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Written By रवींद्र व्यास

जीवन से बड़ी नहीं हो सकती है रचना

ख्यात कवि रघुवीर सहाय की कविता और प्रेरित कलाकृति

sangat | जीवन से बड़ी नहीं हो सकती है रचना
Ravindra Vyas
WD
जीवन की तरफ देखो तो यह उतना ही सहज लगता है जितना पानी का बहना, फूल का खिलना और फिर किसी हवा का चलना और उससे किसी हरे पेड़-पौधों का लय में हिलना। वे बारिश के पानी में नहाकर कितने ताजादम और खूबसूरत लगते हैं। बारिश के बाद निकली धूप इन्हें और चमकदार बना देती है। ये कितने सहज और फिर भी अपने में कितने भरपूर सौंदर्य से लुभाते हैं।

यह प्रकृति का ही जादू है कि हम उसके करीब जाते ही सहज-सरल हो जाते हैं। हमारी सारा भारीपन हवा हो जाता है और हम नैसर्गिक ढंग से जीवन का आनंद उठा पाते हैं।

लेकिन क्या हम कुछ रचते हुए भी इसी तरह हलके और सहज-सरल बने रह सकते हैं? यानी हम अपने किसी भी अनुभव को व्यक्त करते हुए उतने ही सहज रह पाते हैं जितना सहज पानी रहता है अपने स्वभाव में, जितना हरा रंग रहता है अपने स्वभाव में, जितनी हल्की रहती है हवा। या हम अपने अनुभव को व्यक्त करने के लिए हमेशा एक अद्वितीय भाषा की तलाश में रहते हैं।

उसे व्यक्त करने के लिए किसी अद्वितीय और अनूठी शैली की खोज में रहते हैं। जैसे जो अभिव्यक्त करेंगे वह जीवन से बड़ा हो जाएगा। शायद नहीं। हम अक्सर अपने जीवन में भी कई तरह के बोझ से लदे होते हैं और उस जीवन से मिले अनुभव को व्यक्त करने के लिए भी कितने सारे बोझ से लदे होते हैं।

इसीलिए कितनी सादगी और सरलता से हिंदी के ख्यात कवि रघुवीर सहाय ने मार्मिक कविता लिख दी है। यह उतनी ही सरल सहज है और किसी भी तरह का बोझ नहीं है। अपनी हल्का होता हूँ शीर्षक कविता में वे लिखते हैं -

किसी बड़ी कविता की रचना में
मैं जितना फालतू बोझ कम करता हूँ
उतना ही हल्का होता हूँ
जीवन से बड़ी नहीं हो सकती है रचना
अच्छा लिखने का अभियान एक बोझ है
भाषा पर लाद कर उसे तुम चल न दो।

यह एक छोटी सी कविता जीवन और कविता के बीच संबंध को कितनी विचलित कर देने वाली मार्मिकता से व्यक्त कर देती है। जीवन की कविता लिखता हुआ यह कवि एक साथ सचेत और सहज है। यह कितना बड़ा दुर्भाग्य है कि आज कई रचनाकार रचने के लिए बल्कि अच्छा लिखने के अभियान में लगे हैं और वही उनके लिए एक बोझ भी बन गया है।

यही कारण है कि साहित्य में भाव और सरलता धीरे धीरे गायब होते जा रहे हैं और अच्छा लिखने का अभियान एक बोझ बन गया है। वह अपनी भाषा को इस अच्छा लिखने का बोझ लादकर चल देता है। जिसमें न जीवन होता है, न कविता होती है और न ही कोई मर्म होता है। बस होता है एक बोझ।

क्या हम अपने जीवन से भी र रचना जगत से भी अच्छे लिखने के अभियान के बोझ से मुक्त हो सकेंगे?