क्या तुमने लिखा है मन के समंदर को,
क्या तुमने लिखा है टूटते गहन अंदर को।
क्या देह की देहरी से इतर कुछ लिख सके हो,
क्या मन की खिड़की से कुछ कह सके हो।
क्या स्त्री की उपेक्षा तुमने लिखी है,
क्या बेटी की पीड़ा तुमको दिखी है।
क्या कृष्ण के कर्षण को तुमने नचा है,
क्या राम के आकर्षण को तुमने रचा है।
क्या शरद के रास में खुद को भिगोया है,
क्या फाग के रंग में खुद को डुबोया है।
क्या क्रांति के स्वर तुम्हारे कानों में पड़े हैं,
सुना है सत्य के मुंह पर ताले पड़े हैं।
हर शख्स खामोशी से सहमा यहां है,
हर रात ओढ़े गहरी कालिमा यहां है।
क्या तुमने पीड़ितों की आहों को शब्दों में उकेरा है,
सुना है चांद पर आजकल जालिम का बसेरा है।
क्या गिद्ध की गंदी निगाहों को तुमने पढ़ा है,
सच के मुंह पर ये तमाचा किसने जड़ा है।
अगर ये सभी तुम्हारी कविता में नहीं है,
सरोकारों से गर तुम्हारी संवेदनाएं नहीं हैं।
भले ही जमाने में कितने भी मशहूर हो तुम,
सच मानो अभी साहित्य से बहुत दूर हो तुम।