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जज के जलते घर में ‘नोटों की बोरियों’ से सुलगते सवाल और सिस्टम की नाकामी

जज के जलते घर में ‘नोटों की बोरियों’ से सुलगते सवाल और सिस्टम की नाकामी - burning house of a judge shows burning questions from bags of money and failure of system
Justice Yashwant Verma Case: दिल्ली हाईकोर्ट के जज यशवंत वर्मा के आवास में 14 मार्च 2025 की रात लगी आग ने एक ऐसी 'आग' जलाई, जो अब सिर्फ ईंट-पत्थरों को नहीं, बल्कि देश की न्यायिक और प्रशासनिक व्यवस्था की विश्वसनीयता को भी झुलसा रही है। इस घटना के बाद सामने आए तथ्य- खासकर अधजले नोटों से भरीं कथित बोरियों ने न केवल सनसनी फैलाई, बल्कि कई अनुत्तरित सवालों को जन्म दिया। सबसे बड़ा सवाल यह है कि दिल्ली पुलिस कमिश्नर को मुख्य न्यायाधीश डीके उपाध्याय से संपर्क करने में 16 घंटे से ज्यादा का वक्त क्यों लगा? 
 
‘द हिंदू’ की रिपोर्ट के मुताबिक, आग रात 11:30 बजे लगी, लेकिन कमिश्नर ने अगले दिन शाम 4:50 बजे ही जस्टिस उपाध्याय को सूचित किया। क्या रात में सूचना देना उचित नहीं था? क्या सुबह भी यह देरी जायज थी? या फिर पुलिस को खुद इस घटना की जानकारी देर से मिली? इन सवालों का जवाब अभी तक हवा में लटका हुआ है। जस्टिस वर्मा का नाम पहले भी 97 करोड़ के घोटाले में नाम आ चुका है। सीबीआई ने इस मामले में 12 लोगों के खिलाफ एफआईआर दर्ज की गई थी। जज वर्मा 10वें आरोपी के रूप में सूचीबद्ध थे। उस समय वह सिम्भौली शुगर मिल्स लि. के नॉन-एक्जीक्यूटिव डायरेक्टर के रूप में कार्यरत थे। तब ओरिएंटर बैंक ऑफ कॉमर्स ने आरोप लगाया था कि किसानों के लिए जारी किए गए 97.95 करोड़ रुपए के ऋण का दुरुपयोग किया गया।  ALSO READ: कठघरे में न्‍यायाधीश, क्‍या जाएगी जस्‍टिस यशवंत वर्मा की कुर्सी, कौन कर रहा और कहां तक पहुंची जांच?
 
सर्वोच्च न्यायालय द्वारा प्रकाशित दस्तावेज और वीडियो इस मामले में पारदर्शिता लाने का प्रयास तो करते हैं, मगर वे और सवाल भी खड़े करते हैं। दिल्ली पुलिस की रिपोर्ट में दावा है कि आग लगने के बाद सुबह एक सुरक्षा गार्ड ने मलबे में अधजला सामान और 4-5 बोरियां नोटों की देखीं। लेकिन यह स्पष्ट नहीं कि ये नोट किसने हटाए, कब हटाए गए और सबसे जरूरी कमरे को तुरंत सील क्यों नहीं किया गया? सबूतों के साथ छेड़छाड़ की आशंका को कैसे नजरअंदाज किया जा सकता है? दूसरी ओर, जस्टिस वर्मा का कहना है कि वह और उनकी पत्नी घटना के वक्त भोपाल में थे और उन्हें नकदी की कोई जानकारी नहीं। उन्होंने दावों को खारिज करते हुए कहा कि न तो उनके परिवार को ऐसी बोरियां दिखाई गईं, न ही उनके किसी कर्मचारी ने कुछ हटाया। फिर ये नोट कहां से आए? यह सवाल जांच के अभाव में और गहरा होता जा रहा है। ALSO READ: कैश कांड पर जस्टिस यशवंत वर्मा का जवाब, स्टोररूम से मिली नकदी पर किया बड़ा खुलासा
 
पुलिस और जज के बयानों में विरोधाभास भी कम परेशान करने वाला नहीं। पुलिस का कहना है कि स्टोर रूम बंद रहता था, जबकि जस्टिस वर्मा का दावा है कि यह सभी के लिए सुलभ था और अप्रयुक्त सामान रखने के लिए इस्तेमाल होता था। यह कमरा उनके मुख्य आवास से अलग था। मुख्य न्यायाधीश उपाध्याय की प्रारंभिक जांच में बाहरी व्यक्ति की पहुंच से इनकार किया गया है। तो क्या यह कोई आंतरिक साजिश थी? इसकी तह तक जाने के लिए भारत के मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना ने तीन सदस्यीय समिति गठित की है, जो जस्टिस वर्मा के कॉल डिटेल्स और इंटरनेट डेटा की भी पड़ताल करेगी। ALSO READ: जस्टिस वर्मा के घर मिले अधजले नोट, सुप्रीम कोर्ट ने जारी किए फोटो और वीडियो
 
ऐसी घटनाएं नई नहीं : यह पहली बार नहीं है जब न्यायिक व्यवस्था से जुड़ी कोई घटना ने सवाल खड़े किए हों। यह पहला मौका नहीं है जब न्यायपालिका से जुड़े विवाद सुर्खियों में आए हों। कुछ अन्य घटनाएं भी व्यवस्था पर सवाल उठाती हैं:
 
जस्टिस सौमित्र सेन मामला (2011) : कलकत्ता हाईकोर्ट के जज जस्टिस सेन को धन के दुरुपयोग के लिए महाभियोग का सामना करना पड़ा। यह भारत में किसी जज के खिलाफ महाभियोग की दुर्लभ घटना थी। उस राज्यसभा में बहुमत से उन्हें हटाने का समर्थन किया गया था। हालांकि लोकसभा में मामला पहुंचने से पहले उन्होंने इस्तीफा दे दिया था।  ALSO READ: जज यशवंत वर्मा के तबादले पर वकीलों ने उठाया सवाल, कहा- गंभीर मामला, इस्तीफा लेना चाहिए
 
जस्टिस दिनाकरण विवाद (2009) : कर्नाटक हाईकोर्ट के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश जस्टिस पीडी दिनाकरण पर जमीन हड़पने और भ्रष्टाचार के आरोप लगे, जिसके बाद उन्होंने इस्तीफा दे दिया।
 
जस्टिस रामास्वामी महाभियोग (1993) : सर्वोच्च न्यायालय के जज जस्टिस वी. रामास्वामी पर वित्तीय अनियमितताओं के लिए महाभियोग की कार्यवाही हुई, लेकिन संसद में प्रस्ताव पारित नहीं हुआ। इन घटनाओं से एक समानता साफ झलकती है- पारदर्शिता का अभाव और जांच में देरी, जो न्यायपालिका के प्रति आम आदमी के विश्वास को कमजोर करती है। जस्टिस वर्मा का मामला भी इसी कड़ी में एक नया अध्याय जोड़ता दिख रहा है।
 
NJC फिर से चर्चा में : इस घटना ने राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (एनजेएसी) को फिर से बहस के केंद्र में ला दिया है। उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने संसद में कहा कि अगर 2014 में पारित एनजेएसी को सुप्रीम कोर्ट द्वारा 2015 में असंवैधानिक घोषित नहीं किया गया होता, तो शायद ऐसी घटनाएं न होतीं। उनका मानना है कि न्यायिक नियुक्तियों में सुधार से जवाबदेही बढ़ती। दूसरी ओर, कांग्रेस ने इसे न्यायपालिका पर संकट बताया। पार्टी नेता केसी वेणुगोपाल ने कहा- न्याय की अंतिम उम्मीद ही टूट जाए तो नागरिक कहां जाएं? यह सवाल हर भारतीय के मन में गूंज रहा है।
 
सिस्टम पर सवाल उठाती यह घटना सिर्फ एक जज के घर की आग तक सीमित नहीं। यह पुलिस की सुस्ती, सबूतों के संरक्षण में लापरवाही और न्यायिक विश्वसनीयता पर सवाल उठाती है। अधजले नोटों की बोरियां अब केवल सबूत नहीं, बल्कि उन अनसुलझे सवालों का प्रतीक हैं, जो हमारे सिस्टम की नींव को चुनौती दे रहे हैं। जांच समिति से उम्मीद है कि वह सच को उजागर करेगी और उन सवालों के जवाब देगी, जो देश के हर कोने में सुलग रहे हैं। अगर ऐसा नहीं हुआ, तो यह आग सिर्फ एक घर को नहीं, बल्कि लोकतंत्र के भरोसे को भी राख कर सकती है।