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Written By ND

अब चलेगा थ्रीडी टीवी का जादू - भाग 2

आईटी
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नए युग का सूर्योदय
तब भी वह टेलीविज़न की दुनिया में एक नए युग का सूर्योदय तो है ही। जब दर्शक को लगेगा कि वह समुद्रतट पर स्वयं खड़ा है, लहरें किसी भी क्षण उसके पैरों को छू लेंगी; सहवाग का मारा छक्का सीधे उसकी गोद में गिरने जा रहा है; हवाई जहाज़ सीधे उसी की तरफ आ रहा है... तब टेलीविज़न देखना और भी स्वाभाविक, प्राकृतिक और रोमांचक बन जायेगा।

अवतार जैसी एनीमेशन फ़िल्में बिल्कुल यथार्थ लगने लगेंगी। तब बच्चे ही नहीं, बड़े-बूढ़े भी टेलीविज़न से और भी चिपके रहेंगे। एक ही चीज़ किंचित बाधक बन सकती है, 3D प्रसारणों को देखने के लिए हमेशा एक विशेष चश्मा लगाना पड़ेगा, जिससे सिरदर्द हो सकता है और मितली आ सकती है।

अपना-अलग चश्मा
फिलहाल हर टेलीविज़न निर्माता का अपना अलग चश्मा है। ऐसा नहीं है कि किसी एक ही चश्मे से हर टीवी सेट पर त्रिआयामी प्रसारण देखा जा सकता है। टीवी सेट भी मंहगे हैं और चश्मे भी। निर्माता चश्मे के लिए किसी एक ही सर्वमान्य मानक (स्टैंडर्ड) पर सहमत नहीं हो पाये हैं।

जर्मनी में बिक रहे त्रिआयामी सेटों की क़ीमत 2000 यूरो (लगभग एक लाख 20 हज़ार रूपए) और उन के लायक चश्मों की क़ीमत 100 यूरो (लगभग 6500 रूपये) के आस-पास शुरू होती है। वैसे, त्रिआयामी टेलीविज़न कार्यक्रमों का नियमित प्रसारण अभी किसी भी देश में नहीं हो रहा है।

इस तरह की केवल कुछ गिनीचुनी फ़िल्में ही उपलब्ध हैं और वह भी केवल ब्लू रे डिस्क पर। 2010 के अंत तक इन फ़िल्मों की संख्या 40 हो जाने की संभावना है। जिसे 3D फ़िल्म देखनी हो, उसे 3D टेलीवज़न और चश्मे के साथ-साथ फ़िलहाल ब्लू रे डिस्क प्लेयर भी ख़रीदना होगा।

3D फ़िल्मों की अलग-अलग तकनीकें
नई 3D फ़िल्में अलग-अलग प्रकार की तकनीकों से बनती हैं। एक है IMAX 3D तकनीक, जिस में 70 मिलीमीटर के दो फ़िल्मांकनों को इस तरह मिलाया जाता है कि दूरी या गहराई का आभास देने वाले तीसरे आयाम का भी प्रभाव पैदा हो। एक दूसरी है डिजिटल सिनेमा कहलाने वाली DCI तकनीक, जिस में कंप्यूटर सॉफ्टवेयर की सहयता से किसी दृश्य के त्रिआयामी होने का भ्रम पैदा किया जाता है।

दोनो क्योंकि सच्ची त्रिआयामी तस्वीरें पैदा नहीं करतीं, इसलिए उन्हें ग़ैर-स्टीरियोस्कोपिक तकनीकें कहा जाता है। सच्ची त्रिआयामी तस्वीरें तब बनती हैं, जब हमारी दोनो आँखों की तरह ही दो लेंसों वाले एक ही स्टीरियोस्कोपिक कैमरे से फिल्मांकन किया गया हो। इस विधि का प्रयोग अभी केवल एक साल पहले शुरू हुआ है।