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खुली नालियों से होता था इंदौर में जलप्रदाय

खुली नालियों से होता था इंदौर में जलप्रदाय - Water supply in Indore was done through open drains
इंदौर नगर पालिका अपने जन्म (1870) के बाद से ही पेयजल की समस्या से जूझती आ रही है। नगर में पीने के पानी के लिए घरों में कुएं थे। सार्वजनिक जल-आपूर्ति के लिए राज्य की ओर से बड़ी-बड़ी बावड़ियों का निर्माण करवाया गया था जिनमें से अधिकांश अब बंद कर दी गई हैं।
 
1888-89 में संपूर्ण मालवा अनावृष्टि का शिकार हुआ था। फसलें तो चौपट हुई ही थीं। पेयजल का भी संकट उठ खड़ा हुआ था। इस संकट का सामना करने के लिए होलकर दरबार ने नगर पालिका को अतिरिक्त धन दिया जिससे जैसे-जैसे वह संकट टल गया।
 
लगभग एक दशक बाद 1899-1900 में पुन: मालवा में भीषण अकाल पड़ा। इस बार इतनी कम वर्षा हुई थी कि कुएं व बावड़ियां फरवरी-मार्च में ही सूख गए। नगर पालिका असहाय थी। पेयजल तक की व्यवस्था नहीं की जा सकी। इस जलसंकट से लोग इतने त्रस्त हो गए कि वे नगर छोड़कर अन्यत्र चले गए।
 
इस प्रजा-पलायन से महाराजा शिवाजीराव बहुत व्यथित हुए और उन्होंने पेयजल की समस्या के स्थायी समाधान हेतु आदेश दिए। नगर के पश्चिम में स्थित सिरपुर तालाब की पाल जल-सतह से 15 फुट ऊंची करवाई गई। तालाब से नगर तक पाइप लाइन डाली गई। नगर तथा तालाब के मध्य एक फिल्टर टैंक बनाया गया जिसमें पानी को शुद्ध किया जाता था। बाद में इसी लाइन को जूनी इंदौर तक बढ़ाया गया और वहां भी सिरपुर तालाब का पानी दिया जाने लगा। नगर के दक्षिण-पूर्व में स्थित पिपल्यापाला के समीप भी जलप्रदाय हेतु बंबई-आगरा मार्ग पर एक जल यंत्रालय कायम किया गया था।
 
1893-94 तक उक्त दोनों जल यंत्रालयों का रखरखाव व संचालन राज्य द्वारा किया जाता था। उसी वर्ष से व्यवस्था बदली गई और दोनों जल यंत्रालय नगर पालिका के हवाले कर दिए गए। इन जल यंत्रालयों से भी नगर को जो पानी सप्लाय किया जाता था, वह खुली नालियों के द्वारा होता था। यह जल यद्यपि यंत्रालय में शुद्ध किया जाता था किंतु खुली नाली में प्रवाहित होते रहने के कारण पुन: दूषित हो जाया करता था।

इस दोषपूर्ण प्रदाय को समाप्त करने के लिए 1893-94 में ही महाराजा ने एक विशेष योजना को अपनी स्वीकृति प्रदान की, जिसके अंतर्गत जल यंत्रालयों से नगर तक पानी भेजने के लिए खुली नालियों को समाप्त कर उनके स्थान पर पाइप लाइन डाली गई। इस कार्य पर 30 हजार रुपयों के व्यय का वहन नगर पालिका नहीं कर सकती थी इसलिए इसका भुगतान राज्य सरकार द्वारा किया गया।
 
अनेक उपाय किए गए थे पेयजल पूर्ति के
19वीं सदी का अंतिम वर्ष भीषण अकाल का वर्ष था, जिसने इंदौर के नागरिकों को जलाभाव के कारण शहर छोड़कर भागने के लिए मजबूर कर दिया। उस भीषण संकट की पुनरावृत्ति रोकने के लिए उसी वर्ष से प्रयास प्रारंभ किए गए। महाराजा ने इस कार्य हेतु 50,000 रु. की विशेष स्वीकृति प्रदान की। नगर को पिपल्यापाला व सिरपुर तालाबों से पानी दिया जाता था। वर्षा की कमी से तालाबों का जलस्तर लगभग भूतल में पहुंच गया था।

तालाब की मिट्टी निकाली गई और उसी मिट्टी से पाल को ऊंचा व मोटा किया गया। पिपल्या नदी को गहरा किया गया। उधर खान नदी को भी गहरा किया गया और कृष्णपुरा पुल के पास एक बड़ा बांध बनाकर पानी रोकने की व्यवस्था की गई। कृष्णपुरा की छतरियों के नीचे तक बने घाट व सीढ़ियों तक पानी भरा रहता था, जहां लोग स्नान करते थे। लोग नावों में बैठकर यहां जल-विहार किया करते थे।
 
1903 से 11 के मध्य इंदौर नगरवासियों को 3 बार जलसंकटों का सामना करना पड़ा। इस अवधि में यद्यपि नगर पालिका ने जलसंकट से निपटने के लिए 28,000 हजार रु. खर्च कर डाले फिर भी उन प्रयासों से कोई स्थाई हल नहीं निकल पाया। समस्या उत्तरोत्तर गंभीर ही होती चली गई। इस तथ्य को ध्यान में रखकर होलकर सरकार ने 1910 में 9 लाख 95 हजार 83 रु. की लागत से बनकर तैयार होने वाली जल यंत्रालय योजना को मंजूरी दे दी। इस महत्वपूर्ण कार्य को पूरा करवाने के लिए सेंट्रल प्रोव्हिन्सेस के चीफ इंजीनियर मिस्टर निथरसोले को इंदौर आमंत्रित किया गया व उन्हें यह दायित्य सौंपा गया।
 
1910 में ही 30,000 रु. का अतिरिक्त अनुदान नगर पालिका को पेयजल समस्या के समाधान हेतु दिया गया। उस वर्ष नगर के 8 विभिन्न क्षेत्रों में नि:शुल्क जलप्रदाय किया जा रहा था। जिन्हें अतिरिक्त जल की आवश्यकता होती थी, उनके घर गाड़ियों से पानी भेजा जाता था लेकिन इनका शुल्क लिया जाता था। नगर के जलाभाव को दूर करने के लिए भारत सरकार के गवर्नर जनरल के इंदौर स्थित एजेंट ने भी सहयोग दिया था।

रेसीडेंसी एरिया को पानी सप्लाय करने के लिए वर्तमान आजादनगर के समीप ही खान नदी पर बांध बनाकर एक जल यंत्रालय कायम किया गया था, जिससे पानी वर्तमान कलेक्टर व आयुक्त निवास के मध्य बनी हरी टंकी में भेजा जाता था। इस टंकी विशेषता यह है कि यह लोहे की है और सीधी भूमि के धरातल के ऊपर की ओर बनाई गई है। इतनी पुरानी होने के बावजूद आज भी यह बहुत पुख्ता है।
 
ए.जी.जी. ने इस टंकी से क्रिश्चियन कॉलेज परिसर के पास तक पाइप लाइन डलवाई और वहां 4 टंकियां रखवाकर उन्हें पाइप लाइन से जुड़वा दिया। रेसीडेंसी जल यंत्रालय से इन टंकियों को प्रतिदिन 2 बार भरा जाता था।
 
फिर बनी बिलावली-लिम्बोदी से जल-आपूर्ति की योजना : इंदौर नगर की प्यास बुझाने में पिपल्यापाला और सिरपुर तालाब अपर्याप्त सिद्ध हो चुके थे। इन तालाबों से नगर को प्रति व्यक्ति प्रतिदिन केवल 3 गैलन पानी ही दिया जाता था। यह व्यवस्था 1913 तक जारी थी। जलाभाव को दूर करने के लिए बिलावली तथा लिम्बोदी की योजनाएं बनाई गईं जिनके द्वारा प्रति व्यक्ति प्रतिदिन 12 गैलन पानी दिया जाता था।

नगर विकास योजना विशेषज्ञ श्री गिडीस का ध्यान भी इंदौर की पेयजल समस्या की ओर गया था। उन्होंने अपनी रिपोर्ट में लिखा था, इंदौर नगर की जल समस्या ने मेरी यात्रा के समय से ही मेरा विशेष ध्यान आकर्षित किया है। मुझे तुरंत नगर पालिका अध्यक्ष तथा राज्य के प्रमुख शिल्पज्ञ द्वारा बिलावली तथा लिम्बोदी दिखाए गए।'
 
श्री गिडीस ने बिलावली तालाब के विकास की संभावनाओं का गहन अध्ययन करने के पश्चात राज्य को सलाह दी थी कि बिलावली तालाब के बाहरी ऊपरी भाग में एक 'सीवेज टैंक' बनवाया जाए, जिसमें बड़े तालाब से पानी आता रहेगा। इस छोटे तालाब को लिम्बोदी ग्राम के समीप से एक नहर बनाकर पिपल्या तालाब से जोड़ा जाए। इस योजना से न केवल पिपल्या तालाब में पानी आता रहेगा अपितु बिलावली का अतिरिक्त जल निकालने का यह सुलभ मार्ग होगा। श्री गिडीस ने पिपल्या तालाब की पाल को ऊंची तथा मोटी करने की भी सलाह दी थी। इस तालाब के उत्तरी-पूर्वी भाग को साफ किया जाना था और मार्तंड पाले को चौड़ा व साफ किया जाना था।
 
नगर की गलियों और गटरों को प्रतिदिन धोया जाता था। इस संबंध में श्री गिडीस ने अपनी रिपोर्ट में लिखा- 'क्यों न हम इस जल का उपयोग फव्वारों के रूप में करें? इससे नगर की शोभा बढ़ेगी, बच्चों के लिए यह आनंद की वस्तु होगी तथा जानवरों को पीने का पानी मिलेगा। इसके बाद इस पानी का उपयोग नगर की गटरों आदि को धोने के लिए किया जा सकता है।
 
इंदौर में 1910 से 20 ई. के मध्य नगर में कपड़ा मिलों की स्‍थापना का सिलसिला-सा चल पड़ा था। नगर पालिका द्वारा बहुत-सा पेयजल राजकीय कपड़ा मिल को दे दिया जाता था। जिस पर प्रतिबंध लगाने हतु श्री गिडीस ने अपनी रिपोर्ट में लिखा- 'नगर पालिका का अधिकांश जल राजकीय मिल को दे दिया जाता है। इस व्यवस्था को समाप्त कर दिया जाना चाहिए। मिल की जल-पूर्ति उसके कुओं से ही की जानी चाहिए।' राज्य द्वारा नियुक्त श्री गिडीस ने निश्चय निर्भीकतापूर्वक राज्य द्वारा जल के अपव्यय किए जाने की आलोचना की थी।
 
नगर के लोगों को 1880-81 में भी पानी की किल्लत झेलनी पड़ रही थी जिसे दूर करने के लिए लोधीपुरा में दो झरनों का निर्माण करवाया गया। इन झरनों का पानी खुली नालियों के जरिए नगर के काफी बड़े हिस्से में पहुंचाया जाता था। इन नालियों पर जलप्रदाय केंद्र थे, जो हौजनुमा होते थे। उनमें से नागरिक पानी भर लिया करते थे। हौज भरा होने पर पानी आगे बनी नाली में प्रवाहित हो जाया करता था। नागरिकों में इतना 'सिविक सेंस' था कि वे इस प्रकार की नालियों में कहीं गंदगी नहीं करते थे और न ही उन नालियों को तोड़ते थे। इतना होने के बावजूद प्राकृतिक धूल-मिट्टी से तो वह पानी लगातार गंदा होता ही रहता था।
 
यह उल्लेखनीय है कि इंदौर नगर की जल-आपूर्ति की शुरुआत लोधीपुरा के दो झरनों से प्रारंभ हुई और जनसंख्या विस्तार के साथ-साथ नए-नए जलस्रोतों को नगर की प्यास बुझाने के लिए जोड़ा गया। पिपल्यापाला, सिरपुर तालाब, बिलावली तालाब, लिम्बोदी तालाब, रालामंडल तालाब आदि के बाद यशवंत सागर का जल इंदौर पहुंचा।

ये सभी तालाब वर्षा पर आश्रित थे। अल्प वर्षा वाले वर्षों में नगर को भीषण पेयजल संकट से गुजरना पड़ता था, जिसके लिए म.प्र. की जीवनदायिनी नर्मदा को इंदौर तक लाने के लिए लंबा जनसंघर्ष चला और अंतत: विंध्याचल पर्वतों को पार कर नर्मदा का जल इंदौर पहुंचा। अत वह भी अपर्याप्त हो चला है अत: द्वितीय लाइन डालने की आवश्यकता प्रबल हो उठी है।