गुरुवार, 14 नवंबर 2024
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Written By WD

परंपरा के प्रवाह में आस्था की राजनीति

सारंग उपाध्याय

परंपरा के प्रवाह में आस्था की राजनीति -
हिन्दू धर्म के अनुयायियों को शिर्डी के सांई बाबा की पूजा से मना करने वाले द्वारकापीठ के पीठ के शंकराचार्य स्वरूपानंद सरस्वती हिन्दू धर्म को सनातन धर्म कहते हैं। उनका मानना है कि हिन्दू समाज जिस पूजा-पद्धति, नाम और आस्था के प्रतीकों को ईश्वर के प्रति भक्ति के लिए अपनाता है, वह अनादि काल से है। न उसका आदि है, न अंत है इसलिए वह सनातन है।
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यदि हिन्दू धर्म की सनातनी व्याख्या में नहीं पड़ा जाए तो इतिहास कहता है कि सनातन धर्म को मठों में विभाजित कर देश के 4 कोनों में स्थापित करने की नई परंपरा इस देश को आद्य गुरु शंकराचार्य की ही देन है। फिर भले ही वह देश में एकता की स्थापना और उसे अक्षुण्ण बनाए रखने के उद्देश्य से चलाई गई थी। लेकिन उस दौर से लेकर आज तक वह परंपरा मठों और मठाधीशों की मठागिरी में उलझकर रह गई है।

एक तरह से अब यह केवल शंकराचार्यों की सियासत की नई परंपरा बन गई है, जो कभी सनातन नहीं थी और उसका एक इतिहास रहा है। अत: हमें यह कहने से कोई गुरेज नहीं होना चाहिए कि शंकराचार्य का सांई बाबा पर बयान एकता के उद्देश्य से बनाई गई पीठ और मठ की परंपरा से इतर आज के दौर में मठ के अर्थ से निकला एक सियासी बयान है।

बहरहाल, इतिहास का यह छोटा-सा संदर्भ इसलिए कि इसके परिप्रेक्ष्य में ताजा विवाद हमें इस देश में कभी भक्ति आंदोलन की अनूठी और बड़ी ही महत्वपूर्ण धारा की ओर ले जाता है।

भक्ति आंदोलन के रचनाकारों ने भक्ति काव्य के जरिए सांस्कृतिक क्षेत्र में एक तरह से नवजागरण की चेतना फूंकी और समाज को जाति-प्रथा, छूआछूत जैसी कुप्रथाओं से बाहर निकालने की शुरुआत की।

यदि इस मामले में हम थोड़ा-सा आगा-पीछा करें यानी कि सिद्धों, नाथों व योगियों की परंपरा में भी झांकें तो हमारे यहां सिद्धों और नाथ योगियों की परंपरा का बेहद महत्वपूर्ण स्थान रहा है।

सिद्ध और नाथ इस देश की सांस्कृतिक परंपरा में वे लोग रहे, जो न तो मुसलमान रहे और न हिन्दू। उनका कोई पंथ नहीं था। और जो था वह लोगों को सामंतशाही, शोषण और धर्म के नाम पर बढ़ते अंधविश्वास को रोककर जनता को सच्ची ईश्वर भक्ति की ओर प्रेरित करता था।

गोरखनाथ और उनका समय इस धारा का हमें आरंभ बताता है, जब नाथ मुसलमानों के बाह्याचार और हिन्दुओं के धार्मिक पाखंड, सांस्कृतिक और सामाजिक रूढ़िवाद पर कटाक्ष करने लगे थे।

कमाल की बात है कि नाथों की इसी परंपरा से भारतीय दार्शनिक, आध्यात्मिक परंपरा का सबसे बड़ा सुधारवादी नायक कबीर हमारे सामने आता है जिसके धर्म, जाति के बारे में तो छोड़िए- जन्म और मृत्यु भी रहस्य बने रहे और आज तक उसे लेकर विद्वानों में मतभेद है।

यही नहीं, कबीर के धर्म को लेकर भी मुसलमान और हिन्दू आज तक एकमत नहीं हुए जबकि कबीर के दोहों में छिपा आद्य गुरु शंकराचार्य के अद्वैतवाद से अलग एकेश्वरवाद है। फिर यहां यह भी नहीं कह सकते हैं कि कबीर अपने जीवन में केवल नाथपंथी होकर रह गए। हां, उसे हम प्रभाव मान सकते हैं, लेकिन न तो वे हठयोगी रहे, न बौद्ध।

कबीर सभी के रहे अर्थात उस जनमानस के, जो धार्मिक पाखंड से छला जा रहा था, छुआछूत, जाति-प्रथा और कठमुल्लेपन का शिकार था और वास्तव में ईश्वर अपने भीतर तलाशना चाहता था।

कबीर का संदर्भ यहां इसलिए कि कबीर भक्ति आंदोलन की जिस निर्गुण धारा में बह रहे थे उसी में दादू दयाल, गुरु नानक, बाबा फरीद बह रहे थे। दरअसल, उसके कई सौ सालों बाद ही महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले में शिर्डी गांव के सांई बाबा उसके संवाहक बने।


कबीर की तरह ही सांई बाबा के भी जाति, जन्म के बारे हमें कोई प्रामाणिक जानकारी नहीं मिलती, न ही उन पर कोई प्रामाणिक किताब लिखी गई है। फिर न तो मुसलमान उन्हें अपना मानते हैं, न हिन्दू।

कबीर पर संत एकनाथ, संत नामदेव से लेकर कई संतों का प्रभाव था, जो संत थे और संपूर्ण जनता के थे, दीन-दु:खियों के थे और मानवमात्र में ईश्वर का अंश देखते थे। कबीर ताउम्र धर्म के ठेकेदारों पर चोट करते रहे।

जिस प्रकार हमने कबीर को न तो हिन्दू समाज का प्रवक्ता माना है, न मुस्लिम समाज का, ऐसे ही देश की जनता सांई बाबा के पूरे जीवन में किसी धर्म-विशेष के प्रति झुकाव नहीं देखती।

खास बात यह है कि यहां तुलना कबीर और सांई बाबा की नहीं है बल्कि उस संपूर्ण निर्गुण भक्ति धारा और उसके इर्द-गिर्द खिल रहे अनूठे संतत्व के फूलों की है जिसकी खुशबू में किसी मत-मतांतर, जाति, संप्रदाय को लेकर पूर्वाग्रह कभी नहीं रहा और न ही वे किसी विशेष धर्म के आंगन में खिलकर खुद को कुंद कर बैठे।

भारतीय अध्यात्म और दर्शन की अतिप्राचीन और पारंपरिक धारा में ऐसे कई संत हुए हैं, जिन्होंने गरीबों, वंचितों और दुखियों की पीड़ा को समझकर उन्हें दूर किया। स्वयं सांई बाबा को लेकर भी सर्वाधिक प्रचलित अवधारणा उनके गरीबों, दु:खियों के लिए किए गए कार्यों को लेकर रही। इसमें कई तरह के चमत्कार भी शामिल रहे।

संदर्भों के आईने में ऐसी लंबी फेरहिस्त है, जो भारत में संत, साधु, संन्यासी, वैरागी, ओघड़, मुमुक्षु, बटुक, भिक्षुक फिर शंकराचार्य जैसे शब्दों और उनके भीतर छिपी परंपरा को हमारे सामने लाती है।

इसमें भी फिर संत के टर्म को समझने के लिए नियमों, कायदों और धर्मों की दीवार को तोड़ना होगा, जो वाकई में इस देश के जनमानस ने समय-समय पर तोड़ी। फिर चाहे मसला नानक को मानने का हो, बाबा फरीद को मानने का हो, दादू दयाल को मानने का हो, निजामुद्दीन औलिया का हो, मोईनुद्दीन चिश्ती का हो या फिर सांई बाबा पर आस्था का।

बहरहाल, देश में कई संतों की तरह सांई बाबा का जीवन भी सादगी, संतोष और फकीरी का रहा। वे घूमते रहे और इधर-उधर भटककर समाज में ईश्वर की अलख जगाते रहे। दु:खियों के दु:खों, समस्याओं से घिरे लोगों की समस्या का निवारण करते रहे।

अपनी समस्या और दुख का निवारण होता देख दुखियारी जनता ने बाबा को सिर आंखों पर बिठाया। उन्हें अपना आराध्य माना और उनके प्रति अपनी आस्था दर्शाई और बदले में न तो कोई पंथ चलाया और न कोई धर्म। और तो और, दुखियारी परेशान जनता से कुछ न लिया, न कोई स्वार्थ रखा। हां, इस देश को मठाधीशों ने क्या दिया उसकी बानगी हम और आप इस समय में देख रहे हैं।

खैर, सांई बाबा के विरोधी और उनके खिलाफ षड्यंत्र रचने वाले भी कम नहीं रहे। वे सीधे-साधे गरीब लोगों का सहारा बने रहे। 'सबका मालिक एक है', यह कबीर की तरह उसी एकेश्वरवाद से निकले वचन रहे, जो शंकराचार्य के अद्वैतवाद के नजदीक रहा और जिसे लेकर संत के भोले हृदय से निकले शब्द को शंकराचार्य स्वरूपानंदजी दर्शन के जटिल ताने-बाने में बुन रहे हैं।

हालांकि इस बारे में कोई दो राय नहीं कि पिछले कुछ सालों में एक फकीर संत के नाम पर शिर्डी में करोड़ों-अरबों रुपए का व्यापार फला-फूला है। उनके नाम पर बन रहे ट्रस्टों पर घपलों-धांधलियों के छींटें हैं।

देशभर में उनके नाम पर बन रहे मंदिरों में अंधश्रद्धा को महसूस किया जा सकता है। यही नहीं, बल्कि समाज में भी पिछले कुछ सालों में सांई बाबा के नाम पर कुछ दकियानूसी बातों का चलन भी चल पड़ा है। चिट्ठी-पत्री, मैसेज जैसी बातों ने सांई की कृपा को अंधश्रद्धा में बदल दिया है, जो किसी भी स्वस्थ समाज के लिए ठीक नहीं है। खासकर भारत जैसे आध्यात्मिक समाज के लिए वह भी एक फकीर को लेकर, क्योंकि धर्म अफीम तो नहीं है, लेकिन मोक्ष की कामना में डूबे भारतीय समाज के मन को विकृति के अंधे कुएं में डालने के लिए यह विवाद काफी है।

कमाल यह है कि इन सबके बीच शंकराचार्य जैसे पद से इस तरह के बयान ने एक नई धर्म की राजनीति को उभार दिया है जिसकी परिणति टेलीविजन चैनलों पर मूर्खताभरी बहसों में दिखाई दे रही है, तो वहीं जमीन पर देहरादून में सांई बाबा की मूर्ति को हटाने के रूप में दिखाई पड़ रही है।