जलवायु परिवर्तन की वजह से धरती पर होने वाली तबाही के संकेत मिलना शुरू हो गए हैं। कहीं सूखा, कहीं बाढ़, चक्रवात, लू और इनके साथ तमाम तरह की बीमारियां और कई तरह के वायरस। यह धरती पर आने वाली तबाही का सिर्फ एक नमुनाभर है। अगर, हम जल्दी ही नहीं संभले तो भारत के लिए यह तबाही इतनी अहसनीय होगी, जिसका अंदाजा लगा पाना मुश्किल है।
दरअसल, पिछले दिनों जलवायु परिवर्तन पर आईं कुछ रिपोर्ट के दावे सही साबित होने लगे हैं। जाहिर है दुनिया में जलवायु के खतरे बढ़ेंगे और भारत के लिए ये खतरें बेहद ज्यादा डराने वाले होंगे।
पिछले दिनों संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट में सामने आई थीं, जिनमें कुछ खतरों को लेकर आशंका जताई थी। इसके बाद IPCC (Intergovernmental Panel on Climate Change) की जो रिपोर्ट आई है, उनमें भी ऐसे खतरों को दोहराकर उस पर करीब करीब मुहर ही लगा दी है। समझते हैं जलवायु परिवर्तन को लेकर होने वाले खतरे के मामले में भारत के लिए नई रिपोर्ट कितनी डरावनी है। कितनी जनसंख्या और कौन-कौन से क्षेत्र इससे इन खतरों से प्रभावित होंगे।
हीट वेव का खतरा : सबसे पहले जानते हैं भारत में हीट वेव के खतरों के बारे में। भारत का करीब 54 प्रतिशत भुगोलिक हिस्सा arid (शुष्क) और सेमी-एरिड कंडीशन्स में आता है। रिपोर्ट के मुताबिक उत्सर्जन के आधार पर हम करीब 10 से 20 साल में तापमान के मामले में 1.5 डिग्री की बढ़ोतरी पर पहुंच जाएंगे। यह भारत के लिए बेहद खतरनाक आकलन होगा, क्योंकि गर्मी बढ़ने से भारत के 50% हिस्से और ऐसे लोगों पर भारी प्रभाव पड़ेगा, जिनका जीवनयापन सीधेतौर पर पर्यावरण पर निर्भर करता है। गर्मी की इस बढ़ोतरी के बारे में रिपोर्ट और विशेषज्ञों का दावा है कि इस गति से गर्मी बढ़ना मानव जाति के इतिहास में 2000 साल में पहली बार देखा गया है। लाखों करोड़ों लोग इससे प्रभावित होंगे।
खतरे का सबसे बड़ा कारण मानव: रिपोर्ट कहती है कि कुछ ही समय में आने वाले इस खतरे की सबसे बड़ी वजह खुद मनुष्य है। तापमान वृद्धि कार्बन डाई ऑक्साइड और मीथेन जैसी गर्मी को सोखने वाली गैसों के उत्सर्जन की वजह से हुई है। सबसे बड़ी बात यह है कि इसमें इंसानों द्वारा कोयला, तेल, लकड़ी और अन्य प्राकृतिक गैस जैसे जीवाश्म ईंधन आदि जलाया जाना इसकी वजह है।
वैज्ञानिकों के मुताबिक 19वीं सदी से अब तक दर्ज किए जा रहे तापमान में हुई वृद्धि में प्राकृतिक वजहों का योगदान न के बराबर है, जबकि अब इसके पीछे सबसे बड़ी वजह इंसानों की गतिविधियों को बताया गया है।
200 देश लड़ रहे क्लाइमेट चेंज के खिलाफ: साल 2015 में पेरिस जलवायु समझौता हुआ था, जिसमें 200 देशों ने इस ऐतिहासिक जलवायु समझौते पर हस्ताक्षर किए थे, इस समझौता का मकसद था दुनिया में हो रही तापमान वृद्धि को 2 डिग्री सेल्सियस (3.6 डिग्री फारेनहाइट) से कम रखना। इसके साथ ही यह तय करना कि यह पूर्व औद्योगिक समय की तुलना में सदी के अंत तक 1.5 डिग्री सेल्सियस (2.7 फारेनहाइट) से ज्यादा न हो।
रिपोर्ट में शामिल 200 से ज्यादा लेखक पांच परिदृश्यों पर नजर बनाए हुए हैं और उनका मानना है कि किसी भी स्थिति में दुनिया 2030 तक 1.5 डिग्री सेल्सियस तापमान के आंकड़े को पार कर लेगी। यह आशंका पुराने पूर्वानुमानों से काफी पहले है।
क्या है दुनिया के 234 वैज्ञानिकों की इस रिपोर्ट में?
यह 3000 पन्नों से ज्यादा की रिपोर्ट है। इसे दुनिया के 234 वैज्ञानिकों ने तैयार किया है। जिसमें कहा गया है कि तापमान से समुद्र स्तर बढ़ रहा है, बर्फ का दायरा सिकुड़ रहा है और प्रचंड लू, सूखा, बाढ़ और तूफान की घटनाएं बढ़ रही हैं। गौरतलब है कि 2020-2021 में ही कई क्षेत्रों में यह सब देखने को मिल रहा है।
ऊष्णकटिबंधीय चक्रवात और मजबूत और बारिश वाले हो रहे हैं, जबकि आर्कटिक समुद्र में गर्मियों में बर्फ पिघल रही है और इस क्षेत्र में हमेशा जमी रहने वाली बर्फ का दायरा घट रहा है।
रिपोर्ट के मुताबिक यह सबकुछ और ज्यादा तबाही वाला होता जाएगा। रिपोर्ट में यह भी है कि इंसानों द्वारा वायुमंडल में उत्सर्जित की जा चुकी हरित गैसों के कारण तापमान लॉक्ड इन (निर्धारित) हो चुका है। जिसका मतलब है कि अगर उत्सर्जन में कोई कमी आ भी जाती है, तो भी कुछ ऐसे तबाही वाले बदलाव होंगे जिन्हें कई सदियों तक ठीक नहीं किया जा सकेगा।
क्या होगा भारत में?
बारिश, बाढ़, ग्लेशियर का पिघलना और सूखे जैसी आपदाएं भारत झेलता रहा है। क्या यह और ज्यादा बढेंगे?
IPCC की रिपोर्ट में साफ है कि यह सभी घटनाएं, इनकी तीव्रता, इनकी गंभीरता बडे पैमाने पर भविष्य में देखने को मिलेगी। इससे भारत के लोगों पर भारी असर होगा, खासकर ऐसे 40 करोड़ लोगों पर जिनका रोजगार पर्यावरण या इसी तरह के संसाधनों चलता है।
तटीय इलाकों में समुद्र स्तर बढ़ेगा, जिससे बाढ़ का संकट होगा, भारतीय प्रायद्वीप के लिए यह कितना खतरनाक है?
समुद्र का वैश्विक औसतन स्तर 0.20 [0.15 से 0.25] m तक 1901 और 2018 के बीच बढ़ा है। 1901-1971 के बीच औसतन बढ़त 1.3 [0.6 से 2.1] mm प्रति वर्ष, 1971- 2006 के बीच 1.9 [0.8 to 2.9] mm प्रति वर्ष और 2006- 2018 के बीच 3.7 [3.2 to 4.2] mm प्रतिवर्ष की दर से बढ़ी है। IPCC वैज्ञानिकों का दावा है कि अभी जैसे हालात हैं, अगर वैसे ही चलता रहा तो समुद्रस्तर और बढ़ेगा और 1900 के बाद से औसतन समुद्रस्तर का बढ़ना इससे 3000 पहले तक नहीं देखा गया था। भारत का तट 7500 मीटर लंबा है और इसके किनारे भारी आबादी रहती है जो मत्स्यपालन और पर्यटन जैसे रोजगार पर निर्भर है। यह सब पूरी तरह से खतरे में हैं।
इन आपदाओं से बचने-निपटने के लिए भारत कितना तैयार है?
भारत में कई नीतियां हैं, लेकिन धरातल पर लागू नहीं होती है। अभी जलवायु परिवर्तन के मुद्दे को पर्यावरण और वन मंत्रालय का बैकयार्ड समूह देखता, समझता और सुलझाने की कोशिश करता है। इस विषय को अलग अलग विंग्स को देखना चाहिए, इसके लिए अलग अलग विभाग हो, क्योंकि जलवायु परिवर्तन आज पर्यावरण या जंगलों से कहीं ज्यादा व्यापक मामला है। जलवायु परिवर्तन के लिए नया और अलग मंत्रालय चाहिए, जो इसकी चुनौतियों से निपटे।
भारत के लिए समुद्र, ग्लेशियर और गर्मी तीनों खतरा है, क्या भारत को अंतरराष्ट्रीय सहयोग मिला है या मिलेगा?
भारत के पास पर्याप्त अंतरराष्ट्रीय सहयोग नहीं है। भारत को दूसरे क्षेत्रों की तरह जलवायु परिवर्तन में भी एक लीडर की भुमिका में आना होगा, उसे विश्व समुदाय से बात करनी होगी, उनका समर्थन हासिल करना होगा। साथ ही अपनी योजनाओं को सख्ती से लागू करना होगा।
कैसे तैयार होती है IPCC की रिपोर्ट?
IPCC की रिपोर्ट्स को 5-7 साल के दौरान असेस किया जाता है। अभी छठा असेसमेंट चल रहा है और पूरी रिपोर्ट सल 2022 में आएगी। करीब 8 साल पहले एक रिपोर्ट आई थी। अभी छठे हिस्से की पहली रिपोर्ट सामने आई है। इसके लिए सभी देश रजामंदी देते हैं जब इसकी वैज्ञानिक और नीतिगत सटीकता से संतुष्ट हो जाते हैं। IPCC के अंदर 3 समूह हैं। पहला क्लाइमेट सिस्टम और चेंज के फिजिकल विज्ञान को देखता है, दूसरा सामाजिक-आर्थिक और प्राकृतिक सिस्टम पर खतरे को समझता है और तीसरा इससे बचने के तरीके खोजता है।