सुरैया की आवाज का रेशमी गिलाफ
तेरे नयनों ने चोरी किया मोरा छोटा-सा जिया, परदेसिया !आपमें से शायद ही कोई ऐसा होगा, जिसने इस प्यारे, मासूम गीत को कभी न कभी सुना न होगा। एक जमाना इस गीत को सुनते हुए ही बड़ा हुआ, गुजरा और अब याद बन गया। इस गीत की मिठास, ठुमक और खुलूस (इनोसेंस) ने किसे नहीं लुभाया, किसे नहीं गुदगुदाया! सुरैया जैसी सुंदर थीं, उनकी आवाज भी वैसे ही सुंदर थी। माना, लता और आशा की तरह वे कठिन और जटिल बंदिशों की गायिका नहीं थीं, पर उनकी आवाज में रेशमी गिलाफ के तकिए-सा ऐसा गुदगुदापन था कि सुनने वाले को लगता था, किसी ने उसे फूल के हाथों लौक लिया! सुरैया ने अच्छा-खासा गाया। उनके गीत खूब मकबूल हुए। और अवाम की आँखों, कानों पर उन्होंने अर्से तक बेइंतिहा राज किया! एक बात और बता दूँ उस दौर के फिल्म संगीत के बारे में। वह यह कि सन् 48 से लेकर 50 तक जो धुनें आईं, वे इतनी सीधी-सादी, गाँव-देहाती और इकहरी थी कि यादों में गहरी उतर गईं और अब खोए हुए प्यारे, हिन्दुस्तान की याद दिलाती हैं। खासतौर पर हुस्नलाल-भगतराम के नग्मों में जो जमीनीपन, अपनापन और सादगी आई, उसी ने उस दौर के हिन्दुस्तानी भारत को हमारे अवचेतन में गहरा घोल दिया। आज हम गीत तो सुनते हैं, पर उनमें याद बनाने वाला तत्व नहीं मिलता, और न ऐसा हिन्दुस्तान मिलता है, जिसे अपना मानकर हम सुने हुए गीतों के मार्फत जेहन में पाल सकें, बसा सकें। ऐसा समझ लीजिए कि नौशाद के 'बैजू बावरा' के पहले का जो संगीत है, खासतौर पर हुस्नलाल-भगतराम का संगीत, वह हमारे घर, आँगन, सेहत और सहजन (मुनगे) के झाड़ के ज्यादा करीब है। सुरैया इस दौर की मार्मिक याद हैं। यह गीत सन् 48 के साल जारी हुआ था। इसे राजेन्द्र कृष्ण ने लिखा था और धुन तथा संगीत का गहना पहनाया था संगीतकारों की जोड़ी हुस्नलाल और भगतराम ने। आर.के. शर्मा की सूचना के अनुसार इसे परदे पर भी सुरैया ने ही गाया था। उनके हीरो थे, रहमान। गीत की धुन और वाद्य-संगीत काफी कुछ हुस्न-भगत के ही एक अन्य गीत के करीब है जिसे 'बड़ी बहन' में लता ने गाया था। 'चले जाना नहीं नैन मिलाके, हाय, सैंया बेदर्दी, सैंया बेदर्दी।' गौर करने लायक बात यह है कि हुस्नलाल भगतराम का संगीत स्फूर्ति, कसावट और सादगी से भरा हुआ था। उसमें गहराई और फैलाव दोनों थे। कहीं भी इस जोड़ी का आर्केस्ट्रा गायन से कम न पड़ता था, बल्कि अपनी उपस्थिति पर्याप्त भराव के साथ दर्ज करता था। ऐसा लगता था कि सृष्टि के मूल पर ही साजों का खेल है और उसमें से गायन प्रकट होता है। दूसरे शब्दों में, हुस्नलाल-भगतराम की याद आना पहले उनके साज-संगीत की याद आना है। गाना तो उसमें नगीने की तरह जड़ा रहता है। फिर, ठुमक यानी रिदम हुस्न-भगत के नृत्य-गीतों की जान है। इस मामले में नौशाद और यह जोड़ी एक ही लाइन पर चलते हैं। विश्वास न हो तो तुलना कीजिए- 'चले जाना नहीं नैन मिलाके' और 'हमारे दिल से न जाना।' एक जुमले में कहें तो यह कि नृत्य गीतों में हुस्नलाल-भगतराम यानी चमचम चमकती चाँदनी में शहनाई ! सुनें, इस पृष्ठभूमि में यह गीत- तेरे नैनों ने, तेरे नैनों ने चोरी किया, मेरा छोटा-सा जिया, परदेसिया! हाय तेरे नैनों ने, तेरे नैनों ने चोरी किया, मेरा छोटा-सा जिया, परदेसिया!... हाय तेरे नैनों ने, तेरे नैनों ने चोरी किया। जाने कैसा जादू किया, तेरी मीठी बात ने, तेरा मेरा प्यार हुआ पहली मुलाकात में (
दोनों लाइनें फिर से) पहली मुलाकात में/ -हाय तेरे नैनों ने, तेरे नैनों ने चोरी किया, मेरा छोटा-सा जिया, परदेसिया हाय तेरे नैनों ने, तेरे नैनों ने चोरी किया। हाथों में हाथ लेके कभी न छोड़ना, प्यार की डोर सैंया बाँध के न तोड़ना (
दोनों लाइनें फिर से) बाँध के न तोड़ना /- हाय तेरे नैनों ने, तेरे नैनों ने चोरी किया, मेरा छोटा-सा जिया परदेसिया! हाय तेरे नैनों ने, तेरे नैनों ने चोरी किया, मेरा छोटा-सा जिया, परदेसिया! हाय तेरे नैनों ने, तेरे नैनों ने चोरी किया। धुन तो आपको याद होगी ही। जरा गौर कीजिए कि कैसे रिदम से, ठुमके से, यह गीत बढ़ता जाता है। और यह भी कि प्रवाह कहीं नहीं टूटता, धुन कहीं अस्वाभाविक नहीं होती। संगीत कहीं जटिल और हैवी नहीं होता। जैसे एक अल्हड़ किशोरी हवा में दुपट्टा लहराते गाए जा रही है। यह सादगी, यह मिठास और यह संगीतमय स्वाभाविकता ही सुरैया और गीत को यादगार बना गई ! आज भी यह गीत एक जमाना हम पर बरसा जाता है। आगे एक विशेष सूचना यह कि दिल्ली के एक पार्क में एक कंगाल आदमी ठंड से मरा पाया गया। उसके बदन पर एक फटा कोट था। यह और कोई नहीं भगतराम थे।