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Written By WD

अवध के उत्कर्ष का प्रतीक : फैजाबाद

अवध
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लखनऊ से 128 किलोमीटर पूर्व सरयू नदी के तट पर स्थित फैजाबाद, जो अब केवल जिला एवं मण्डल मुख्यालय रह गया है, आज से केवल 213 वर्ष पूर्व एक ऐसे बड़े साम्राज्य की राजधानी था जो जनसंख्या और विस्तार में यूरोप के किसी भी देश (रूस को छोड़कर) से बड़ा था और वैभव तथा संपन्नता में दिल्ली दरबार से होड़ करता था। उसका ऐश्वर्य और शान-शौकत इस बुलंदी पर थे कि उत्तर में पेशावर और कश्मीर, पश्चिम में गुजरात, दक्षिण में हैदराबाद और पूरब में बंगाल और ढाका तक के कलाकार, शिल्पी, विद्यार्थी, बहादुर और व्यापारी खिंचे हुए वहाँ चले आते थे। कहते हैं कि फैजाबाद के अनेक रमणीक उद्यानों में से लालबाग की यह शोहरत थी कि स्वयं दिल्ली का शाहंशाह शाहआलम एक बार इलाहाबाद से लौटते हुए इस बाग की सैर की लालसा से फैजाबाद होते हुए दिल्ली लौटा।

सत्रहवीं शताब्दी के अंत में नवाब अमीनुद्दीन खाँ बुरहानुलमुल्क मुगल दरबार की तरफ से अवध के सूबेदार नियुक्त हुए। उन्होंने लखनऊ के पुराने शेखों को हराया और अवध के पूरे सूबे को आक्रान्त करके प्राचीन अयोध्या नगर की बस्ती के बाहर सरयू के तट पर स्थित एक टीले पर अपना शिविर बनाया। वह ऐसा संक्रमण काल था कि बुरहानुलमुल्क को इमारतें बनवाने का समय न था।

वे प्रायः छप्परों के शिविर में रहे। कुछ समय के बाद शिविर के बाहर कच्ची दीवारों का एक बड़ा घेरा बना दिया गया और उसके चारों कोनों पर किलेबंदी और पास-पड़ोस के क्षेत्र की निगरानी के लिए चार बुर्ज बना दिए गए। इस विशाल चहार दीवारी के अंदर बेगमात के निवास हेतु कुछ कच्चे मकान भी बनवाए गए। यही शासन केंद्र कालांतर में 'बंगला' के नाम से विख्यात हुआ।

लगभग 50 वर्ष पहले तक आसपास के बड़े लोग फैजाबाद को 'बंगला' ही कहते थे। कच्चे आहाते का उत्तर-पश्चिम दिशा का फाटक दिल्ली दरवाजा कहलाता था, जो आज भी फैजाबाद शहर का एक मोहल्ला है। नवाब बुरहानुलमुल्क के बाद नवाब सफदर जंग गद्दीनशीन हुए। फैजाबाद नाम उन्हीं का दिया हुआ है। कच्ची चहार दीवारों के किनारों पर सेना के अनेक सरदारों ने अपने मनोरंजन के लिए बाग और रंग महल बनवाने आरंभ किए। सिविल प्रशासन के अधिकारी और कर्मचारियों ने भी अपने भवन बनाने आरंभ किए। धीरे-धीरे नगर की रौनक बढ़ने लगी।

सफदर जंग की मृत्यु के उपरांत उनके पुत्र शुजाउद्दौला अवध के नवाब हुए जिनके राज्यकाल में फैजाबाद उन्नति और वैभव के शिखर पर पहुँच गया। अपने शासन काल के प्रारंभिक वर्षों में वे लखनऊ में रहना अधिक पसंद करते थे और ऐसा लगा कि फैजाबाद की राजधानी उपेक्षित हो जाएगी, लेकिन 1764 में बक्सर के युद्ध के बाद उन्होंने फैजाबाद को ही अपना शासन केंद्र बनाया।

बक्सर का निर्णायक युद्ध शुजाउद्दौला के लिए बहुत बड़ी पराजय थी। अँग्रेजों से पराजित होकर वे भागते हुए फैजाबाद आए, फिर लखनऊ और फिर रोहेल खंड के पठानों की शरण में। कई महीने बाद अँग्रेजों से उनकी संधि हुई। संधि के बाद शुजाउद्दौला ने लखनऊ को छोड़ दिया और पूरी तरह से फैजाबाद को अपनी राजधानी बनाया। उन्होंने नए सिरे से अपनी सेना को संगठित किया।

राजधानी को मजबूत पक्की प्राचीर से सुरक्षित किया और इमारतों के निर्माण को प्रोत्साहन दिया। इन बातों की खबर फैलते ही फैजाबाद में आने वालों का ताँता बँध गया। दूर-दूर से साहित्यकारों, विद्वानों, शिल्पियों, व्यापारियों, शौर्य से जीविका वृत्ति वाले योद्धाओं और सरदारों ने आकर फैजाबाद को अपना निवास और कार्यक्षेत्र बनाया।

आने वाले लोग जमीन का कोई टुकड़ा लेकर यहाँ बसने को उत्सुक रहते हैं। देखते-देखते नगर में चौड़ी-चौड़ी अनेक सड़कें और कई बाजार बन गए। चौक का सर्वाधिक आकर्षक बाजार, जो इस समय भी नगर का केंद्र बिंदु है, तभी बना। राजधानी की कुछ सड़कें इतनी चौड़ी थीं कि सामान से लदे हुए दस-दस जानवर सड़क पर बराबर-बराबर चल सकते थे।

नवाब शुजाउद्दौला को अपने शहर को सुंदर और सुडौल बनाए रखने का ऐसा शौक था कि नित्य सुबह-शाम घोड़े पर सवार होकर निकलते और सड़कों एवं इमारतों का निरीक्षण करते थे। साथ में मजदूरों की टोली पीछे-पीछे चलती थी। यदि कोई इमारत एक बालिश्त भी सड़क का अतिक्रमण करती हुई पाई जाती तो उसे उसी समय गिरवा दिया जाता था।

राजधानी में अनेक मनोरंजन उद्यान बनाए गए थे जो रईसों और शहजादों की सैर और मनोरंजन के लिए थे। अंगूरीबाग, मोतीबाग, लालबाग आज भी फैजाबाद में मौजूद हैं, पर अब वे धनी बस्तियों वाले मोहल्ले बन गए हैं। अंगूरीबाग पार्क किले के अंदर स्थित था। मोतीबाग चौक में था। तीसरा पार्क लालबाग सब पार्कों से बड़ा था, जिसका उल्लेख हम ऊपर कर चुके हैं और जिसने दिल्ली के मुगल सम्राट तक को आकृष्ट किया था। लालबाग उद्यान की प्रसिद्धि इतनी थी कि दूर दूर के रईसों, अमीरजादों और बादशाहों की यह अभिलाषा रहती थी कि एक रंगीन शाम लाल पार्क में बिताएँ।

शहर के बाहर पश्चिम की ओर नदी के किनारे तक का एक बड़ा क्षेत्रफल शिकारगाह के रूप में विकसित किया गया था, जिसमें हिरन, चीतल, नीलगाय आदि पशु लाकर छोड़े गए थे। 1765 से 1774 ई. तक नौ वर्ष फैजाबाद अवध नरेश शुजाउद्दौला की राजधानी रहा। उसके इस उत्कर्ष काल में शहर के अंदर ऐसी भीड़ और नागरिकों का ऐसा जमघट लगा रहता था कि चौक आदि बाज़ारों से गुजरना मुश्किल था। नगर क्या था, मनुष्यों का पारावार था। उसके बाज़ारों में देशी और विदेशी सामानों का ढेर था। व्यापारियों के काफिले के काफिले दूर दूर से चले आते थे। ईरानी, काबुली, चीनी और अँग्रेज सौदागर बहुमूल्य माल लाते और बेचते थे। लगभग 200 फ्रांसीसी भी नवाब शुजाउद्दौला की नौकरी में थे जो सिपाहियों को सैनिक शिक्षा देते थे।

उन दिनों फैजाबाद के वैभव, उसकी शान शौकत और नृत्य, गायन तथा विलासिता के जीवन को जिन लोगों ने देखा, वे मुग्ध हो गए। सन्‌ 1773 में शुजाउद्दौला ने विजय यात्रा पर पश्चिम की ओर प्रस्थान किया। इस यात्रा को इतिहासकारों ने एक चलते फिरते शहर की संज्ञा दी है।
शुजाउद्दौला ने इटावा को मराठों से छीन लिया और रुहेला शासक हाफिज़ रहमत खाँ को हराकर बरेली पर अधिकार कर लिया। अवध का शासन इस समय चरम उत्कर्ष पर था। पर दुर्भाग्यवश सन्‌ 1774 में एकाएक नवाब शुजाउद्दौला की मृत्यु हो गई और उनकी मृत्यु के साथ ही फैजाबाद के भाग्य सूर्य का भी अवसान हो गया।

नवाब शुजाउद्दौला की मृत्यु के उपरान्त मलका बहू बेगम अपने जीवन के अन्त तक फैजाबाद में ही रही। इस त्याग मूर्ति, पतिपरायण और स्वातंत्र्य प्रेमी महारानी के प्रति भारतीय जनमानस में बड़ा सम्मान है। बक्सर के युद्ध में जब शुजाउद्दौला अँग्रेजों से पराजित हो गए और अँग्रेजों ने सन्धि की शर्तों में 50 लाख रुपए हरजाने की माँग की, उस समय उनके पास एक पैसा न था। नवाब शुजाउद्दौला और अवध की सल्तनत दोनों का अस्तित्व खतरे में था। ऐसे संकट के समय में बहू बेगम ने अपना सारा व्यक्तिगत पैसा, अपने सारे आभूषण, अपने नाक की नथ तक उतार कर दे दी। इस तरह अँग्रेजों का हरजाना अदा करके बहू बेगम ने अपने पति को और अवध के राज्य को बचा लिया।

शुजाउद्दौला के बेटे आसफउद्दौला को फैजाबाद मे रहना रुचिकर न लगा। वस्तुतः वह अपनी माँ बहू बेगम से दूर दूर रह कर स्वच्छन्द, विलासिता का जीवन बिताना चाहते थे। बहू बेगम अन्त तक फैजाबाद में ही रहीं। उनके जीवनपर्यंत फैजाबाद की रौनक और उसकी मर्यादा भी बनी रही। उनकी मृत्यु सन्‌ 1815 में हुई। मृत्यु उपरान्त बहू बेगम वहीं दफनाई गईं। उनका मकबरा जवाहर बाग में उनके द्वारा कायम किए गए ट्रस्ट से बनाया गया।

आज भी यह मकबरा फैजाबाद की एक दर्शनीय इमारत और मुगलकालीन स्थापत्यकला का उत्कृष्ट नमूना है। आसफउद्दौला ने लखनऊ में रहना शुरू किया और फैजाबाद के गौरव के इतिहास पर पटाक्षेप हो गया। किसी उल्का के उदय और अस्त की भाँति नौ वर्षों की अल्पावधि में इस नगर का उत्कर्ष और अवसान इतिहास की एक रोमांचकारी घटना है।