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Written By WD

आम आदमी पार्टी की 10 बड़ी गलतियां...

आम आदमी पार्टी की 10 बड़ी गलतियां... -
देश से भ्रष्टाचार का सफाया करने वाली आम आदमी पार्टी (आप) का 'झाड़ू' अब पहले से जैसा ताकतवर नहीं रहा। अन्ना लहर पर सवार होकर चुनाव मैदान में उतरी 'आप' ने विधानसभा चुनाव में दिल्ली में सफलता का परचम तो फहराया, मगर उसका फायदा उठाने के बजाय 'लालच' में आकर पार्टी ने दिल्ली की सत्ता ही छोड़ दी। लेकिन लोकसभा चुनाव पार्टी विधानसभा जैसी सफलता नहीं दोहरा सकी। हालांकि पहली बार चुनाव लड़ रही पार्टी के लिए यह सफलता भी कम नहीं है, लेकिन यदि पार्टी कुछ और सावधानी बरतती तो सफलता का ग्राफ और ऊपर उठ सकता था। दिल्ली जैसी जगह पर पार्टी को एक भी सीट नहीं मिल पाई। आइए जानते हैं कुछ ऐसी ही 'खास' बातें, जिन्होंने आम आदमी पार्टी को 'खास' नहीं बनने दिया...
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* दिल्लीवासियों की भावनाओं का मजाक : 'आप' को सबसे ज्यादा खामियाजा दिल्लीवासियों की भावनाओं का मजाक उड़ाने का ही भुगतना पड़ा। केजरीवाल ने मुख्यमंत्री बनने से पहले लोगों से बड़े-बड़े वादे किए। उन्होंने स्टेडियम में शपथ ली, सड़क पर रात गुजारी, आम आदमी को परेशानी में डालकर सड़क पर धरना दिया और जब काम करने का मौका आया तो मैदान छोड़कर भाग खड़े हुए।

लोगों को उम्मीद थी कि यह नेता समस्याएं कम करेगा, भ्रष्टाचार से उनको निजात दिलाएगा, पर वे तो आंधी की तरह आए और तूफान की तरह चले भी गए। केजरीवाल की इस हरकत से लोग खुद को ठगा-सा महसूस करने लगे और कुछ ही माह बाद उन्हें केजरीवाल से बदला लेने का मौका भी मिल गया। दिल्ली में मिला मौका अगर पार्टी ठीक तरह से भुना लेती तो स्थिति बदल सकती थी।

एंटी करप्शन कैंपेन एंटी मोदी में बदला... अगले पन्ने पर...


जब 'आप' ने भ्रष्टाचार के खिलाफ एक बड़ा अभियान छेड़ा तो सोशल मीडिया से लेकर आम आदमी के दिलों तक सभी दूर केजरीवाल छा गए। उन्हें लगने लगा कि वे प्रधानमंत्री पद के दावेदार हो सकते हैं और यहीं से उनका यह कैंपेन हवा हो गया। भ्रष्टाचार की जगह उनकी जुबान पर मोदी विरोधी स्वर चढ़ गए। वे पानी-पी पीकर मोदी को कोसने लगे। शायद उन्हें लग रहा था कि मोदी को गाली देने भर से वे देश में भाजपा का विकल्प देने में सफल हो जाएंगे।

केजरीवाल इतने पर ही नहीं रुके। वे मोदी के विकास के दावों की सच्चाई जानने के लिए गुजरात तक जा पहुंचे, वहां उन्होंने जमकर ड्रामा किया और यही ड्रामा पूरे चुनाव में जारी रहा। उन्होंने एक ओर मोदी पर जमकर भड़ास निकाली और दूसरी ओर सोनिया और राहुल के बारे में बोलने से पूरी तरह परहेज किया। ऐसा लग रहा था मानो कांग्रेस ने दिल्ली विधानसभा चुनाव के बाद 'आप' पर कोई अहसान किया हो जिसे वह इस चुनाव में उतारना चाह रही हो।

अगले पन्ने पर... केजरीवाल का बड़बोलापन...


'आप' को सबसे ज्यादा भारी केजरीवाल के बोल ही पड़े। बगैर सोचे-समझे कुछ भी कह देने की प्रवृत्ति ही पार्टी की राजनीतिक आत्महत्या का कारण बनी। उन्होंने अपने बड़बोलेपन से खुद को न सिर्फ अन्ना से बड़ा साबित करने की कोशिश की बल्कि उनके आंदोलन को कमजोर करने का भी काम किया।

हरियाणा, पंजाब, दिल्ली और उत्तरप्रदेश में उन्होंने जमकर जुबानी तीर चलाए। कभी वे बाहुबली मुख्तार अंसारी के समर्थन की बात कहते तो कभी कहते कि जो भी कांग्रेस या बीजेपी को वोट देगा, वह खुदा और देश के साथ गद्दरी करेगा। उनके नक्शेकदम पर चलते हुए शाजिया इल्मी जैसे अन्य 'आप' नेताओं ने भी कई विवादास्पद बयान दिए। इससे आम जनता में पार्टी की छवि पर बुरा असर पड़ा और उनके वोट कम हो गए।

कथनी और करनी में अंतर... अगले पन्ने पर...


अरविंद केजरीवाल की कथनी और करनी में अंतर का खामियाजा पूरी पार्टी को उठाना पड़ा। अन्ना से राजनीति में नहीं आने का वादा किया और फिर आम आदमी पार्टी बनाई। लोकसभा चुनाव से पहले केजरीवाल ने कहा कि विधायकों को सांसद का टिकट नहीं देंगे और फिर राखी बिड़ला को उत्तर-पश्चिमी दिल्ली से टिकट दे दिया।

दिल्ली विधानसभा चुनाव के समय पार्टी ने हर फैसला जनता से पूछकर किया, पर लोकसभा चुनाव आते-आते स्थितियां पूरी तरह बदल गईं। आम चुनाव में पार्टी ने मनमाने ढंग से टिकट वितरण किया। पार्टी पर पैसे लेकर टिकट बेचने के भी आरोप लगे। इस स्थिति को देख चुनाव में मतदाताओं ने 'आप' को खारिज कर दिया।

अगले पन्ने पर... आपसी मतभेद...


'आप' नेताओं में समन्वय की भारी कमी देखी गई। शुरुआती दौर में तो सभी नेता एक सुर में बोल रहे थे, पर जैसे-जैसे चुनाव प्रचार आगे बढ़ता गया 'आप' में सिर फुटोव्वल भी बढ़ती चली गई। केजरीवाल एंड कंपनी पर कई तरह के गंभीर आरोप लगे। एक-एक कर कई दिग्गज चुनाव मैदान से भाग खड़े हुए। भारी संख्या में 'आप' कार्यकर्ता भाजपा और अन्य पार्टियों में चले गए। कई संस्थापक सदस्यों ने अव्यवस्थाओं से परेशान 'आप' से किनारा कर लिया।

ऐसी भी खबरें आईं कि कुमार विश्वास भी केजरीवाल से इसलिए नाराज हैं, क्योंकि उन्हें अमेठी में अकेला छोड़ दिया गया है और केजरीवाल उनका प्रचार नहीं कर रहे हैं। इस बीच 'आप' नेताओं को कई बार अपने ही नेता की बात का खंडन करना पड़ा। कई मौकों पर नेताओं के बयान को व्यक्तिगत बताकर उससे किनारा करने की कोशिश की गई। इससे अन्य दलों को पार्टी पर हावी होने का मौका मिला और उन्होंने इसका जमकर फायदा उठाया।

आप को भारी पड़ी ध्रुवीकरण की राजनीति...अगले पन्ने पर....


केजरीवाल जब राजनीति में आए थे तो उन्होंने ध्रुवीकरण और जातिगत राजनीति का विरोध किया था। पर देखते ही देखते कब वे भी अन्य नेताओं की तरह इस रंग में रंग गए, पता ही नहीं चला। इस चुनाव को उन्होंने भी जातिगत ढंग से ही देखा। टिकट वितरण में भी इसका असर दिखाई दिया और प्रचार करते समय भी इस बात का ध्यान रखा गया कि मतदाता किस जाति का है।

मुस्लिमों के वोट के लिए उन्होंने भी कांग्रेस की ही तरह मुल्ला-मौलवियों से मुलाकात की। मुसलमानों को मोदी के नाम पर डराने से भी उन्होंने गुरेज नहीं किया। वाराणसी में उन्हें हर रंग में देखा गया। वोटों के ध्रुवीकरण के लिए उन्होंने हरसंभव प्रयास किया। उनकी इस हरकत ने उन्हें बदनाम कर दिया और उनके अन्य राजनेताओं से अलग होने के दावे पर बट्टा भी लग गया।

अगले पन्ने पर... मीडिया पर लगातार हमला


'आप' को मीडिया की मुखालफत करना भी महंगा पड़ा। वह मीडिया ही था जिसने अरविंद केजरीवाल का नाम देश के शीर्ष नेताओं में शुमार करवाया। पर जब मीडिया ने मोदी से जुड़ी खबरें ज्यादा दिखाई तो वे उस पर ही पिल पड़े। आरोप लगाया गया कि मीडिया उनकी खबरों को ठीक तरह से नहीं दिखा रहा है, मीडिया बिका हुआ है। केजरीवाल के इस रवैये ने मीडिया जगत को हैरान कर दिया और केजरीवाल एंड पार्टी की गलतियां खोज-खोजकर दिखाई जाने लगीं। 'आप' संयोजक इससे बौखला गए और खबरों में छाए रहने के लिए वे नित नए प्रयोग करने लगे। उनकी इस हरकत ने भी लोगों को बुरी तरह निराश किया।

पारदर्शिता की कमी...


रातोरात सब कुछ पा लेने की चाहत में हर वो राजनीतिक टोटका आजमाने की कोशिश करना जो अन्य पार्टी के नेता करते हैं... तो आप उनसे अलग होने का दावा कैसे कर सकते हो? आप ने शुरुआती पारदर्शिता पर खासा जोर दिया था। उनका दावा था कि अन्य पार्टियों में पारदर्शिता का अभाव है और उनकी पार्टी में सभी काम इसी आधार पर होते हैं। लोगों को उनसे उम्मीदें भी इसलिए बंधीं, क्योंकि चंदे से लेकर सभी बातों को सार्वजनिक करने में उन्होंने कोई कोताही नहीं बरती।

जैसे-जैसे लोग उनसे जुड़ते गए पारदर्शिता खत्म होती चली गई। नए लोगों को पुरानों पर प्राथमिकता दी जाने लगी और पुराने कार्यकर्ताओं में निराशा व्याप्त होने लगी। यहीं से गाड़ी पटरी से उतर गई और लोग पार्टी से दूर भागने लगे। कहा जाने लगा कि पार्टी में एक ही व्यक्ति की चलती है।

अगले पन्ने पर... सीट चयन में गलती...


केजरीवाल ने सबसे बड़ी गलती नरेन्द्र मोदी के सामने चुनाव लड़कर की। इस तरह उन्होंने कुमार विश्वास को भी राहुल गांधी के सामने खड़ा कर चुनावी‍ चक्रव्यूह में फंसा दिया। दोनों ही नेताओं को इन दिग्गजों के सामने कड़ी परीक्षा का सामना करना पड़ा। लोगों ने केजरीवाल और कुमार का यहां कड़ा विरोध भी किया, पर वे डटे रहे। केजरीवाल ने मोदी के सामने हर तरह दांव खेला तो कुमार भी अमेठी में पूरे समय डटे रहे। बहुत मेहनत के बाद इन दोनों सीटों पर यह अपनी जमीन तो तैयार करने में सफल रहे, पर जीतने के लिए यह काफी नहीं था। अगर वे किसी अन्य सीट पर चुनाव लड़ते तो हो सकता है 'आप' की एक-दो सीटें और बढ़ जातीं।

विवादों से नाता...
'आप' को चर्चा में बने रहने के लिए विवादों की आवश्यकता नहीं थी, पर पार्टी यहां चूक कर गई। केजरीवाल, कुमार विश्वास, आशुतोष, शाजिया इल्मी जैसे दिग्गज एक के बाद विवादों में फंसते चले गए। कभी उनके बयानों पर बवाल मचा तो कभी हरकतों पर। लोगों के दिलों पर राज करने का जज्बा इस कदर दिलोदिमाग पर हावी हो चला था कि सही-गलत की बातें गौण हो गईं।

इससे लोग उनसे नाराज हो गए और पार्टी नेताओं को जगह-जगह विरोध का सामना करना पड़ा। उन पर कभी अंडे-टमाटर पड़े तो कभी उनका मुंह काला कर दिया गया। इससे वे सभी लोगों में मजाक का विषय बन गए और उनकी बातों को भी लोगों ने गंभीरता से लेना बंद कर दिया।