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Last Updated : शुक्रवार, 8 जनवरी 2021 (12:46 IST)

आशापूर्णा देवी: पढ़ाई पर पाबंदी के बावजूद बन गईं साहित्‍य का बड़ा नाम

आशापूर्णा देवी: पढ़ाई पर पाबंदी के बावजूद बन गईं साहित्‍य का बड़ा नाम - Ashapurna Devi
(वो बांग्‍ला लेखि‍का जिसने अपने लेखन से बदल दी सोच की दिशा)

आशापूर्णा देवी बंगाल की प्रसिद्ध उपन्यासकार और कवयित्री हैं। वे एक ऐसी लेखक थीं, जिन्‍होंने अपने दायरों से बाहर जाकर लिखा। 8 जनवरी को उनका जन्‍मदिन है। आइए जानते हैं उनके बारे में।

साल 1976 में उन्‍हें ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। उन्हें जबलपुर, रवीन्द्र भारती, बर्दवान और जादवपुर विश्वविद्यालयों द्वारा डी लिट की उपाधि दी गई। उपन्यासकार और लघु कथाकार के रूप में योगदान के लिए उन्‍हें साहित्य अकादमी द्वारा 1994 में सर्वोच्च सम्मान साहित्य अकादमी फैलोशिप से सम्मानित किया गया था।

8 जनवरी, 1909 को उत्तरी कलकत्ता में उनका जन्‍म हुआ था। उनके पिता हरेंद्रनाथ गुप्त एक कलाकार थे। मां का नाम सरोला सुंदरी था। बचपन से ही उन्‍होंने वृंदावन बसु गली में परंपरागत और रूढ़िवादी परिवारों को देखा। वहां उनकी दादी की खूब चलती थी। वह पुराने रीति-रिवाजों और रूढ़िवादी आदर्शों की कट्टर समर्थक थीं। यहां तक कि उनकी दादी ने घर की लड़कियों के स्कूल जाने तक पर पाबंदी लगा रखी थी। लेकिन आशापूर्णा देवी बचपन में अपने भाइयों के पढ़ने के दौरान उन्‍हें सुनती और देखती थी। अपनी प्रारंभि‍क शि‍क्षा उन्‍होंरे इसी तरह ली।

जब उनके पिता अपने परिवार के साथ एक दूसरी जगह आ गए तो वहां उनकी पत्नी और बेटियों को स्वतंत्र माहौल मिला। उन्हें पुस्तकें पढ़ने का मौका मिला।

आशापूर्णा बचपन में अपनी बहनों के साथ कविताएं लिखती थी। उन्होंने अपनी एक कविता ‘बाइरेर डाक’ को ‘शिशु साथी’ पत्रि‍का के संपादक राजकुमार चक्रवर्ती को अपनी चोरी छिपाने के लिहाज से दी थी, इसके बाद संपादक ने उनसे ओर कविता और कहानियां लिखने का अनुरोध किया। यही से उनका साहित्यिक लेखन शुरू हो गया। साल 1976 में उन्‍हें ‘प्रथम प्रतिश्रुति’ के लिए भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया।

आशापूर्णा देवी ने बच्‍चों के लिए भी लिखा। उनकी पहली बालोपयोगी पुस्तक ‘छोटे ठाकुरदास की काशी यात्रा’ थी जो 1938 में प्रकाशित हुई। साल 1937 में पहली बार वयस्कों के लिए ‘पत्नी और प्रेयसी’ कहानी लिखी। उनका पहला उपन्यास ‘प्रेम और प्रयोजन’ था जो साल 1944 में प्रकाशित हुआ।

बता दें कि उनके ज्यादातर लेखन परंपरागत हिंदू समाज में गहरी जड़ें जमाए बैठी लिंग—आधारित भेदभाव की भावना एवं संकीर्णतापूर्ण दृष्टिकोण से उत्पन्न असमानता और अन्याय के खि‍लाफ था। उनकी कहानियां स्त्रियों पर किए गए उत्पीड़न का भी चीरफाड़ करती हैं। हालांकि उनकी कहानियों ने कभी पाश्चात्य शैली के आधुनिक सैद्धांतिक नारीवाद का समर्थन नहीं किया। उनकी तीन प्रमुख कृतियां प्रथम प्रतिश्रुति, सुवर्णलता और कबुल कथा समान अधिकार प्राप्त करने के लिए​ स्त्रियों के अनंत संघर्ष की कहानी है। आशापूर्णा देवी का निधन 13 जुलाई, 1995 को हुआ था।