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Written By ND

जनता की देहरी से बहुत दूर है स्वतंत्रता

जनता की देहरी से बहुत दूर है स्वतंत्रता -
- शिवकुमार मिश्र 'रज्जन'

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स्वतंत्रता प्राप्ति का औपचारिक आयोजन तो दिखाई पड़ता है पर वास्तविक स्वतंत्रता तो वह होती है, जो सहज रूप से प्रतिदिन व प्रतिक्षण महसूस की जा सकती है। स्वतंत्रता का ऐसा अनुभव आजादी के इतने वर्षों बाद भी आम आदमी को तो नहीं होता। दीपावली-दशहरा या होली आदि त्योहारों का आना और उन्हें मनाया जाना पारंपरिक होने के साथ ही साथ व्यक्तिगत व पारिवारिक रूप से भी आनंददायक होता है। तब स्वतंत्रता दिवस के आयोजन को ऐसी ही सहज लोकव्यापी परंपरा का स्वरूप क्यों नहीं मिला? आज भी सरकारें अपनी राजधानी से स्वतंत्रता दिवस के आयोजन का फरमान निकालती हैं, जो जिला मुख्यालय से तहसील स्तर की पंचायतों तक पहुँचता है और आखिर तिरंगा भी फहरा दिया जाता है, शासकीय भवनों से लेकर पंचायत कार्यालय तक। इसी के साथ कुछ सुनिश्चित आयोजन जनप्रतिनिधियों के भाषण, अब तक की तथाकथित उपलब्धियों का बखान और स्कूली बच्चों का जुलूस आदि भी होता है। आम आदमी आयोजन की भीड़-भाड़, लाउड स्पीकर का शोर-शराबा और सड़कों-रास्तों पर विशेष चहल-पहल से समझ लेता है कि आज कुछ विशेष है 'नेताओं के लिए', सरकारी अमले के लिए और स्कूली बच्चों के लिए भी। बस, इतना ही समझकर व चल देता है अपने काम पर अर्थात दैनिक मजदूरी, खेती का काम, अपना पुश्तैनी व्यवसाय या फिर कोई छोटी-बड़ी नौकरी (जहाँ अवकाश न हो) पर।

कोई लेना-देना नहीं स्वतंत्रता दिवस के आने या चले जाने से उसका, फिर उसे त्योहार की तरह मनाने का तो उसके जेहन में जरा भी ख्याल नहीं आता। स्कूली बच्चे परीक्षा में उत्तर देने के लिए याद करते हैं 15 अगस्त या 26 जनवरी की तिथियाँ अथवा उन पर निबंध लिखने के लिए कुछ और संबद्ध बातें, जो उनकी समझ से तो जीवन के लिए आवश्यक नहीं होतीं। यहाँ तक कि साक्षर व डिग्रीधारी 'सुशिक्षित' कही जाने वाली नई पीढ़ी भी अपनी शिक्षा के प्रसाद के रूप में रोजगार या नौकरी आदि नहीं मिलने के कारण आजादी के सही मायने नहीं समझ पाती। तो शेष रह जाते हैं वे इने-गिने 'समझदार' लोग और राजनेता, जो आजादी के महत्व और उसकी उपलब्धियों का आज के दिन बखान करते रहते हैं, जबकि वे राजनेता जो सत्तासीन नहीं हैं, आज के दिन भी यही कहते हैं कि आजादी के 60 वर्ष बाद भी जनता के लिए तो कुछ नहीं हुआ।

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तब आखिर सच क्या है, कितना है और क्यों है अनजाना आम जनता के लिए 15 अगस्त या 26 जनवरी का दिन? उत्तर सीधा सा है- सूरज उगता है, तो उसकी किरण भले ही हर देहरी, द्वार, खेत-खलिहान या सड़क-चौराहे तक नहीं पहुँचे, किंतु उसका प्रकाश तो सुबह के आने का संकेत देता ही है। वही प्रकाश, वही भोर या उषा की लाली की लालिमा थोड़ी-सी भी नहीं पहुँची गरीब के घर-द्वार की देहरी तक, जिसे देखकर वह किवाड़ खोल देता और अगवानी करता उस पवित्र प्रकाश की। कवि बद्रीनारायण का कविता संग्रह 'शब्द पदीयम' पढ़ रहा था, उनका संवेदित मन कहता है- 'कई अपेक्षाएँ थीं और कई बातें होनी थीं/ एक रात के गर्भ से सुबह को होना था/ एक औरत के पेट से, दुनिया बदलने का भविष्य लिए/ एक बालक को जन्म लेना था/ एक चिड़िया में जगनी थी, बड़ी उड़ान की महत्वाकांक्षा/ नदी के पानी को कुछ और जिद्दी होना था/ पर कुछ भी नहीं हुआ बस... सुबह के होने का भ्रम हुआ।' साहित्य समाज का दर्पण यूँ ही नहीं कह दिया गया। सभी जानते हैं कि आईना कभी झूठ नहीं बोलता।आप आईने बदलकर देख लीजिए या फिर चलिए आईनों की भीड़ में ले चलूँ आपको, हमारी आजादी की असली तस्वीर हर आईने में दिखाने के लिए। उधर शायर कतील कहते हैं- 'कब तक धोखा खाए, अपनी प्यास 'कतील'/ खाली जाम खनकते हैं मयखानों में।' एक और शायर इब्जे इंशा दिखा रहे थे इस आखिरी दौर की तस्वीर- 'अब इस आखिरी दौर को देखिए/ पेट रोटी से खाली, जेब पैसे से खाली/ बातें वसीरत (बुद्धिमानी) से खाली/ शहर फरजानों (अक्लमंदों) से खाली/ जंगल दीवानों से खाली/ ये खलाई दौर है।' फिर भी बात यहाँ खत्म नहीं होती। बेचारा आम आदमी अपने पिछले आजादी के संघर्ष को मुड़कर देखता है तो कहता है- 'हजारों बार मैंने इंकलाबों को दिए हैं मेरे सर/ मगर आजादी-ए-दुश्वार आई मेरे हिस्से में/ तुम्हारे सिर पे रख के ताज, मैंने भूल की आरिफ/ नतीजे में सजाए दार आई मेरे हिस्से में।'

सच तो यह है कि जैसे त्याग-तपस्या या देशभक्ति के जज्बे का वह दौर जो आजादी से पहले हर कहीं दिखाई देता था, आजादी मिलते ही तेजी से समाप्त होने लगा और सियासतदान पेशेवर सामंती राजाओं की तरह सत्ता मद में चूर हो गए। आजादी कैद हो गई राजधानी में और वहाँ के बंगलों में या फिर कभी-कभी टहलने आती रही चमचमाती कारों में बैठकर गाँव-कस्बों के रास्तों पर। बेवजह नहीं लिख दिया दुष्यंत कुमार ने यह सच-'यहाँ तक आते-आते सूख जाती हैं सभी नदियाँ/ मुझे मालूम है पानी कहाँ ठहरा हुआ होगा।' और फिर 'ठहरा पानी' सड़ांध पैदा करता है, प्रदूषित होता रहता है और सभी जो उसका उपयोग करते हैं निःसंदेह अपना स्वास्थ्य बिगाड़ते हैं। तो राजधानियों में पानी के 'ठहराव' से राजनेता तो प्रदूषित हुए ही, उस पानी की सड़ांध और संक्रमण से वे कभी राजनीतिक प्रदूषण के शिकार बने, जो राजधानियों में आते-जाते रहे।

स्वतंत्रता को तो सही दिशा मिलती है शिक्षा से और प्रजातंत्र का तो प्राण ही है सुचारु शिक्षा व सभी के लिए शिक्षा के सुलभ अवसर। वहीं शिक्षा तो निरंतर उपेक्षित रही आम आदमी के लिए और हमने प्रजातंत्र का संविधान रच दिया अपढ़ आदमी के पढ़ने के लिए। क्या करता वह उस पोथी का जबकि सुबह से शाम तक स्वेद से सनकर भी पेटभर रोटी नहीं मिल पाती थी उसे। श्रमवीरों के हाथ काम से खाली रहे, उसके पैर कभी पहुँच न पाए वहाँ, जहाँ काम मिले, उसकी प्यास कभी नहीं पहुँची कुएँ की जगत तक और उसका तन-बदन तलाश करता रहा एक-एक चिथड़े के टुकड़े को। वह अपने खपरैल की देहरी पर शाम को आज भी थका-हारा लौटता है तो दीया तक नहीं जला पाता, क्योंकि बिन बाती और तेल का होता है वह। बस दूर से देखता रहता है शहरों का विद्युत प्रकाश अपनी मुरझाई आँखों से। उसके गाँव के स्कूल के बच्चे जिस दिन अपने गंदे-संदे कमीज-पाजामे में 'भारतमाता की जय' और 'पंद्रह अगस्त जिंदाबाद' के नारे लगाते निकलते हैं तो पूछता है किसी एक को रोककर- 'क्यों, क्या है आज, कहाँ जा रहे हो जुलूस बनाकर?' तो उत्तर मिलता है- 'पंचायत भवन', आज वहाँ मिठाई बँटेगी, तो सुनते ही दरवाजे पर साँकल चढ़ाकर चल देता है मिठाई के चार दाने लेने उन्हीं के पीछे-पीछे और मन जाता है पंद्रह अगस्त, आम आदमी का बस इसी तरह।