मीडिया की हिन्दी और हिन्दी का मीडिया
-संजय द्विवेदी
मीडिया की दुनिया में इन दिनों भाषा का सवाल काफी गहरा हो गया है। मीडिया में जैसी भाषा का इस्तेमाल हो रहा है उसे लेकर शुद्धता के आग्रही लोगों में काफी हाहाकार व्याप्त है। चिंता हिन्दी की है और उस हिन्दी की जिसका हमारा समाज उपयोग करता है। बार-बार ये बात कही जा रही है कि हिन्दी में अंग्रेजी की मिलावट से हिन्दी अपना रूप-रंग-रस और गंध खो रही है। सो, हिन्दी को बचाने के लिए एक हो जाइए।हिन्दी हमारी भाषा के नाते ही नहीं,अपनी उपयोगिता के नाते भी आज बाजार की सबसे प्रिय भाषा है। आप लाख अंगरेजी के आतंक का विलाप करें। काम तो आपको हिन्दी में ही करना है, ये मरजी आपकी कि आप अपनी स्क्रिप्ट देवनागरी में लिखें या रोमन में। यह हिन्दी की ही ताकत है कि वह सोनिया गांधी से लेकर कैटरीना कैफ सबसे हिन्दी बुलवा ही लेती है।उड़िया न जानने के आरोप झेलनेवाले नेता नवीन पटनायक भी हिन्दी में बोलकर ही अपनी अंगरेजी न जानने वाली जनता को संबोधित करते हैं। इतना ही नहीं प्रणव मुखर्जी की सुन लीजिए। वे कहते हैं कि वे प्रधानमंत्री नहीं बन सकते क्योंकि उन्हें ठीक से हिन्दी बोलनी नहीं आती। कुल मिलाकर हिन्दी आज मीडिया, राजनीति, मनोरंजन और विज्ञापन की प्रमुख भाषा है। हिंदुस्तान जैसे देश को एक भाषा से सहारे संबोधित करना हो तो वह सिर्फ हिन्दी ही है। यह हिन्दी का अहंकार नहीं उसकी सहजता और ताकत है। मीडिया में जिस तरह की हिन्दी का उपयोग हो रहा है उसे लेकर चिंताएं बहुत जायज हैं किंतु विस्तार के दौर में ऐसी लापरवाहियां हर जगह देखी जाती हैं। कुछ अखबार प्रयास पूर्वक अपनी श्रेष्टता दिखाने अथवा युवा पाठकों का ख्याल रखने के नाम पर हिंग्लिश परोस रहे हैं जिसकी कई स्तरों पर आलोचना भी हो रही है। हिंग्लिश का उपयोग चलन में आने से एक नई किस्म की भाषा का विस्तार हो रहा है। किंतु आप देखें तो वह विषयगत ही ज्यादा है। लाइफ स्टाइल, फिल्म के पन्नों, सिटी कवरेज में भी लाइट खबरों पर ही इस तरह की भाषा का प्रभाव दिखता है। चिंता हिन्दी समाज के स्वभाव पर भी होनी चाहिए कि वह अपनी भाषा के प्रति बहुत सम्मान भाव नहीं रखता, उसके साथ हो रहे खिलवाड़ पर उसे बहुत आपत्ति नहीं है। हिन्दी को लेकर किसी तरह का भावनात्मक आधार भी नहीं बनता, न वह अपना कोई ऐसा वृत्त बनाती है जिससे उसकी अपील बने। हिन्दी की बोलियां इस मामले में ज्यादा समर्थ हैं क्योंकि उन्हें क्षेत्रीय अस्मिता एक आधार प्रदान करती है। हिन्दी की सही मायने में अपनी कोई जमीन नहीं है।जिस तरह भोजपुरी, अवधी, छत्तीसगढ़ी, बुंदेली, बधेली, गढ़वाली, मैथिली,बृजभाषा जैसी तमाम बोलियों ने बनाई है। हिन्दी अपने व्यापक विस्तार के बावजूद किसी तरह का भावनात्मक आधार नहीं बनाती। सो इसके साथ किसी भी तरह की छेड़छाड़ किसी का दिल भी नहीं दुखाती। मीडिया और मनोरंजन की पूरी दुनिया हिन्दी के इसी विस्तारवाद का फायदा उठा रही है किंतु जब हिन्दी को देने की बारी आती है तो ये भी उससे दोयम दर्जे का ही व्यवहार करते हैं। यह समझना बहुत मुश्किल है कि विज्ञापन, मनोरंजन या मीडिया की दुनिया में हिन्दी की कमाई खाने वाले अपनी स्क्रिप्ट इंग्लिश में क्यों लिखते हैं। देवनागरी में किसी स्क्रिप्ट को लिखने से क्या प्रस्तोता के प्रभाव में कमी आ जाएगी, फिल्म फ्लॉप हो जाएगी या मीडिया समूहों द्वारा अपने दैनिक कामों में हिन्दी के उपयोग से उनके दर्शक या पाठक भाग जाएंगें। यह क्यों जरूरी है कि हिन्दी के अखबारों में अंग्रेजी के स्वनामधन्य लेखक, पत्रकार एवं स्तंभकारों के तो लेख अनुवाद कर छापे जाएँ उन्हें मोटा पारिश्रमिक भी दिया जाए किंतु हिन्दी में मूल काम करने वाले पत्रकारों को मौका ही न दिया जाए। हिन्दी के अखबार क्या वैचारिक रूप से इतने दरिद्र हैं कि उनके अखबारों में गंभीरता तभी आएगी जब कुछ स्वनामधन्य अंग्रेजी पत्रकार उसमें अपना योगदान दें। यह उदारता क्यों। क्या अंग्रेजी के अखबार भी इतनी ही सदाशयता से हिन्दी के पत्रकारों के लेख छापते हैं। पूरा विज्ञापन बाजार हिन्दी क्षेत्र को ही दृष्टि में रखकर विज्ञापन अभियानों को प्रारंभ करता है किंतु उसकी पूरी कार्यवाही देवनागरी के बजाए रोमन में होती है। जबकि अंत में फायनल प्रोडक्ट देवनागरी में ही तैयार होना है। गुलामी के ये भूत हमारे मीडिया को लंबे समय से सता रहे हैं। इसके चलते एक चिंता चौतरफा व्याप्त है। यह खतरा एक संकेत है कि क्या कहीं देवनागरी के बजाए रोमन में ही तो हिन्दी न लिखने लगी जाए। कई बड़े अखबार भाषा की इस भ्रष्टता को अपना आर्दश बना रहे हैं। जिसके चलते हिन्दी कोई शरमायी और सकुचाई हुई सी दिखती है। शीर्षकों में कई बार पूरा का शब्द अंगरेजी और रोमन में ही लिख दिया जा रहा है। जैसे- मल्लिका का BOLD STAP या इसी तरह कौन बनेगा PM जैसे शीर्षक लगाकर आप क्या कहना चाहते हैं। कई अखबार अपने हिन्दी अखबार में कुछ पन्ने अंगरेजी के भी चिपका दे रहे हैं। आप ये तो तय कर लें यह अखबार हिन्दी का है या अंगरेजी का। रजिस्ट्रार आफ न्यूजपेपर्स में जब आप अपने अखबार का पंजीयन कराते हैं तो नाम के साथ घोषणापत्र में यह भी बताते हैं कि यह अखबार किस भाषा में निकलेगा क्या ये अंगरेजी के पन्ने जोड़ने वाले अखबारों ने द्विभाषी होने का पंजीयन कराया है। आप देखें तो पंजीयन हिन्दी के अखबार का है और उसमें दो या चार पेज अंगरेजी के लगे हैं। हिन्दी के साथ ही आप ऐसा कर सकते हैं। संभव हो तो आप हिंग्लिश में भी एक अखबार निकालने का प्रयोग कर लें। संभव है वह प्रयोग सफल भी हो जाए किंतु इससे भाषायी अराजकता तो नहीं मचेगी। हिन्दी में जिस तरह की शब्द सार्मथ्य और ज्ञान-विज्ञान के हर अनुशासन पर अपनी बात कहने की ताकत है उसे समझे बिना इस तरह की मनमानी के मायने क्या हैं। मीडिया की बढ़ी ताकत ने उसे एक जिम्मेदारी भी दी है। सही भाषा के इस्तेमाल से नई पीढ़ी को भाषा के संस्कार मिलेंगें। बाजार में हर भाषा के अखबार मौजूद हैं, मुझे अंगरेजी पढ़नी है तो मैं अंगरेजी के अखबार ले लूंगा, वह अखबार नहीं लूंगा जिसमें दस हिन्दी के और चार पन्ने अंगरेजी के भी लगे हैं। इसी तरह मैं अखबार के साथ एक रिश्ता बना पाता हूं क्योंकि वह मेरी भाषा का अखबार है। अगर उसमें भाषा के साथ खिलवाड़ हो रहा है तो क्या जरूरी है मैं आपके इस खिलवाड़ का हिस्सा बनूं। यह दर्द हर संवेदनशील हिन्दी प्रेमी का है। हिन्दी किसी जातीय अस्मिता की भाषा भले न हो यह इस महादेश को संबोधित करनेवाली सबसे समर्थ भाषा है। इस सच्चाई को जानकर ही देश का मीडिया, बाजार और उसके उपादान अपने लक्ष्य पा सकते हैं। क्योंकि हिन्दी की ताकत को कमतर आंककर आप ऐसे सच से मुंह चुरा रहे हैं जो सबको पता है।