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Last Updated : शुक्रवार, 17 मई 2019 (15:43 IST)

कान फिल्म फेस्टिवल 2019 : Les Miserables रही आकर्षण का केन्द्र

कान फिल्म फेस्टिवल 2019 : Les Miserables रही आकर्षण का केन्द्र - Cannes Film Festival 2019
विक्टर ह्यूगो ने 1862 में (Les Miserables) लिखा था जिसे अगर अनुवाद करें तो वो गरीब लोग, वो बेदखल लोग, या ऐसा ही कुछ शीर्षक बनेगा। जब से यह किताब छपी है किसी न किसी रूप में चर्चा में भी है और सामने भी मौजूद है। इस पर आधारित नाटक पिछले चालीस सालों से पेरिस और लंदन और न्यूयॉर्क जैसे शहरों में लगातार खेला जा रहा है। न जाने कितनी किताबें, कॉमिक्स, टीवी शो और फिल्में इस पर बन चुकी हैं लेकिन आखिर क्या है जो "ले मिस" (शार्ट फॉर्म जो चलन में है) आज भी उतना मौजूं है जितना पहली बार था। विक्टर ह्यूगो के जमाने में पेरिस के मोन्टफर्मील इलाके में जैसी गरीबी , बेबसी , मुश्किल थी , तो हालत आज भी कुछ ख़ास  बदले नहीं हैं। .. 
 
जिस इलाके से इन दुखियारों की कहानी होती है उसी इलाके में इस साल की कॉम्पीटीशन फिल्म Les Miserables बसी है। फ्रेंच डायरेक्टर लेड्ज ली जो खुद इसी इलाके से हैं उन्हें अपनी फिल्म के लिए इससे बेहतर नाम नहीं मिला।  
 
फिल्म शुरू होती है स्टीफन से, जो पुलिस वाला है और नई जॉब शुरू कर रहा है। उसकी टीम में क्रिस और गौडा हैं जो यह काम पिछले दस सालों से कर रहे हैं। फिल्म बस एक ही दिन की कहानी है जब पुलिस गश्त पर है। इलाके में गरीबी, बेरोजगारी, कमी बदहाली साफ झलक रही है और ऐसी जगह क्या होता है बताना ज्यादा मुश्किल नहीं है। 
विक्टर ह्यूगो की किताब की ही तरह यहां भी पुलिस वाले हैं जो बच्चे को बड़ी सजा देने में न हिचकते हैं न अफसोस मनाते हैं। 
 
लेड्ज ली ने फिल्म के किरदारों को आज की ही दुनिया का बनाये रखा है लेकिन किताब की याद कम नहीं होने दी है। 
शायद यह सब इतनी साफगोई और गैरतरफदार हुए भी वो इसलिए कर पाए कि उन्होंने इस दुनिया को देखा नहीं है जिया है। लेड्ज कहते हैं मैं 10 साल का था जब पहली बार मुझे पुलिस ने रोका था और तलाशी ली थी। लेकिन उनके शब्दों में, फिल्म में, पुलिस के लिए कोई खारिश नहीं है। वो जानते हैं कि ज्यादातर पुलिस वाले खुद भी डरे हुए होते हैं, थके हुए होते हैं, और कई बार खुद भी ऐसे ही इलाकों में रहते हैं।
 
लेड्ज की यह फिल्म विक्टर ह्यूगो की किताब पर आधारित नहीं है और इसलिए ज्यादा गहरे असर करती है क्योंकि उन्नीसवीं सदी और इक्कीसवीं सदी में मजलूमों, उन गरीबों, उन अति दुखी जि‍न्दगियों में कोई फर्क नहीं आया है  
शायद चीज़ें बद से बदतर ही हुई हैं, सरकार समाज और सिस्टम हर किसी ने इन्हें नजरअंदाज किया है। 
 
हां उम्मीद है तो लेड्ज ली जैसे लोगों से, जो इन कहानियों को कहने में न हिचकते हैं न उन्हें दांत पीसते हुए गुस्से में कहते हैं न दया और हीनता के भाव के साथ। 
 
फिल्म में ज्यादातर कलाकार भी लोकल ही हैं और इसलिए फिल्म में कोई अजनबी पन नहीं है, 3 पुलिस ऑफिसर्स और लोकल गैंग लीडर के अलावा सभी सडकों पर घूमते हुए डायरेक्टर को मिले और अब फिल्म में हैं। पर उनकी भाषा उनकी चाल ढाल सब मंजे हुए कलाकारों सा ही है। लेड्ज जो खुद मोन्टफर्मील इलाके से हैं इसके पहले अपने ही इलाके पर वेब डॉक्युमेंट्रीज़ बना चुके हैं और les miserables नाम से शार्ट फिल्म बनाई थी जिसे 2018 में शॉर्ट फिल्म का अवार्ड भी मिला और इसलिए उसी नाम से अपनी पहली फीचर फिल्म लेकर कान की गलियों में मौजूद हैं। और फिल्म देखने के बाद यह दावे से कहा जा सकता है कि यह बंदा यहां लम्बे समय तक टिकने वाला है। 
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