सेहत की दुश्मन रूढ़ियाँ
अंधविश्वास और गलत मान्यताएँ
अच्छा स्वास्थ्य कायम रखने के लिए कुछ नियमों का कड़ाई से पालन किया जाना जरूरी है। संतुलित और सुपाच्य भोजन, उचित व्यायाम और नींद अथवा आराम अच्छे स्वास्थ्य के लिए आवश्यक हैं, लेकिन कुछ ऐसी कुप्रथाएँ और अंधविश्वास अभी भी कायम हैं जिन पर चलकर मनुष्य स्वस्थ रहने के बजाय बीमार पड़ सकता है। ऐसी ही रूढ़ियों का उल्लेख यहाँ प्रस्तुत है-* आम धारणा है कि कच्चा दूध (बगैर उबाले) पीना स्वास्थ्य के लिए अधिक हितकर होता है, गाँवों में आज भी कच्चा दूध ही पिया जाता है, जबकि आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के अनुसार ऐसे दूध में कई बीमारियों के रोगाणु मौजूद होते हैं, जो टायफाइड, उल्टी-दस्त इत्यादि बीमारियाँ उत्पन्न कर सकते हैं।* अंधविश्वास यहाँ तक है कि कुछ लोग टमाटर को मांस सदृश्य मानकर नहीं खाते, जबकि टमाटर में भरपूर विटामिन होते हैं। लोग यह भी मानते हैं कि कुएँ का पानी पाचक और स्वास्थ्य के लिए अच्छा होता है। यह बात तभी सही है जब कुआँ ढँका हो और उसमें ब्लिचिंग पावडर भी डाला जाता हो, वरना उसका पानी पेट की बीमारियाँ उत्पन्न कर सकता है।* कुछ ग्रामीण अंचलों में एक वर्ष से कम उम्र के शिशुओं को पानी नहीं पिलाया जाता। इससे उनमें डिहाइड्रेशन हो सकता है। विशेषकर दस्त लगने और उल्टियां होने की दशा में तो पानी पिलाना अत्यंत आवश्यक होता है। वहाँ इन शिशुओं को दूध के अलावा अन्य आहार जैसे दलिया, चावल, दाल आदि देने का भी रिवाज नहीं है, जिससे बच्चे कुपोषण का शिकार होकर अनेक रोगों से ग्रस्त हो जाते हैं। यह बात दृष्टव्य है कि छह महीने के पश्चात शिशुओं को केवल दूध पर्याप्त नहीं होता। यह धारणा भी गलत है कि बच्चों को अन्न खिलाने से उन्हें लीवर की बीमारी हो जाती है।* व्रत-उपवास एक सीमा तक तो ठीक है, लेकिन अधिक उपवास करने से बहुत सी शारीरिक गड़बड़ियाँ उत्पन्न हो सकती हैं। उसे अमाशय व्रण (गेस्ट्रिक अल्सर), सिर दर्द आदि भी हो सकता है। इसके अलावा खून की कमी, रक्त शर्करा कम होना इत्यादि बीमारियाँ भी हो सकती हैं। अतःउपवास सोच-समझकर और स्वयं की शारीरिक क्षमता को ध्यान में रखकर करना चाहिए। पेप्टिक अल्सर और मधुमेह के रोगियों को चिकित्सक उपवास करने की सलाह नहीं देते।
* भारत के पिछड़े क्षेत्रों में आज भी बहुत से रोगों का कारण दैवीय प्रकोप और भूत-प्रेतों को मानते हैं। लोग रोग का इलाज न करवाकर झाड़-फूँक और देवी-देवताओं की पूजा करते हैं। उदाहरणार्थ छोटी माता और खसरा को गाँवों के लोग देवी का प्रकोप मानकर पूजा से संतुष्ट हो जाते हैं। इलाज न करवाने से इन रोगियों में कई अन्य जटिलताएँ उत्पन्न हो जाती हैं। बहुत से रोगों जैसे हिस्टीरिया, मिर्गी, पीलिया, गठिया, वात, लकवा, पोलियो इत्यादि का ग्रामीण लोग सही इलाज न करवाकर झाड़-फूँक का सहारा लेते हैं, जिससे रोग ठीक होने के बजाय बढ़ जाता है।* टायफाइड जैसे कुछ बुखारों में रोगी को खाना नहीं दिया जाता और लंबा उपवास करवाया जाता है। कई बार तो ऐसे रोगियों की मृत्यु तक हो जाती है। ऐसे अंधविश्वासों से बचें।* कुष्ठ रोग पूर्व जन्मों का प्रतिफल माना जाता है और इसे ठीक न होने वाला रोग समझकर इलाज भी नहीं किया जाता, जबकि आजकल यह रोग इलाज से पूर्णतः ठीक हो जाता है और इलाज शुरू करने पर रोग की संक्रामकता चली जाती है।* पिछड़े क्षेत्रों में ग्रामीण और आदिवासी अंधविश्वास के कारण अपने बच्चों को भयानक बीमारियों से बचाने वाले टीके भी नहीं लगवाते, जो कि बाद में बच्चों के लिए घातक सिद्ध होते हैं। इन क्षेत्रों में रोग ठीक करने के लिए आज भी मुर्गे या बकरे की बली चढ़ाई जाती है।* उत्तरी मध्यप्रदेश के कुछ गांव-देहातों में उचित साफ-सफाई का अभाव और बासी भोजन करने की आदतों के कारण भी पेचिश, उल्टी जैसे रोग हो जाते हैं। घरों में रोशनदानों अथवा खिड़कियों का अभाव रहता है। ये लोग मानते हैं कि रोशनदानों से दुष्ट आत्माएं प्रवेश करजाती हैं। इस कारण वे अशुद्ध हवा बाहर निकलने और शुद्ध हवा घर के अंदर जाने के लिए रोशनदान व खिड़कियाँ नहीं रखते, जो कि स्वास्थ्य के लिए हानिकारक रहता है।* कई त्वचा रोगों जैसे एक्जिमा आदि को ठीक करने के लिए उस पर तेजाब डाल दी जाती है। इससे रोग तो ठीक नहीं होता, बल्कि तेजाब द्वारा उत्पन्न घाव नई समस्याएँ पैदा करते हैं। गलत धारणाओं के वश कई लोग छोटे बच्चों को बहुत अधिक कपड़े पहनाते हैं और उन्हें रजाई या चादर में हमेशा पूरी तरह ढँककर रखते हैं। यह प्रायः बच्चों के स्वास्थ्य के लिए हितकर नहीं होता। इसके अलावा जब बच्चे अधिक रोते या तंग करते हैं तो कुछ लोग उन्हें अफीम खिला देते हैं, जो बच्चों के लिए घातक होती है। इससे उनका मानसिक विकास अवरुद्ध हो सकता है।इस तरह विशेषकर दूरस्थ अंचलों में प्रचलित अंधविश्वास और गलत मान्यताएँ कई तरह की बीमारियों और उनकी जटिलताओं को बढ़ाने में सहायक होती हैं। इन अंधविश्वासों का एक बड़ा कारण अशिक्षा है। शिक्षा का प्रसार बढ़ने से इस तरह की गलत मान्यताएँ स्वतः ही धीरे-धीरे कम होती जाएँगी, लेकिन इन अंधविश्वासी व्यक्तियों को जागरूक बनाने का कार्य अभी से शुरू करना होगा।