अरण्य नामधारी संन्यासी जगन्नाथपुरी स्थित गोवर्धनपीठ के साथ जुड़े तो तीर्थ एवं आश्रम नामधारी द्वारिकापीठ स्थित शारदापीठ से जुड़े। उत्तर की ज्योतिर्पीठ के साथ गिरी पर्वत और सागर नामधारी संन्यासियों को रखा गया। शेष तीन पुरी, भारती तथा सरस्वती नामधारी श्रृंगेरी मठ के साथ जोड़ दिए गए।