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कुरसी की महिमा लिखूं, एकदन्त महाराज।
विघ्न-विनाशक देवता, पूरन कीजै काज।।
चिर सुहागिनी रूपसी, वन्दौ तेरे पांव।
अन्त समय तक दीजिए, हमको अपनी छांव।।
अधकचरे भी तर गए, तुम हो पालनहार।
आठ पहर सुमिरौं तुम्हें, करो तुरत उद्धार।।
कुरसी कलियुग की महारानी, महिमा कैसे जाय बखानी।
रूप सलोना चुम्बक वाला, जो पाए होता मतवाला।।
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पल भर में मदहोशी आवे, चाटुकार जब सेंध लगावे।
चार पांव की यह चौपाई, सत्ता के संग पशुता लाई।।
जो इसकी संगत में आवे, बेपर की वह रोज उड़ावे।
रहे दबदबा इसका भारी, आस-पास बैठे दरबारी।।
कुरसी पर बैठा जब बोले, हां में हां करते सब डोले।
सूरज को चंदा बतलावे, सत्य-झूठ को एक करावे।।
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कुरसी का मद जब भी व्यापै, अधीनस्थों की काया कांपैं।
तुनक-मिजाजी क्षण में आवे, मनमानी हरदम करवावे।।
अर्थ व्यवस्था इससे डोले, सुरसा बन अपना मुंह खोले।
रातों-रात बदलती काया, यह सब है कुरसी की माया।।
पितरों का उद्धार कराती, सात पीढ़ियां भी तर जातीं।
धंधा-पानी खूब बढ़ातीं, दलितों को भूखों मरवातीं।।
गुपचुप लेन-देन का लेखा, नहीं किसी ने अब तक देखा।
देश छोड़ बाहर को भागे, स्विस बैंकों की किस्मत जागे।।
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आंखों में चरबी की परतें, ढेर शगूफे मन से गढ़ते।
रूप मसीहा का अपनाएं, भीतर कुतर-कुतर कर खाएं।।
बाप नहीं तो बेटा धावे, घरवाली कुरसी को पावे।
कभी अंगूठा छाप चला है, उगता सूरज कभी ढला है।।
मगरमच्छ के आंसू लाएं, भाषण बीच बहाते जाएं।
गरज रहे तो घर-घर में घूमें, दीन-हीन बच्चों को चूमें।।
बनते यह जनता के साथी, लेकिन हैं ऐरावत हाथी।
काम नहीं तो आंख फेरते, पांच साल के बाद टेरते।।
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कुंभकरण के अग्रज सारे, इनकी निद्रा से सब हारे।
उड़ती चिड़िया को पहचाने, गढ़ लेते खूब बहाने।।
दांव फेंक, दो को लड़वाएं, मस्ती-मौज उड़ाते जाएं।
'शकुनी' बनकर पांसा फेंकें, आग लगाकर रोटी सेंकें।।
महिमा इनकी बड़ी निराली, वार न जाता कोई खाली।
जंग चुनावी जब भी होए, नेता अवसर कभी न खोए।।
दण्ड-भेद से काम चलावे, थैली का मुंह खुलता जावे।
वोट बैंक खाली ना जावे, इसके खातिर जुगत लगावे।।
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वाणी में अमृत रस घोले, वक्त पड़े तो बोतल खोले।
कभी बूथ लुटवाया जाता, नकली वोट दिलाया जाता।।
पैसा पानी बनकर बहता, गुपचुप भेद वहां का कहता।
दुष्प्रचार कर ये लड़वा दें, प्रतिद्वंद्वी की नींद उड़ा दें।।
चमचों की है भीड़ साथ में, झण्डा ऊंचा रहे हाथ में।
मुख में राम बगल में छुरी, यही सफलता की है धुरी।।
भाषण लच्छेदार सुनाते, भाड़े से ताली बजवाते।
चलते टेढ़ी चाल हमेशा, सीधे पथ से नाता कैसा?
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हरदम ये मस्ती में जीते, अहंकार की मदिरा पीते।
रहे कान में तेल डालते, ढेरों गुण्डे साथ पालते।।
प्रजातंत्र के बने जमाई, रोज उड़ाएं दूध-मलाई।
अनगिन रक्षक आगे-पीछे, मगर विपक्षी टांगें खींचें।।
त्यागपत्र घबराहट लाती, चेहरे पर मायूसी छाती।
बनते हरिश्चन्द्र के नाती, संपत्ति इनकी बढ़ती जाती।
महाबली जो दिग्गज नेता, कारा में सुविधाएं लेता।
कुरसी के बल बगिया सींची, मूंछ कभी ना उनकी नीची।।
सबके सब हैं चतुर सयाने, मन की बात न कोई जाने।
नाते-रिश्ते भाई-भतीजे, सदा नौकरी इनको दीजै।।
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अपना-अपना गणित लगाते, सही जगह गोटी बैठाते।
ऊंचे ओहदों का चुग्गा दे, सत्-निष्ठा को दूर भगा दे।।
कुरसी डगमग करने लगती, सभी इन्द्रियां जगने लगतीं।
कभी ढेर सी टांगें लगतीं, तब जाकर के सत्ता चलती।।
कुरसी का इतिहास पुराना, जब जानो लगे सुहाना।
बरसों के अनुभव से जाना, मुख्य लक्ष्य है इसको पाना।।
कुरसी से जो धक्का पाए, कठिनाई से वापस आए।
कुरसी का मद सिर चढ़ बोले, जो छोटा वह मुख ना खोले।।
सिजदा और सलाम कराए, ऐंठन इसकी बढ़ती जाए।
जो इसके चक्कर में आए, सात जनम तक भूल न पाए।।
बड़े भाग से कुरसी पाई, तब जाकर तबीयत हरियाई।
जो कुरसी महरानी ध्यावे, उसको विघ्न कभी ना आवे।।
कुरसी है निर्मोही बाला, फंस जाता जब काण्ड हवाला।
फौरन दूजा मीत बनाती, दूर खड़ी हो उसे लुभाती।।
सत्ता तो है आनी-जानी, कुरसी चिरजीवी अभिमानी।
सुख-दुख से यह परे रही है, बड़े पते की बात कही है।।