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हमें वीरान इक खंडहर मिला
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सुरेंद्र चतुर्वेदी सर छिपाने को हमें वीरान इक खंडहर मिला,मुद्दतों के बाद चलिए फिर पुराना घर मिला।शोर तो मुझमें कभी आता रहा जाता रहा,एक सन्नाटा सा बिखरा जिस्म में अक्सर मिला।भूल कर तकदीर अपनी हो गया खुश आईना,रास्ते में जब उसे एक कीमती पत्थर मिला।पाँव में छाले तो होंगे जानता तो था मगर,खून में डूबा हुआ अहसास का नश्तर मिला।जब सवालों की सलीबों पर उसे टांगा गया,वो बुरा है सबसे ज्यादा इक यही उत्तर मिला।उम्र के पिंजरे से आजादी मिली कुछ इस तरह,कट गए जब पंख पंछी के उसे अंबर मिला।कर्बला अहसास की आँखों में आ गया,प्यास होठों पर लिए काटा हुआ जब सर मिला। साभार- संबोधन