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Last Updated : गुरुवार, 31 अगस्त 2023 (16:39 IST)

इंसाफ का मंदिर है ये, भगवान का घर है: अमर (1954) के गीत में धुन, वाद्य संगीत और फील सभी कुछ मौलिक है | गीत गंगा

यह गीत उसी दौर के कथानक, आदर्शवाद, संगीत, शायरी, दिलीप, रफी, नौशाद व हिन्दुस्तान की याद है

Insaf Ka Mandir Hai Ye: अमर का ये गाना दिलीप, रफी, नौशाद व हिन्दुस्तान की याद है | Geet Ganga
  • ऐसे गीत 'बेसिक' गीत कहलाते हैं
  • तब कुछ ऐसा ही जज्बा था, ऐसे ही गीत लिखे जाते थे
  • इसे शकील बदायूंनी ने लिखा, नौशाद ने तर्जबद्ध किया और मो. रफी ने गाया
अगर आप शायराना मिजाज के जीव हैं तो 'दु:ख-दर्द मिले जिसमें वही प्यार अमर है...' यह पंक्ति आपको अवश्य छू जाएगी। हां, तब कुछ ऐसा ही जज्बा था, ऐसे ही गीत लिखे जाते थे। ऐसे ही मर्मस्पर्शी कथानक होते थे। फिल्म 'अमर' (सन् 1954) में अमर (दिलीप कुमार) एक वकील हैं। कस्बे में रहते हैं।
 
प्रसंगवश एक बरसाती शाम जब गांव की एक लड़की (निम्मी) अपने को गुंडे (जयंत) के हाथों से बचाने के लिए अमर के कमरे में आती है तो नेक, शरीफ अमर उसके साथ बलात्कार कर बैठता है और वह लड़की ऐतराज नहीं कर पाती, क्योंकि मन ही मन वह अमर को चाहती है।
 
उधर अमर की सगाई एक प्रतिष्ठित युवती (मधुबाला) से हो जाती है। धीरे-धीरे गांव में निम्मी के हमल की खबर फैल जाती है, पर वह मुंह बंद रखती है। स्वयं अमर अपने को दंडित करवाने के लिए उससे जबान खोलने को कहता है, पर निम्मी लांछन सहती रहती है और अमर का नाम नहीं बताती।
 
निर्माता महबूब खान सवाल उठाते हैं- अमर की शादी किसके साथ होनी चाहिए? और‍ फिल्म जवाब देती है- गंवई गांव की उसी लड़की के साथ। अमर अपनी मंगेतर को सगाई की अंगूठी वापस कर देता है। प्रसंगवश हम यह भी बता दें कि महबूब खान घोषित कम्युनिस्ट थे। दरांती और हथौड़ा उनके बैनर का प्रतीक चिह्न थे और 'मुद्दई लाख बुरा चाहे तो क्या होता है, वही होता है जो मंजूरे ख़ुदा होता है' जैसा आदर्शवादी शे'र उनकी हर फिल्म के आरंभ में मौजूद होता था।
 
सो 'अमर' फिल्म के कथानक को समेटते हुए तब यह मशहूर गीत आया- 'इंसाफ का मंदिर है ये, भगवान का घर है।' इसे शकील बदायूंनी ने लिखा, नौशाद ने तर्जबद्ध किया और मो. रफी ने गाया। यह गीत अब हमारे हिन्दी फिल्म संगीत में इतिहास बन चुका है। इस गीत की धुन, वाद्य संगीत और फील सभी कुछ मौलिक है। ऐसे गीत 'बेसिक' गीत कहलाते हैं। खास अपील का कारण इसमें मंदिर के घंटे हैं, जो इस गीत में बजते रहते हैं और स्मृति को पावनता से जोड़ते हैं। यह गीत अमर के अंतरद्वंद्व को भी चित्रित करता है।
 
अब गीत की इबारत पढ़िए-
 
इन्साफ़ का मंदिर है ये,
भगवान का घर है।
कहना है जो कह दे,
तुझे किस बात का डर है।
 
है खोट तेरे मन में जो,
जो भगवान से है दूर।
है पांव तेरे फिर भी,
तू आने से है मजबूर।।
 
हिम्मत है तो आ जा यह,
भलाई की डगर है।।
दु:ख देके जो 'दुखिया' से,
न इंसाफ़ करेगा।
 
भगवान भी उसको,
न कभी माफ़ करेगा।
यह सोच ले हर बात की,
दाता को खबर है।
 
है पास तेरे जिसकी,
अमानत उसे दे दे
निर्धन भी है इंसान,
मोहब्बत उसे दे दे।
 
जिस दर पे सब एक हैं,
बंद ये वो दर है।
मायूस न हो हार के,
तकदीर की बाज़ी।
 
प्यारा है वो काम जिसमें,
हो भगवान भी राज़ी।
दु:ख-दर्द मिले जिसमें,
वही प्यार अमर है।
 
देखा आपने, इस एक गीत के भीतर दुखिया के साथ इंसाफ, निर्धन के प्रति प्यार, ईश्वर के प्रति नैतिक भय, सुख के ऊपर त्याग की प्राथमिकता और कर्तव्य के लिए प्यार को ठुकरा देने का दु:ख-मिश्रित गौरवपूर्ण सुख... के संदेश को किस तरह गूंथ दिया गया है। ये थे मुस्लिम महबूब साहब, जिन्होंने शिव मंदिर, हिन्दू पात्र और भारत को लेकर एक महान फिल्म बनाई थी। यह गीत उसी दौर के कथानक, आदर्शवाद, संगीत, शायरी, दिलीप, रफी, नौशाद व हिन्दुस्तान की याद है! 
(अजातशत्रु द्वारा लिखित पुस्तक 'गीत गंगा खण्ड 1' से साभार, प्रकाशक: लाभचन्द प्रकाशन)