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Written By WD

लोकगीतों में गंगा माँ की महिमा

हरिद्वार का महाकुंभ और पावन गंगा

गंगा माता
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गंगा केवल नदी न होकर आस्था एवं श्रद्धा की शाश्वत संजीवनी बन गई और राजा, रंक, फकीर, अधिकारी, व्यापारी, किसान सब माँ गंगा की कृपा पर पूरी तरह से निर्भर हो गए। हमारे बीच गंगा आज अद्भुत जीवनदायिनी शक्ति की तरह विद्यमान है। यही कारण है कि हम अनेक उत्सवों, पर्वों, संस्कारों के अवसरों पर गंगा का पूजन करते हैं और कामना करते हैं कि माँ गंगा धन-धान्य से सम्पन्न बनाएँ, जीवन मंगलमय करें।

विवाहिता स्त्रियाँ माँ होने की कामना से गंगा का पूजन करती हैं। न जाने कितने जोड़े गंगा में गाँठ जोड़कर स्नान करते हैं, पूजन करते हैं। हमारे परिवार का हर मांगलिक कार्य गंगा के पूजन से शुरू होता है और पूजन से ही सम्पन्न होता है।

गंगा जहाँ ज्ञान का प्रतीक रही हैं वहीं यमुना और सरस्वती भक्ति और कर्म के रूप में मानी जाती रही है। इस त्रिवेणी को 'वेद का बीज' कहा जाता है तथा गंगा, यमुना, सरस्वती का संगम स्थल 'ॐ' स्वरूप माना जाता है।

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वेदों, पुराणों, उपनिषदों में गंगा का चाहे जो भी स्वरूप रहा हो, किन्तु लोग मानस में गंगा पापों को धोने वाली, पुत्र देने वाली, बिछुड़े को मिलाने वाली तथा डूबते को बचाने वाली देवी के रूप में ही जानी-पहचानी जाती हैं। हमारे मुंडन-छेदन से लेकर अंतिम संस्कार तक गंगा की पावन जल धारा में समाहित हो गए हैं। गंगा हमारे धर्म और आस्था का पर्याय बन गई है।

मान-मनौती, टोने-टोटके, आस्था-विश्वास, शकुन-अपशकुन तथा पूजा-पाठ हमारे लोकजीवन की अखण्ड परम्परा रही है। हमारा गाँव हमेशा से इन्हीं मान्यताओं में जीता जागता आया है। एक युवती गंगा में डूब मरना चाहती है। उसकी कोई संतान नहीं है। संतानहीन युवती समाज में कितनी अपमानित, तिरस्कृत एवं उत्पीड़ित की जाती है यह किसी से छिपा नहीं है। माँ गंगा ने उसकी पीड़ा को समझा और पुत्रवती होने का आशीर्वाद दिया। युवती यह सुनकर धन्य हो गई। उसने गंगा को पियरी चढ़ाने तथा सोने का घाट बँधवाने का वादा किया। पूरे लोकगीत में गंगा की दयालुता, कृपालुता तथा नारी पीड़ा का गहरा भाव समाया हुआ है।

'ऊँचे कगार गंगाजी के आले-बाँसे छाबा
ओहि तर ठाढ़ि तिरियवा विलखि के रोवई।
गंगा माई दइद लहरिया, डूबि मरि जाइत।
एतना सुनी जब गंगा, लहरिया एक फेकइँ
तिरिया आजु के नवयें महिनवाँ होरिल तोरे होइहइ ।
गंगा जब मोरे होई हैं, होरिलवा पिपरिया लइके अडवइ
अउर सोने से बँधउबई तोर घाट पियरिया लइके अउवई।'

गोरी का खड़ी होकर गंगा स्नान करना तथा मछली द्वारा झुलनी छीनकर भागना सहज एक संयोग नहीं दुर्भाग्य भी कहा जा सकता है। ससुर के पास संदेश भेजना तथा गंगा में जाल डालने का प्रस्ताव जहाँ एक ओर नारी का गहनों के प्रति होने वाले लगाव को व्यक्त करता है, वहीं दूसरी ओर झुलनी के गायब होने का भय भी मन में हलचल पैदा कर रहा है। नारी मन के इसी द्वंद्व को प्रस्तुत लोकगीत में व्यक्त किया गया है।

'ठाढ़ गोरी गंगा नहाइँ
झुलनियाँ, लइगइ मछरियाँ।
जाइ कहअ मोरे ससुर के आगे
गंगा में जलिया छो़ड़ावाइँ
झुलनियाँ लइगइ मछरियाँ।'

हमारे लोकगीतों में गंगा के अनेक स्वरूप देखने- सुनने को मिलते हैं। जिसे लोकगीतकारों ने हर परिस्थितियों में जाँचा-परखा है। एक विवाह गीत में पिता अपनी बेटी से कहता है कि कुएँ का पानी सूख गया है, कमल मुरझा गए हैं तथा गंगा-यमुना के बीच में रेत पड़ गई है। भयंकर अकाल सामने खड़ा है, तुम्हारा विवाह कैसे करूँ ? कुआँ-बावड़ी का पानी सूख जाना तो आम बात है, मगर गंगा-यमुना में रेत पड़ना सामान्य बात नहीं है।

'कुअँना के पानी, झुराई गए बेटी
पुरइन गईं हैं कुम्हलाई।
गंगा जमुना बीच रेतु पड़तु हैं
कइसे मैं रचाऊँ वियाह।'

गंगा से राम का गहरा लगाव था। इसका वर्णन वाल्मीकि और तुलसी ने अलग-अलग ढंग से किया है, किन्तु लोकगीतों में राम और गंगा का वर्णन सीधे संस्कारों से जुड़ गया है। गर्मी का मौसम, राम, सीता से विवाह करने जा रहे हैं। इस पार में गंगा और उस पार में यमुना प्रवाहित हो रही है, किन्तु दोनों नदियों के बीच में कदम्ब वृक्ष की शीतल छाया है, जहाँ राम अपनी पालकी तथा लक्ष्मण अपना घोड़ा सँवार रहे हैं-

'एहि पार गंगा रे ओहि पार जमुना
बिचवा कदम जुड़ छाँह
तेहि तर राम आपनी पालकी सँवाराइँ
लछिमन सँवारइँ आपन घोड़ा।'

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कहीं हमारा लोक जीवन गंगा को जल से भरी-पूरी लहराती हुई देखना चाहता है, तो कहीं गंगा के सूखने की कामना करता है। एक वियोगिनी सखी से कहती है कि क्यों गंगा सूखेंगी? सेवार दह लेगी तथा क्यों मेरे प्रियतम वापस आएँगे? क्यों मैं अपने दुःख को कह सकूँगी? सखि उसे गंगा के सूखने तथा प्रियतम के आने का समय बड़े सहज ढंग से बता देती है। मिलन में दीवार बनी गंगा का लोकरूप देखने योग्य है-

'काहे के गंगा झुरइहीं, सेवल दह लेइहइँ हो
सखियाँ काहेक अइहीं प्रभु भोर कहब दुःख अपन हो।
जेठहि गंगा झुरइहीं, असाढ़ दह लेइहइं हो
सखियाँ कार्तिक अइहीं प्रभु तोर कहउ दुःख आपन हो।'

माहात्म्य की दृष्टि से गंगा सब नदियों में बड़ी मानी जाती हैं, किन्तु लम्बाई में गोदावरी नदी बड़ी हैं। तीर्थों में प्रयाग और नगरी में अयोध्या बड़ी है। इस संदर्भ में अनेक लोकगीत प्रचलित हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि गंगा हमारी श्रद्धा एवं विश्वास की प्रतिमूर्ति हैं।