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Written By WD

‍कवि की आवाज़ का कोई विकल्प नहीं

- चंद्रकांत देवताले

‍कवि की आवाज़ का कोई विकल्प नहीं -
WDWD
विवेक गुप्ता, आशुतोष दुबे और रवींद्र व्यास की बातचीत

आपकी पहली कविता से ही बात शुरू करते हैं।
- बाहर तो 57 में ज्ञानोदय में छपी थी। इंदौर में 54 में नईदुनिया में। उससे पहले 53 में हाईस्कूल पत्रिका में, तब मैं नवीं कक्षा का छात्र था। 'मजदूर' शीर्षक था इस कविता का। 1952 में पहली पविता लिखी थी। छंद में तो क्या थी, तुकबंदी थी।

  मैं अभी भी बिना बचपन को याद किए सो नहीं सकता रात को। बचपन के पहाड़ पर चढ़ता हूँ और तब मुझे नींद में प्रवेश की इजाजत मिलती है। आज भी बचपन के दृश्‍य - उनकी विजुअल मेमोरी - बहुत ताज़ा है ...      
* आपके गीत, संग्रह में नहीं आ पाए। क्या हिंदी साहित्य में जो दुराग्रह है गीत के प्रति, उसके चलते ऐसा हुआ? गीत का साथ छूटा कैसे?
नहीं, दो-तीन तो किताबों में छपे हैं। एक तो नीरज के संपादन में छपी है - श्रृंगार गीत हैं उसमें। हर व्यक्ति का अपना टेम्परामेंट होता है। यह भी मुमकिन है कि छंद जीवन से ही छूट गया हो।

* गिरिजा कुमार माथुर ने बहुत सुंदर गीत लिखे हैं ....
- सबने लिखे हैं। मेरा एक गीत भारतीय आत्मा माखनलाल जी ने छापा था - कर्मवीर में। उसमें एक पंक्ति में एक बहुत ही बेढबपन था। तो उसमें उन्होंने सिर्फ एक शब्द बदल दिया और उससे कविता का पूरा रूप ही बदल गया। एक बड़ा कवि कैसे चीज़ों को छूता है।

* बचपन की स्मृतियाँ रचनात्मकता में क्या भूमिका निभाती हैं?
- इसमें दो तरह की चीज़ें काम करती हैं। जैसे किसी ने कह दिया - बचपन की स्मृति। तब आदमी क्या करेगा? बचपन में जाएगा और खोद-खोद के स्मृतियाँ लाएगा।

* फिर भी, जो साथ रहने वाले प्रभाव हैं - जैसे आपकी वह कविता है। डिठौना था उसका नाम'...
मेरे साथ तो बचपन का बहुत घनिष्ठ रिश्ता है। इसलिए इसको ऐसा न समझा जाए।
- मैं अभी भी बिना बचपन को याद किए सो नहीं सकता रात को। बचपन के पहाड़ पर चढ़ता हूँ और तब मुझे नींद में प्रवेश की इजाजत मिलती है। आज भी बचपन के दृश्‍य - उनकी विजुअल मेमोरी - बहुत ताज़ा है। मैं दूसरे विश्वयुद्ध के पहले में जौलखेड़ा गाँव के छप्पर के नीचे सोई हुई अपनी नानी को आज भी देख सकता हूँ। उसके सफेद बाल, हाथ में चाँदी का एक कड़ा और मैं उसका पाँव दबा रहा हूँ और मुझसे कुछ चूक हो गई है, मतलब उचक गया हूँ मैं और उसका खून निकलने लगा है। वह खून भी मैं देख सकता हूँ। दृश्य स्मृति से संपन्न होकर ही मैं लेखक हुआ।

* अच्छा, अकविता से आप कैसे जुड़े?
- अकविता से तो मैं जुड़ा तब भी उसके एक हिस्से का ही मैंने बहस में समर्थन किया। जबलपुर से निकलने वाली पत्रिका 'कृति परिचय' के अकविता विशेषांक में 65-66 में मैंने लिखा था कि अकविता हमारी आज की ‍कविता की एक छोटी सी कक्षा ही हो सकती है। ठीक उसी तरह से कि एक आदमी दिन भर में कितनी देर गुस्सा रह सकता है? आपको शांत होना पड़ेगा। आपको प्रेम करना पड़ेगा। और अकविता को... इस तरह हिकारत की नज़र से देखा गया, अपमानित तक किया उस समय के हमारे तथाकथित बड़े साहित्यकारों ने... जो आज भी करते हैं।

पिछले दिनों नामवरजी से हमने इंटरव्यू लिया था तो उन्होंने अकविता के बारे में इतनी पॉजीटिव कमेंट की आकाशवाणी पर कि मैं चकित रह गया। बाद में यह भी कहा गया है कि नई कविता की जड़ीभूत सौंदर्यभिरुचि को तोड़ने में और कविता को नई दिशा देने में अकविता ने बहुत बड़ी भूमिका निभाई। राजकमल चौधरी वगैरह इतने छोटे कवि नहीं हैं जिस तरह से उनको विस्मृत किया गया है। यह वैसा ही घपला है जैसे बच्चन को बाहर कर देना।

  मेरी कविता में जो रेटॉरिक है वह मेरे स्वभाव का हिस्सा है। मैंने शायद कभी यह बताया नहीं कि कविता ने मुझे मेरी आवाज दी है। मैं जब बहुत छोटा था, एक बार टाइफाइड में मैं गूँगा हो गया था। छह सात महीने तक मैं गूँगा ही था। टाइफाइड हो गया था ...      
* विश्वसनीय कविता और कवि को जाँचने का आधार क्या हो सकता है?
- यह बहुत कठिन काम है। जेनुईन और फेक पोएट्री की पड़ताल। लेकिन जिस आदमी में जासूसी
कुत्ते के कुछ लक्षण हों - एस्थेटिक्स की और जीवन की समानांतर बेचैनी हो, वह आदमी आसानी से उसको पहचान जाएगा। जैसे आग की तस्वीर है - उसके पास से गुजरते हुए हम अपने कपड़े नहीं बचाएँगे किंतु आग से अपने को बचाएँगे। तो कविता का जो तापक्रम होता है। वह आपको चटका देता है। आपकी स्पर्श क्षमता अगर शून्य है तो आपको चटका नहीं लगेगा और अगर आपकी बुद्धि कुंद है तो आप वाहियात कविताओं की दाद देते हुए दिखाई देंगे। इसलिए यह बहुत कठिन काम है।

* आलोचना का वर्तमान परिदृश्य आपको कैसा लगता है?
- आलोचना, एक तो शिक्षा जगत की अकादमिक आवश्यकता है। जैसे मुक्तिबोध पाठ्‍यक्रम में आ गए तो मुक्तिबोध पर किताबें आना चाहिए। तो यह वैसा ही है कि जैसे सूखा पड़ गया तो पानी बेचने वाले लोग एक्टिव हो जाते हैं। यदि उनको हम न गिनें तो सृजनात्मक आलोचना है, उसकी कोशिश अपने यहाँ बहुत कम है। पोप ने जैसा कहा है कि दुनिया भर की घड़ियाँ एक समय नहीं बतातीं। लेकिन हर आदमी अपनी ही घड़ी ठीक समझता है। समीक्षक इसी तरह करते हैं।

* कई बार ऐसा होता है कि कुछ बहुत अच्छा आपने पढ़ा और उससे प्रेरित होकर लिखा.. क्या कुछ ऐसा याद है आपको?
- हाँ, जैसे मैंने एक वाक्य पढ़ा इलियस कैनेटी का 'हर किसी को अपने को खाते हुए देखना चाहिए।' ऐसा कुछ वाक्य था। इसने मुझे इतना परेशान किया कि बचपन से लेकर जो भूख लगने की और खाने की तमाम चीजें एकदम याद आ जाती हैं। उससे फिर मैंने वह ‍कविता लिखी कि मैं अपने को देखना चाहता हूँ। और यह सही है कि बहुत दिनों तक जब आप जड़ हो जाते हैं तो पढ़ने-भटकने का हल-बक्खर, मनोभूमि को तोड़ता है।

* कुछ लोग पहले से तय कर लेते हैं कि उन्हें क्या करना है, कहाँ रहना है। क्या आपने भी अपने लेखक बनने के बारे में कुछ तय किया था?
- नहीं, नहीं। मैंने ऐसा कुछ तय नहीं किया। और जो भविष्य के बारे में योजनाएँ बनाते हैं मेरा वैसा कोई विश्वास नहीं है। 'अब आप आगे क्या कर रहे हैं या भविष्य में आपकी क्या योजनाएँ हैं।' इस तरह के प्रश्न मेरे माथे पर पत्थर की तरह लगते हैं। बचपन में तो सबसे पहले पाइंट्समैन बनने का सोचा था जिसके झंडी बताने से गाड़ी रुकती या जाती है। क्योंकि मैं बड़वाह में रहता था, मेरे पिता गुड्‍स क्लर्क थे तथा स्टेशन पर मेरा बहुत समय बीतता था।

* अकविता का दौर चला होगा शायद सत्तर तक... आप उस परिधि में कैसे आए और फिर दूर कैसे हुए?
- कोई भी दौर खत्म नहीं होता है। कहीं न कहीं, किसी न किसी रूप में मौजूद रहता है। जैसे ‍भक्तिकालीन काव्यधारा अभी भी खत्म नहीं हुई। आपको ऐसे कवि मिल जाएँगे जो ब्रजभाषा में लिख रहे हैं : जो रामोपासक हैं, कृष्णोपासक हैं। तो अकविता की बहुत सारी चीज़ें उन कवियों, में भी मिलेंगी जो अकविता से बहुत ही मुँह बिदकाते हैं। क्योंकि उनको पता नहीं है, और बहुत सी चीज़ें उनमें हैं।

और दूसरा यह कि मेरा उस परिधि में आना और फिर बाहर जाना - ऐसा कोई वाकया नहीं है। न तो मैं उसकी परिधि में गया जानबूझकर - जैसे अपन कबड्डी में इस पाले से उस पाले में जाते हैं और फिर जान बचाके वापस आते हैं - न ऐसा वापस आया। मैं तो जो हूँ, सो हूँ।

* आपकी कविता में रेटॉरिक का इस्तेमाल खूब है और लोग ऐसा मानते हैं कि यह कविता के स्वास्थ्य के लिए अच्छी चीज नहीं है?
- मेरी कविता में जो रेटॉरिक है वह मेरे स्वभाव का हिस्सा है। मैंने शायद कभी यह बताया नहीं कि कविता ने मुझे मेरी आवाज दी है। मैं जब बहुत छोटा था, एक बार टाइफाइड में मैं गूँगा हो गया था। छह सात महीने तक मैं गूँगा ही था। टाइफाइड हो गया था मुझे। इससे मेरे कंठ पर बहुत इफेक्ट पड़ा। तो बहुत दिनों तक गूँगा रहा। तब मैं बड़वाह में तीसरी-चौथी में पढ़ता था। तब मेरे अध्यापक ने कहा - तुम आउटर सिग्नल पर ऊपर चढ़ जाओ। बिल्कुल ऊपर। तो मैं ऊपर चढ़कर जोर-जोर से चीखते हुए आवाज लगाया करता था। भाषणबाजी करता। कुछ भी उटपटांग बोलता रहता था। जो भी मन में आता बकता रहता। मैं ठीक से उच्चारण नहीं कर पाता था। तो उन दिनों अपनी आवाज के वास्ते मैं चीखता रहता। तो मैंने बोल-बोलकर चीख-चीखकर अपनी आवाज को पाया है।

* एक तरफ माना जाता है कि कविता अंदर से फूटती है। दूसरी तरफ और दूसरे माध्यम भी अपनी तरह से यथार्थ उद्‍घाटित कर रहे हैं, ऐसे में कविता के द्वारा यथार्थ को व्यक्त करना कठिन हो गया है। आप क्या सोचते हैं?
- आजकर बहुत सारे साधन हैं, माध्यम हैं। सूचनाएँ सबके हाथों में आ चुकी है। मीडिया में जो विस्फोट हुए हैं। उससे चीजें बहुत आसान हो गई हैं। सायास और निरायास के बावजूद यह तो रहेगा कि कविता कितनी जेनुइन है। यह प्रश्न हमेशा बना रहेगा। कुछ भी कहीं भी उठाकर कोई कुछ लिख ले लेकिन जब तक उसमें प्राण नहीं होंगे, कुछ नहीं होगा।

* पहले घरों में पढ़ने के संस्कार थे। किताबों, पत्रिकाओं की जगह थी। अब यह सब बदल गया है, कारण?
- कारण है पूँजी। धन कमाने की होड़। वयैकल्पिक, सस्ती और आसानी से आकर्षित करने वाली चीजें, उनका उत्पादन। वे मैग्जीनें और सौंदर्य प्रसाधन, खाने बनाने पकाने की विधियाँ। मनोरंजन करने वाली कथाएँ, सत्यकथाएँ, जासूसी उपन्यास, ये तमाम चीजें हैं। मनुष्य ने जिस तरह से धनोपार्जन करने और बाजार के उत्पादनों से मुग्ध होने का काम किया। उससे आदमी की खुद की घर की जिंदगी बदल गई है, उसका पैटर्न बदल गया है। उसकी जगह, उसका देखना सिमट गया है।
* विष्णु खरे का कहना है कि मुक्तिबोध के बाद देवताले ही ऐसे कवि हैं जो अपने समय को इतनी निर्ममता और असलियत से उधेड़कर और उघाड़कर रख देते हैं। आपको कितना सही और कैसा लगता है यह दावा?
- यह तो विष्णु पर निर्भर करता है कि उसने मेरी कविताओं को किस तरह देखा है। मैं अपनी कविता के बारे में किसी भी तरह के दावे करने के विरुद्ध हूँ। सही बात तो यह है कि कोई दूसरा ही यह दावा कर सकता है।

* क्या लंबी कविता लिखने का जमाना अब नहीं रहा? 'भूखंड तप रहा है' के बाद आपने भी और समकालीन कवियों में किसी ने लंबी कविता नहीं लिखी। इसकी रिवाइवल की कोई संभावना आप देखते हैं?
- लंबी कविता का दौर न कभी जाएगा और न कभी गया है। अभी कई पत्रिकाओं में लंबी कविताएँ छपी हैं। और यह समय तो लंबी कविताओं का ही समय है। काव्यनाटक का समय है यह।

* स्त्रियों पर जो आपकी कविताएँ हैं, हालाँकि उन पर पहले भी बात हुई है, फिर भी लग रहा है कि कुछ चीजें छूटी हैं तो आपकी कविताओं में बहुत विभिन्न शेड्‍स स्त्रियों के दिखाई देते हैं, यह आपकी सहज काव्यात्मक उपलब्‍धि है या आपके जीवन में स्त्रियों की कोई विशेष भूमिका या जगह है?
- नहीं, ऐसा तो कुछ नहीं है। और कोई ऐसा भी नहीं होगा कि जिसके जीवन में स्त्री का महत्व या उसका योगदान ना हो। चाहे वह पाजीटिव हो या निगेटिव। और अगर वह निगेटिव हुआ तो भी उतना ही महत्व रखता है। यह भी हम अपने समाज में स्त्रियों को, उनका दुख, उनकी यातना, उनका समर्पण, उनकी मेहनत सब निरंतर देखते हैं।

जैसा कि ज्योति बा फुले की पत्नी ने कहा है कि आदमी खाता रहता है और औरत काम करती रहती है, मरती-खपती रहती है, और मर्द जो है वह बिना मेहनत के खाता रहता है, उसकी तीसरी पंक्ति है कि पशु-पक्षियों के जगत में ऐसा नहीं है। इसके पीछे वजह यही है कि स्त्रियों के काम का कोई मूल्यांकन नहीं होता है।

मुझे तो नहीं लगता कि कोई स्पेस अलग से है। अब तुम कहते हो तो शायद होगी। पर मुझे नहीं लगता। पर यह है कि मैं औरतों से बहुत प्रेम करता हूँ।

* किस तरह का प्रेम?
- इसमें आपको थाह नहीं मिल सकती। ये नर्मदा किनारे जो बच्चे होते हैं, एक सिक्का कोई नदी में फेंकता है तो वे डुबकी लगा के ले आते हैं। वैसे ही मैंने भी यह सिक्का उठाया है। उनके, स्त्रियों के भीतर इतना अथाह दुख है कि उसका कोई अंत नहीं है। और आप देखो, आप सोच रहे हैं कि आपकी औरतें आपको बहुत प्यार कर रही हैं.. वे कर रही हैं लेकिन उस प्यार के पीछे कितनी घृणा है.. और आपको कुछ पता तक नहीं पड़ता क्योंकि औरत जो है वह अपना दुख छिपाने में, और अपनी अस्मिता को भस्मीभूत कर देने में बहुत निष्ठावान होती है और उसका अभिनय अद्‍भुत... नैसर्गिक.. गजब का अभिनय है।

* पिछले कुछ सालों से साहित्य अकादमी के जो पुरस्कार मिले हैं वे अपेक्षाकृत युवा कवियों को मिले हैं। इस बारे में क्या सोचते हैं आप?
- बहुत अच्छा है, मिलना चाहिए। इसमें उम्र का कोई संबंध नहीं होना चाहिए। कोंकणी वगैरह में तो उन्नीस और बीस बरस के लोगों को ही मिल जाते हैं सम्मान और पुरस्कार। और वरिष्ठता? ये सब बकवास है। साहित्य में कोई सीनियरिटी नहीं होती। लेखक, लेखक होता है।

साभार : वसुधा