अपने हिस्से का आसमाँ
सुनीता भाटिया की कविताएँ
अपने हिस्से का आसमाँ नियम है उसकासोने से पहलेदो-चार बातेंवह खुद से करती ही है।न जाने कितने ख्वाबों कोपन्नों पर उतारने की नाकाम कोशिश करती है। फिर सोचती है क्यों न ख्वाब को ख्वाब ही रहने देऔर महसूसेउसे दिल से।दिल की गहराई में।खिंची है एक लकीरउसे मिटाने के लिएनाकाफी लगती हैकोई और लकीर।ये लकीरेंये एहसासचमचमाते हैं कैमरे के फ्लैश की मानिंदबिखेरते हैंकुछ पल रोशनीफिर, किसी चिडि़या की तरहहो जाते हैं, फुर्र खुले आसमान मेंऔर फिरतलाशते हैंअपने हिस्से का आसमाँ । आस
वह करती है कोशिश अपनी मुट्ठी में कैद करने की बरसात की बूँदों को।चाहती है आर्द्र होकर इनसे सूखापन जिंदगी काकहीं, कभी तो नम हो जाए। वह सुबह-सुबहपत्तों पर पड़ेओस के कणों को देखकर सोचती हैकहीं, कभी तोइनकीठंडक हृदय की परतों पर पड़कर, छनकरदूर करेमन की जलन।वह छानती हैधूप की किरणों मेंअपने सुख-दुख के कणऔर बीनती हैसुखों के कंकड़ उन कंकड़ों को भी वहछिटका देती है दूरकि, नन्ही चिड़ियाआस लगाए बैठी हैऔर देख रही हैउसके कणों को टुकुर-टुकर। कविता
रोशनी का आलोक देकररचती है एक नई दुनियाहमारे अपने लिए।चीजेंअचानक दिखने लगती हैंकिसी दूसरे रंग में रंगीनग्न सच्चाइयों कोसहने के लिए जरूरत तो पड़ती ही हैकिसी एक रंग कीइसके नीचेइसके साथहम देख सकते हैं खुद को।कविताकोई एतराज नहीं करती।हम देख पाएँ तब भी हम न देख पाएँ तब भीयह तो बस पैरों तले बिछेरास्ते को पहचानने में मदद करती है औरअंतहीन यात्रा कोबना देती है रंगों से रंगीन। साभार : अक्षरम् संगोष्ठी