होलकर राज्य ने अपने विविध प्रकार के सिक्के समय-समय पर जारी किए जो स्वर्ण, रजत व ताम्र के थे। 1818 ई. में इंदौर नगर होलकर राजधानी बना। यहीं पर स्थापित की गई थी राजकीय टकसाल। मल्हारगंज में ढाले जाने वाले इन सिक्कों पर मल्हारनगर (मल्हारगंज) शब्द अंकित होता था।
				  																	
									  
	 
	महाराजा तुकोजीराव (द्वितीय) ने इंदौर स्थित इस टकसाल में तांबे व चांदी की मुद्राएं बड़े पैमाने पर ढलवाईं। उस समय राजकीय टकसाल में शासकीय मुद्राओं के साथ-साथ साहूकारों को भी मुद्राएं बनाकर दी जाती थीं। वे अपने साथ चांदी ले जाते और बदले में उसी वजन के चांदी के सिक्के ले लेते थे। ये सिक्के एक रुपया, आठ आना व चार आने वाले होते थे। इनके अतिरिक्त एक आना, आधा आना व पाव आना के तांबे के सिक्के भी थे। इस कार्य के बदले राज्य, साहूकारों से पारिश्रमिक लेता था। ऐसे कार्यों से प्रति वर्ष औसतन 15,000 रु. की आय राज्य को होती थी। इंदौर की यह टकसाल ठेकेदारी प्रथा पर चलाई जाती थी।
				  
	 
	महाराजा तुकोजीराव बड़े तरक्की-पसंद शासक थे। उन्होंने सिक्के बनाने का कार्य मशीन सेकरवाने का निश्चय किया। बख्शी खुमानसिंह की सहायता से ब्रिटेन से नई मशीन खरीदी गई। मल्हारगंज में इसके लिए एक नवीन भवन का निर्माण कैप्टन फेनविक की देखरेख में किया गया। ब्रिटेन के मिन्ट मास्टर श्री इव्हेन्स को इस कार्य में अपना विशेष मार्गदर्शन प्रदान करने हेतु इंदौर बुलाकर यहीं नियुक्ति दे दी गई। वर्ष 1861 में नई मशीन इंदौर पहुंची। 3 वर्ष की अवधि इसे स्थापित करने में लग गई। 1864 में नई मशीन से सिक्के ढालने का काम प्रारंभ हुआ। शुरू में चांदी के कुछ बहुत ही सुंदर सिक्कों का निर्माण किया गया, लेकिन इस कार्य से राज्य को हानि उठाना पड़ी और अंतत: टकसाल बंद कर दी गई। ब्रिटेन के मिन्ट मास्टर इव्हेन्स ने त्यागपत्र दे दिया और वे वापस ब्रिटेन लौट गए।
				  						
						
																							
									  
	 
	वैसे ब्रिटिश सरकार इस बात से नाखुश थी कि होलकर राज्य में ब्रिटिश रुपए की बराबरी वाली सुंदर मुद्राओं का निर्माण हो। संभवत: इस टकसाल के घाटे में जाने का यह भी एक कारण हो सकता है।
				  																													
								 
 
 
  
														
																		 							
																		
									  
	 
	1874 से 86 के मध्य भारत में चांदी की भारी कमी आ गई, जिससे इंदौर का बुलियन मार्केट भी प्रभावित हुआ। उस अभाव को समाप्त करने के लिए 1877 से इंदौर कोषालय द्वारा चांदी की खरीदी प्रारंभ कीगई व चांदी के सिक्के पुनः हाथ से ढाले जाने लगे।
				  																	
									  
	 
	इंग्लैंड से मंगाई गई मशीन बंद पड़ी थी। इंदौर के संपन्न व्यापारी श्री मंगतूराम ने जोखिम उठाकर उस मशीन पर ताम्रमुद्राएं ढालने का प्रयोग करने की अनुमति महाराजा से चाही। मंगतूराम को इस प्रयोग की इजाजत दे दी गई। सौभाग्य से वह प्रयोग सफल रहा और प्रसन्ना होकर महाराज ने मंगतूराम को ही ताम्रमुद्राओं के निर्माण का अनुमति पत्र दे दिया। 3 जुलाई 1886 के दिन से उस नई मशीन पर सिक्कों की ढलाई का कार्य प्रारंभ हुआ। इंदौर के उक्त व्यापारी ने आधा आना व पाव आना की मुद्राएं बड़ी सफलता के साथ इस मशीन पर ढालीं व टकसाल चलती रही।
				  																	
									  
	 
	कई टकसालों में ढली थीं होलकर मुद्राएं
	 
	होलकर की मुद्राओं की ढलाई का काम जिन टकसालों में किया गया वे पानीपत, पूना, बागलकोट, मिरज, चांदवड़, महेश्वर तथा मल्हारनगर (इंदौर) स्थित थीं। इनमें इंदौर की टकसाल सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। इसमें चांदी व तांबे दोनों प्रकार के सिक्के ढाले जाते थे। 1832 ई. में महाराजा हरिराव के समय महेश्वर की टकसाल बंद कर दी गई, जिसके फलस्वरूप इंदौर की मल्हारनगर (मल्हारगंज) टकसाल पर कार्यभार अधिक बढ़ गया। महेश्वरटकसाल के बंद होने के पूर्व इंदौर टकसाल में 11,000 सिक्के प्रतिदिन ढालने की क्षमता थी। तुकोजीराव के समय इसकी क्षमता बढ़ाई गई। इस टकसाल की व्यवस्था ठेकेदारी प्रथा के अंतर्गत थी। लगभग 125 व्यक्ति इसमें कार्य करके 25,000 मूल्य के सिक्के प्रतिदिन तैयार करते थे।
				  																	
									  
	 
	राज्य ने ब्रिटेन से मशीन मंगाकर सिक्के ढालने का प्रयास किया, किंतु घाटे के कारण यह असफल रहा। मंगतूराम नामक व्यापारी ने ब्रिटेन से बुलाई गई मशीन पर चांदी की बजाए तांबे के सिक्के ढालने में सफलता पा ली थी। उसे ताम्र मुद्राएं ढालने की अनुमति मिल गई। जुलाई से अक्टूबर 1886 के मध्य उनके द्वारा संभवत नमूने की जो मुद्राएं ढाली गईं, उनमें से कुल 2 सिक्के मिले हैं। इस मुद्रा पर एक ओर बीच में जलाधारी, नंदी और उसके ऊपर बिल्व-पत्र बना हुआ है तथा उसके चारों ओर गोलाई में 'शहर इंदौर संवत् 1942' अंकित है। मुद्राशास्त्रीय अध्ययन की दृष्टि से यह सिक्का बड़ा महत्वपूर्ण है। 3 जुलाई 1886 से 5 दिसंबर 1888 ई. के मध्य इंदौर की इस टकसाल से 2,20,441 रु. 12 आने 9 पाई मूल्य के तांबे के सिक्के जारी किए गए। कभी-कभी तो रात-दिन ढलाई का काम चलता रहता था।
				  																	
									  
	 
	इस टकसाल की प्रतिदिन अधिकतम ढलाई क्षमता 800 रुपयों के मूल्य के सिक्कों की थी, लेकिन प्रतिदिन औसत ढलाई 300 रु. मूल्य के सिक्कों की ही हो पाती थी।
				  																	
									  
	 
	उक्त क्षमता के अनुरूप 30 माह की अवधि में निर्मित 2,24,500 रु. की ताम्र मुद्राएं 5 दिसंबर 1888 ई. तक प्रसारित होकर प्रचलन में थीं। यदि यह मान लिया जाए कि उक्त संख्या में आधी मुद्राएं 1/2 आधा आना तथा शेष 1/4 पाव आना की थीं तो कुल प्रचलित ताम्र मुद्राओं की संख्या लगभग 1,07,76,000 होती है।
				  																	
									  
	इंदौर टकसाल से प्रसारित की गई ताम्र मुद्राएं आजादी तक व उसके कुछ समय पश्चात भी इंदौर में प्रचलित रहीं। नगर के अनेक परिवारों के पास इस टकसाल की पुरानी मुद्राएं आज भी संग्रहीत हैं।
				  																	
									  
	 
	होलकर मुद्राओं को प्रचलन से पृथक करने का प्रयास
	 
	होलकर राज्य के तांबे के सिक्के राज्य में तो प्रचलित थे ही इनका प्रचलन इंदौर रेसीडेंसी व महू की फौजी छावनी में भी था। ये मुद्राएं खंडवा, खानदेश व भुसावल में भी चलती थीं। हैदराबाद में तो ब्रिटिश मांगों के भुगतान में भी इन्हें स्वीकार किया जाता था।
				  																	
									  
	 
	इंदौर की ताम्रमुद्राएं आकार-प्रकार में ब्रिटिश ताम्रमुद्राओं के बराबर ही थीं किंतु मूल्यमान में कम थीं। इसलिए व्यापारियों वजन-साधारण में अधिक लोकप्रिय होने लगीं। ब्रिटिश मुद्रा को इंदौरी ताम्र मुद्राओं में बदलने पर 1 रु. 1 आना 3 पैसे मिलते थे इसलिए लोग ब्रिटिश मुद्रा का परिवर्तन होलकर मुद्रा में करने लगे। 5 माह की अल्पावधि में ही महू में 3,000 ब्रिटिश मुद्रा को बदलाया गया। इसका दुष्परिणाम ब्रिटिश सरकार को भुगतना पड़ा और अल्पकाल में ही ब्रिटिश ताम्र मुद्राओं की मांग इंदौर में समाप्त हो गई।
				  																	
									  
	 
	इस गंभीर मामले पर भारत सरकार ने तुरंत कार्रवाई प्रारंभ की। गवर्नर ने इंदौर स्थित ए.जी.जी. को निर्देशित किया कि वे इस प्रकार के मुद्रा-प्रचलन को बंद करने का अनुरोध होलकर महाराजा से करें। ब्रिटिश क्षेत्रों में होलकर मुद्रा प्रचलन पर भी कड़ी आपत्ति उठाई गई।
				  																	
									  
	 
	महाराजा शिवाजीराव होलकर का रुख प्रारंभ से ही ब्रिटिश विरोधी रहा, क्योंकि उनके विरुद्ध अंगरेजों द्वारा चलाए जा रहे सुनियोजित षड्यंत्र से वे बहुत नाराज थे। उन्होंने ब्रिटिश सरकार के अनुरोध को अस्वीकार कर दिया। इस पर बदले की कार्रवाई करते हुए न केवल इंदौर नगर में अपितु सभी जगह स्थित ब्रिटिश कार्यालयों को निर्देश दिए गए कि वे होलकर ताम्र मुद्राओं को न स्वीकारें। डाकघरों व रेलवे स्टेशनोंपर भी होलकर सिक्के नकार दिए जाते थे।
				  																	
									  
	 
	इस कार्रवाई से होलकर ताम्र मुद्राओं का अवमूल्यन हो गया। ब्रिटिश कोषालयों ने भी उन्हें स्वीकारने से इंकार कर दिया। लोग होलकर मुद्राओं के स्थान पर ब्रिटिश मुद्रा मांगने लगे। इंदौर कोषालय में उसकी वितरण क्षमता से भी अधिक ब्रिटिश सिक्कों की मांग की गई।
				  																	
									  
	 
	दूसरी ओर होलकर ताम्रमुद्राओं का भारी अवमूल्यन हुआ। वे एक ब्रिटिश मुद्रा 17 आने की बजाए 25 और 26 आने में उपलब्ध होने लगीं। फिर भी सरलता से उनके क्रेता नहीं मिलते थे।
				  																	
									  
	 
	होलकर दरबार ने अपनी ताम्रमुद्रा को ब्रिटिश मुद्रा से आकार-प्रकार व वजन में भिन्नाता रखने वाली बनाने का प्रयास किया। तदर्थ एक आना व पाव आना के दो सिक्के, जो नवीन प्रसारण के थे, नमूने के तौर पर 1889 में भारत सरकार को भेजे गए।
				  																	
									  
	 
	3 जुलाई 1893 को इंदौर स्थित टकसाल को बंद कर दिया गया। 1895 से 1897 तक तो उक्त टकसाल में एक भी मुद्रा नहीं ढाली गई।
				  																	
									  
	 
	इस प्रकार होलकर ताम्रमुद्राओं को बलपूर्वक प्रचलन से पृथक करने की कोशिश में अंगरेज सफल हो गए।
				  																	
									  
	 
	100 कलदार के बदले 118 होलकर रुपए
	 
	1818 की मंदसौर की संधि के पश्चात इंदौर में ब्रिटिशरेसीडेंसी की स्थापना हुई तभी नगर में ब्रिटिश मुद्रा का प्रचलन भी प्रारंभ हुआ। उस समय ब्रिटिश मुद्रा का मूल्य इंदौर में कम था। 100 होलकर रजत मुद्राओं (जिन्हें हाली कहा जाता था) के बदले 101 ब्रिटिश कलदार मुद्रा मिलती थी। यह स्थिति अंगरेजों को नागवार गुजरी और उन्होंने हाली रुपए का मूल्यमान गिराने के प्रयास प्रारंभ कर दिए। 1888 ई. तक उनके प्रयासों के प्रतिफल सामने आने लगे। उस समय तक होलकर के 100 चांदी के रुपयों के बदले 96 ब्रिटिश कलदार ही मिलने लगे। ब्रिटिश होलकर रुपयों की विनिमय अनुपात दर 1893 में गिरकर 100:110 हो गई।
				  																	
									  
	 
	इस आनुपातिक गिरावट से चिंतित होकर 1893 में ही इंदौर में होलकर रजत मुद्राओं की ढलाई का काम प्रायः बंद कर दिया गया। होलकर नरेश महाराजा शिवाजीराव ने भारत के गवर्नर जनरल से अनुरोध किया कि चूंकि इंदौर में टकसाल बंद कर दी गई है, इसलिए ब्रिटिश टकसाल में ही होलकर रजत मुद्राएं ढाल कर दी जाएं। इस अनुरोध को गवर्नर जनरल ने अस्वीकार कर दिया।
				  																	
									  
	 
	इधर होलकर राज्य के सभी सीमावर्ती क्षेत्रों में ब्रिटिश रुपया चल रहा था, इससे होलकर व्यापारियों के लिए भारी परेशानी उत्पन्ना हो गई। अंतत: होलकरसरकार को विवश होकर होलकर रुपए के बदले ब्रिटिश कलदार चलाने पर विचार करना पड़ा। लंबी लिखा-पढ़ी के बाद दोनों पक्षों के मध्य विनिमय का अनुपात तय हो सका। 100 ब्रिटिश मुद्राओं के बदले 118 होलकर रुपए देना तय किया गया। बात 1902 ई. की है, जब होलकर खजाने में ढाई करोड़ हाली सिक्के सुरक्षित थे और लगभग इतने ही प्रचलन में थे।
				  																	
									  
	 
	महाराजा ने ब्रिटिश सरकार से अनुरोध किया कि विनिमय की दर बहुत अधिक है, इसे कम किया जाना चाहिए। साथ ही यह भी कहा गया कि होलकर हाली सिक्कों के बदले में जो सिक्के दिए जाएंगे, उन पर एक ओर होलकर राज-चिह्न अंकित किया जाना चाहिए। महाराजा ने यह अनुरोध 'बीकानेर' व 'अलवर' राज्यों के सिक्कों के आधार पर किया था, किंतु यह अनुरोध भी ब्रिटिश सरकार ने अस्वीकार कर दिया।
				  																	
									  
	 
	मजबूरन समझौता स्वीकार करना पड़ा, जिसमें होलकर मुद्रा को ब्रिटिश मुद्रा में परिवर्तित किए जाने की व्यवस्था थी। होलकर महाराजा को अगले 50 वर्षों के लिए अपना मुद्रा-प्रसारण का अधिकार भी त्यागना पड़ा।
				  																	
									  
	 
	14 जून 1902 ई. को इंदौर नगर व राज्य के अन्य हिस्सों में होलकर सिक्के कोषालयों में जमा कराने कीअधिसूचना जारी की गई। इंदौर के व्यापारियों व धनाढ्य लोगों में बेचैनी फैल गई। हाली के बदले जाने की अवधि 4 माह रखी गई थी। किंतु इस अवधि के बाद भी इंदौर में हाली को ब्रिटिश मुद्रा में बदलवाने वालों की कतार लगी रहती थी। अत: 2 माह की अवधि और बढ़ाई गई।
				  																	
									  
	 
	हाली सिक्कों को एकत्रित करके बंबई टकसाल भेजा गया और उसके बदले ब्रिटिश सिक्के प्राप्त कर वितरित किए गए।
				  																	
									  
	 
	समझौते के अंतर्गत 1903 ई. में 3,52,90,850 हाली सिक्के ब्रिटिश सरकार को बदलने के लिए दिए गए, जिसके बदले में राज्य को 2,98,86,014 ब्रिटिश मुद्राएं लौटाई गई। इस विनिमय में राज्य को केवल उसी एक वर्ष में 54,04,836 रु. की हानि उठाना पड़ी।
				  																	
									  
	 
	इस विनिमय का दीर्घकालीन प्रभाव व्यापार-व्यवसाय पर पड़ा। सेंट्रल इंडिया के व्यापारियों के लिए अब इंदौर सर्वाधिक लाभदायक व्यापारिक केंद्र बन गया, क्योंकि विनिमय की समस्या समाप्त हो गई थी।