शुक्रवार, 29 नवंबर 2024
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हिन्दी दिवस : वेब सीरीज़ बनाम कादंबिनी और नंदन का अवसान

हिन्दी दिवस : वेब सीरीज़ बनाम कादंबिनी और नंदन का अवसान - blog on web series language
पिछले दिनों दो बातें एक साथ हुई। एक ....हिंदुस्तान टाइम्स की दो लोकप्रिय पत्रिकाएं कादंबिनी और नंदन को बंद कर दिया गया। ध्यान रहे कि धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान, सारिका, पराग ,दिनमान ,माधुरी व  लोटपोट जैसी पत्रिकाएं जिन्होंने हमारे बचपन में वाचन संस्कृति का बीज बोया... वह पहले ही बंद हो चुकी हैं। यह तो हुई एक बात। 
 
दूसरी बात ....कि पिछले दिनों बिटिया के वर्क फ्रॉम होम के चलते नेट लगवाया गया जिसका एक फायदा यह भी बताया गया कि इसे टीवी से भी कनेक्ट करके काफी सारी वेबसीरीज़ व मूवी भी कनेक्ट कर देख सकते हैं। 
 
मुझे लगा यह तो अच्छा है... तो अगले दिन कोई एक शो लगाकर उस पर क्लिक कर दिया। 9 वर्षीय भतीजी साथ बैठी थी मुश्किल से 5 मिनट बाद के सीन में निर्दोष व सम्मानीय मां और बहन को लेकर गालियां शुरू हो गई। यहां तक की स्त्री-पुरुष के जननांगों को भी खुलेआम जोर-जोर से बोला जा रहा था उस वक्त तो मैंने फौरन टीवी बंद कर दिया। 
 
बाद में तीन-चार शो और टटोले तो सब पर वही हाल था। एक वेदना से गुजर रही थी सो वही वेदना शब्द रूप ले पन्नों पर उतर गई। हम कहां व क्यों जा रहे हैं ...? क्या हम इस बारे में सोच भी रहे हैं....?
 
 मैंने कहीं पढ़ा था कि किसी राष्ट्र को समाप्त करना है तो उसकी संस्कृति और भाषा को समाप्त कर दो, राष्ट्र स्वतः ही नष्ट हो जाएगा। कहीं सब मिलकर यही तो नहीं कर रहे....? स्तरीय पुस्तकें बंद होना और एक क्लिक पर पॉर्ननुमा शो अपनी बैठक तक आ जाना... यह षड्यंत्र नहीं तो और क्या है..? 
 
कुछ सवाल उभरे, जिनके जवाब किसी के पास नहीं थे। यह शो इतनी आसानी से क्यों पास हो गए ....? क्यों लोग इसके खिलाफ आवाज नहीं उठा रहे...? कहीं ऐसा तो नहीं कि सोने की थाली में परोसा यह जहर लोग धीरे-धीरे हजम करने लगे हैं....? धड़कनें तो चल रही हैं, मगर जिंदा नहीं हैं हम।
 
नंदन-पराग जैसा वह स्तरीय बाल साहित्य जिनसे मैंने वर्ग पहेली सीखी.. चंदा मामा की वह प्रेरणादायी व श्रेष्ठ संदेश देती कहानियां व धर्मयुग सारिका जैसी समृद्ध पत्रिकाएं बंद होना और इस तरह की निकृष्ट भाषा के शो शुरू होना ... हमारी भाषा एक बड़े खतरे में है यही इंगित करता है। जब एक श्रेष्ठ व स्वस्थ साहित्य की सत्संग में हम रहते हैं हमारी भाषा भी वैसी ही होगी।
 
अबोध मन पर शब्दों,भावों, कल्पना और विचारों की जो छाप बाल साहित्य ने हम पर छोड़ी और संस्कारों की थाप से जिस तरह से गढ़ा है ...हम यह कह सकते हैं कि आदर्श नागरिक ने हमारे भीतर आकार लिया है ..। वहीं, दूसरी ओर यह वेब सीरीज की विकृत और अनावृत (नग्न) भाषा बच्चों का बचपन झुलसा  रही है... यह ना सिर्फ चिंता का विषय है अपितु अक्षम्य अपराध की श्रेणी में रखा जाना चाहिए। 
 
कोरे कच्चे मन को भाषिक संस्कार, मर्यादा और तमीज़ सिखाने का दायित्व अगर इन माध्यमों ने भी अपने ऊपर नहीं लिया तो आखिर अभिभावक भी बेबस रह जाएंगे और कुछ नहीं कर पाएंगे।
 
 हमें मानव जीवन मिला है हम कुछ नहीं कर सकते ,यह सोचना गलत है तो आइए हम सब प्रण करें कि अपनी अस्मिता,अपनी संस्कृति और अपनी भाषा को बचाए रखने के यज्ञ में एक आहुति अपनी भी दें....।