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Written By WD

स्मृतियों के झरोखों से उठता गंधर्व राग

कुमार गंधर्व : पुण्यतिथि विशेष

Kumar Gandharva | स्मृतियों के झरोखों से उठता गंधर्व राग
शुचि कर्णिक
मुझे याद है वह जाड़ों के दिन थे। लगभग डेढ़ दशक पहले पौष माह में दोपहर के भोजन के बाद धूप का सेवन कर रहे थे। घर के पिछवाड़े से उठे रामधुन के स्वर कानों में पड़े। पता चला पंडित कुमार गंधर्व की अंतिम यात्रा अभी-अभी गुजरी है। हम उनके बारे में चर्चा करने लगे। घर के पीछे बनी चाल में रहने वाले लोगों की बातचीत पर अचानक ध्यान गया।

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उनमें से एक सज्जन जो लगभग पंडितजी की ही उम्र के ही होंगे, कह रहे थे, 'अच्छो गवैयो थो' सुनकर महसूस हुआ कि कुमार जी का गायन कितना लोकप्रिय है। पर यह उद्गार उनके गायन पक्ष के बारे में ना होकर व्यक्तित्व पक्ष पर व्यक्त किए गए थे। दरअसल यह उनके व्यक्तित्व की सादगी ही थी जिसने उनके गायन को सरस, प्रभावी और लोकप्रिय बनाया।

सच कहूं तो अब तक मैंने उन्हें न के बराबर ही सुना था। इस बात का ज्यादा अफसोस इसलिए भी था कि किसी और शहर से आकर वे देवास के हो गए और हम देवास के होकर भी उन्हें नहीं सुन पाए। बस शाम को म्यूजिक शॉप का रूख किया और एक साथ आठ-दस कैसेट्स खरीद डाली। फिर उनके गायन को समझने की कोशिश की।

शुरू में ज्यादा ना समझ में आने पर भी कानों को अच्छा लगा। खासतौर पर * उड़ जाएगा हंस अकेला... * बोर चेता.. * झीनी-झीनी चदरिया... * सुनता है गुरु ज्ञानी... रचनाएं ऐसी है जो बरबस ही बांध लेती है। उनके गायन की एक खास शैली थी और मुझे हाल ही के वर्षों में यह भी पता चला कि वह सुदूर गांवों में लोगों से मिलते-जुलते थे। उनकी लोक-कला और संगीत को सुनते-समझते थे। यूं ही बिना रिसर्च किए इतने सफल लोकगायक नहीं बन गए थे वे।

उनके निधन के बाद मुझे सबसे ज्यादा दुख इस बात का रहा कि वे यदा-कदा दादाजी के पास घर आया करते थे। अपने खास तांगे से। पर तब हम इतने छोटे थे कि एक महत्वपूर्ण बुजुर्ग मेहमान के ही रूप में देखते थे। उनकी मृत्यु के पहले जब मेरे दादाजी के जन्मदिन के एक सादे से समारोह में वे आए थे। तब तक हम जान चुके थे ये सुविख्यात गायक हैं। पर तब भी हम उनका गायन नहीं सुन पाए।

पिताजी अक्सर बताते रहते थे कुमार जी की सादगी और अपनत्व की बातें। दादाजी भी कुमार जी के घर 'भानुकुल' में कभी-कभी जाते थे। शायद दोनों बुजुर्गों के व्यक्तित्व की सरलता ही उन्हें करीब लाई हो।

पंडित जी के समीप रहने वाले लोग जानते होंगे कि वे रिश्तों को कितना महत्व देते थे। हमारे पारिवारिक मित्र ( जो अब इस दुनिया में नहीं है) बता रहे थे कि एक बार कुमार जी के घर में आयोजित महफिल में अचानक कोई महत्वपूर्ण मेहमान पधारें। मेरे पारिवारिक मित्र को लगा अब तो उन्हें कुमारजी के पास से उठना पड़ेगा, जाहिर है कुमारजी विशेष मेहमान को अपने पास बिठाते, पर नहीं जैसे ही हमारे पारिवारिक मित्र उठने को उद्यत हुए कुमारजी ने कहा ' तू इथे बस, ते तिथे बसणार.. यानी तुम बैठे रहो वे (विशेष मेहमान) उधर बैठ जाएंगे ... यह थी उनकी उष्मा और अपनत्व भरी सादगी जिसने उनके गायन में ऐसी जान फूंकी कि आविश्व भर में उनके प्रशंसक मौजूद हैं।

आज उन्हें याद करने की एक और भी वजह है। मेरी दोनों बेटियों के संगीतप्रेम को देखकर मैं अक्सर कहती हूं कि लगता है तुममें किसी महान संगीतकार की आत्मा का वास है। कुमार जी के निधन के इतने वर्षों बाद इसी दिन मेरी बेटियों का जन्म हुआ। भविष्य में उनका संगीत से कितना लगाव रहेगा कहा नहीं जा सकता पर इतना तो तय है कि कुमारजी का अप्रत्यक्ष आशीर्वाद मेरे माध्यम से मेरी अगली पीढ़ी तक अवश्य पहुंचा होगा।