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Written By Author डॉ. मुनीश रायजादा

अमेरिका से वृतांत : इस्लामिक आतंकवाद

अमेरिका से वृतांत : इस्लामिक आतंकवाद - Terrorism
फ्रांसीसी पत्रिका चार्ली एब्दो पर हुए आतंकी हमले पर सलमान रश्दी ने कहा, 'धर्म से उपजे भय' को ‘धर्म के प्रति सम्मान' बताकर बात को रफा-दफा किया जा रहा है। धर्म पर भी अन्य विचारों के समान ही उचित आलोचना, व्यंग्य, और हाँ, उस पर भयमुक्त अनादर करने का हक़ हमें मिलना चाहिए'I
 
जहां एक ओर पेरिस में चार्ली एब्दो आतंकी हमला घटित हो रहा था, वहीं 4000 मील (6500 किलोमीटर) दूर सऊदी अरब के जेद्दाह में एक युवक रैफ बदवई को 9 जनवरी शुक्रवार के दिन के नमाज के बाद चोराहे पर 50 कोड़े लगाए जा रहे थे। और वहां एकत्र हुईभीड़ "अल्लाह हो अकबर" के नारे लगा रही थी। उसका दोष सिर्फ इतना था कि उसने एक ऑनलाइन ब्लॉग बनाया था, ताकि लोकतंत्र और स्वतंत्रता पर चर्चा की जा सके। पिछले मई को रैफ को 10 साल के जेल की सजा दे दी गई और साथ ही उसे 1000 कोड़े (20 हफ्तों तक हर हफ्ते 50 कोड़े) मारने हुक्म दिया गया। इतना ही नहीं उस पर 10 लाख रियाल (2.6 लाख अमेरिकी डॉलर) का जुर्माना भी लगाया गया। उसका जुर्म बताया गया कि उसने इस्लाम का अपमान किया है।
सुनकर वितृष्णा हो रही है! तो अपनी ही इस दुनिया में जनसंहार की एक और बानगी देखिए। जनवरी के पहले हफ्ते में नाइजीरिया के बोको हराम में इस्लामी आतंकियों के एक नृशंस हमले में 2000 लोगों के मारे जाने की खबर है। आतंकियों ने उत्तरी नाइजीरिया के एक गाँव में अंधाधुंध गोलियां बरसा कर इन्सानी लाशों के ढेर लगा दिए।
 
इस तरह की बर्बर और आतताई घटनाओं के उदाहरणों की कोई कमी नहीं हैं। ये उदाहरण बतलाते हैं कि इस्लामी चरमपंथियों ने आधुनिक दुनिया की सभ्यता के साथ एक जंग छेड़ रखी है। पूरी मानवता इस सांस्कृतिक टकराव को महसूस कर रही है। जहां विश्व का एक बड़ा हिस्सा बोलने की आजादी और धार्मिक स्वतंत्रता में यकीन रखता है, वहीं इसका एक दूसरा हिस्सा मध्ययुगीन सोच और नजरिया रखता है, जहां मानवाधिकार का (खासकर महिलाओं का) कोई महत्व नहीं है। सबसे आश्चर्यजनक बात यह है कि अगर आप उनसे सहमत नहीं हैं तो फिर हिंसक कार्रवाई के लिए तैयार रहिए। उनके यहाँ तो बस एक ही कानून है- या तो उनकी बात मानिए, नहीं तो मौत की राह पर जाइए!
 
चार्ली एब्दो घटना ने एक बार फिर जेहाद के मुद्दे को गरमा दिया हैI भले ही, यह 9/11 या मुंबई पर हुए आतंकी हमले जितना व्यापक नहीं है, परन्तु इसने पूरे विश्व का ध्यान आकर्षित किया हैI चार्ली एब्दो हमला हम सबसे एक सवाल कर रहा है: क्या हम मुस्लिम आतंकवाद के मूल कारणों का पता करना चाहेंगे?
 
परन्तु, मीडिया में जो पक्ष प्रस्तुत किया जा रहा है, आइए ये पहले उस पर निगाह डालते हैं।  कनाडाई ब्रॉडकास्टिंग कॉरपोरेशन के एक निदेशक डेविड स्टूडर ने एक अंतरिम दिशानिर्देश जारी करते हुए कहा: “कोई भी मोहम्मद पैगम्बर का कार्टून ना दिखाएं। चार्ली एब्दो के इससे संबंधित लेख और शैली पर कोई एतराज नहीं है, पर हमें इस के कार्टून से बचना चाहिए। क्योंकि यह मुस्लिम समुदाय को उतेजित कर सकता है”। इस्लाम के नाम पर लोग मारे जा रहे हैं, गले काटे जा रहें हैं, बच्चों (पेशावर, पाकिस्तान) की नृशंस हत्याएं की जा रही है, महिलाओं का बलात्कार, अल्पसंख्यकों (इराक में याजिदी) को फांसी पर लटकाया जा रहा है।
 
किन्तु, चार्ली एब्दो पर हमले की घटना के बावजूद न्यूयॉर्क टाइम्स के संपादकीय बोर्ड ने कहा कि हिंसक घटनाओं के कारण मुस्लिम समुदाय के लोगों को आंतकी नजरिए से देखा जाना उचित नहीं है। अमेरिकी राज्य वैरमॉन्ट के भूतपूर्व गर्वनर और डेमोक्रेटिक नेशनल कन्वेंशन के अध्यक्ष डीन हॉवर्डने कहा, 'चार्ली एब्दो के हमलावर मुस्लिम आतंकी नहीं हैं। वे उतने ही मुसलमान हैं, जितना कि मैं हूँ।' हॉवर्ड ईसाई धर्म में विश्वास रखते हैं। 2016 के राष्ट्रपति चुनाव की संभावित उम्मीदवार हिलेरी क्लिंटन ने कहा कि फ्रेंच हमले व हमलावरों के पहलू को भी समझा जाना चाहिए।
 
कनाडा के जानेमाने प्रतिक्रियावादी और इस्लाम में आजादी के महत्वपूर्ण समर्थक तारेक फ़तेह कहते हैं, “इस मामले में कार्टून ही मुख्य वजह है तो पूरी कहानी बताई और दिखाई जानी चाहिए, पर यह किस तरह की मीडिया रिपोर्टिंग की जा रही है”? गौरतलब है कि मीडिया इस मामले से जुड़े कार्टून को आमतोर पर दिखा नहीं रहा है, ताकि मुसलमानों की भावना को ठेस ना पहुंचे। तारिक कहते हैं कि पत्रकारिता का मूल सिद्धांत तथ्यों को रिपोर्ट करना है ना कि कोई निष्कर्ष निकालना।”
 
इसलिए प्रतीत होता है कि इस किस्म की हिंसा की आलोचना तो हो, लेकिन धर्म की गरिमा को ठेस पहुंचाए बगैर! सोमालिया में जन्मी अमेरिकी एक्टिविस्ट सुश्री अयान अली हिरसी कहती हैं: “अब इस तर्क का कोई मतलब नहीं रह गयाI हिंसा और इस्लाम में बहुत गहरा संबंध है। आप इन आतंकी गतिविधियों को इस्लाम से अलग कर के नहीं देख सकते हैं।”
 
माना जा रहा है कि अमेरिका का वामपंथी और उदारवादी मीडिया इस मुद्दे की आलोचनात्मक छानबीन से बचना चाहता है, कहीं इस्लाम विरोधी भावनाओं को बल ना मिल जाए। लेकिन इस बार कुछ मीडिया चैनल कठिन प्रश्न पूछ रहे हैं। आतंकी हमले को मात्र एक आपराधिक गतिविधि से तुलना किए जाने पर राष्ट्रपति ओबामा की फॉक्स चैनल ने जमकर आलोचना की है। व्यापक तौर पर कहा जाए तो राजनेता इस मुद्दे को किसी खास धर्म से जोड़कर नहीं देखना चाहते हैं। लेकिन होमलैंड सिक्यूरिटी कमेटी के सदस्य पीटर किंग (न्यूयॉर्क से रिपब्लिकन नेता) ने कहा, "पहले तो इसे इस्लामिक आतंकवाद माना जाए, न कि सिर्फ उग्रवादी गतिविधि।” एक अन्य विश्लेषक पूछते  हैं: ”क्या हम अपने राजनीतिक हितों के बारे में इतना सोचने लगे हैं कि आत्मघाती स्थिति तक बन पड़े”?
 
चार्ली एब्दो की घटना से स्पष्ट है कि उग्रवाद एक बार फिर जीत गया है। ऐसा लगता है मानो पूरी पटकथा ही हमने इस्लामी आतंकवादियों के हाथ में रख दी है। उन्होंने व्यंग्यकारों को मारकर पैगंबर के ‘अपमान’ का बदला लिया है- यही संदेश वे पूरी दुनिया को देना चाहते थे और बहुत हद तक वे इसमें सफल भी रहे। लेकिन, विरोधाभास देखिए। पिछले 20 साल से लोग यही कहते आ रहे हैं: आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता है। इन घटनाओं को इस्लाम से जोड़कर ना देखा जाए। इस्लाम एक अमनपसंद धर्म है।
 
क्या यह समस्या इस्लाम की भावना से उत्पन्न हो रही है?.... पढ़ें अगले पेज पर....

 

क्या यह समस्या इस्लाम की भावना से उत्पन्न हो रही है? : तारीक फतेह कहते हैं, “पश्चिम जगत और हिंसा की बात छोड़िए। स्वयं इस्लाम के अंदर ही हिंसा का अक्सर जश्न मनाया जाता रहा है।” अगर सावधानी से देखें तो इस्लाम में हिंसा कैंसर की तरह फैली हुई है और इसके सबसे ज्यादा शिकार मुस्लिम खुद हुए हैं। मुस्लिम मध्य-पूर्व जगत पर नजर डालें जहां प्रजातंत्र का कोई नामोनिशान तक नहीं है। अभी के समय में भी राजतंत्र और और उसकी व्यवस्थाएं बरकरार हैं। करबला की लड़ाई के बारे में तारीक बताते हैं कि हम मुस्लिमों ने ही अपने पैगंबर के पोते को मार डाला। उसी तरह पूरी उम्मैया खलीफत के 700-800 लोग डैमास्कस में एक ही दिन में मार दिए गए और विजयी हुए अबादीस खलीफत के शासकों ने इन लाशों पर व्यंजन छका था। चौदहवीं शताब्दी में मंगोलों ने जब अरब की संप्रभुता को खत्म कर दिया, तो इसके बाद दो व्यक्तियों ने इस्लाम को बहुत प्रभावित किया: इब्न थेमिया और इब्न खतीमा। इन्होंने इस्लाम धर्म का पुनरोदय किया, जिसकी जड़ वर्तमान सऊदी अरब तथा खाड़ी देशों में देखने को मिलती है। इब्न थेमिया के उपदेशों का असर आज के वहाबी, सालाफी और जिहादी इस्लाम पर स्पष्ट देखने को मिलता है। कहने की जरूरत नहीं है कि मुस्लिम ब्रदरहुड, अल-कायदा, तालिबान, आईएसआईएस सभी इसी विचारधारा से प्रेरित हैं। इस क़िस्म का इस्लाम यह भी मानता है कि अरब सबसे श्रेष्ठ नस्ल है (इसके परिणामस्वरूप इस्लाम में नस्लवाद भी आ गया, जिस सोच के फलस्वरूप मध्यपूर्व में अरब के बाहर के मुसलमानों को निम्न स्तर का माना जाता है। मेरे हिन्दुस्तानी और पाकिस्तानी भाई जो मध्य पूर्व के देशों में काम करते हैं वो इस बात को सत्यापित करेंगे।)
 
क्या इस्लाम अपनी ही संकीर्ण मानसिकता तथा बस्ती–स्वरूप रहन-सहन (गेटो मानसिकता) का  शिकार है? आंकड़ों पर गौर करें तो फ्रांस में 751 आधिकारिक “प्रवेश वर्जित जोन” हैं जहां सिर्फ मुसलमान रहते हैं। वहां फ्रेंच पढ़ने की इजाजत नहीं होती हैं, इन क्षेत्रों में उनका अपना शरिया कानून चलता है और वे समाज की मुख्य धारा से कटे हुए होते हैं। पश्चिमी दुनिया जहां समानता, स्वतंत्रता, अभिव्यक्ति की आजादी है, आखिर वहां भी मुसलमान अलग-थलग क्यों रहते हैं?
 
‘जिहाद वाच’ संस्था के डायरेक्टर रॉबर्ट स्पेंसर ने इसके कारणों की व्याख्या की है। वे कहते हैं कि इस्लाम एक धर्म के साथ-साथ राजनीतिक व्यवस्था भी है। इसकी अपनी एक सामाजिक व्यवस्था और शासन प्रणाली है। कुदरती तौर पर आम प्रवासी मुसलमान के जेहन में यह बात बैठी होती है कि नई धरती पर भी स्थानीय कानून की बजाय शरिया बेहतर विकल्प होगा। और जैसे-जैसे वहां उनकी बहुलता बढ़ती जाती है, उस देश की संस्कृति के साथ उनका संघर्ष शुरू हो जाता है।
 
क्या इलाज संभव है?
उग्र इस्लामिक विचारधारा की जड़ में आजादी और बौद्धिक पूछताछ का स्थान नहीं है। इसके अलावा कुछ अन्य कारण भी समस्या को और जटिल बनाते हैं। 2012 में प्यू रिसर्च के विश्लेषण के मुताबिक दुनिया के एक चौथाई देशों में ईश्वर की अवमानना (ब्लासफेमी) के खिलाफ कानून या नीतियां हैं। दस प्रतिशत देशों में धर्म का त्याग या निंदा (अपोस्टेसी) करना वर्जित हैं। यह सब मुस्लिम मध्य-पूर्व और उत्तर अफ्रीकी देशों में आम है।
 
चार्ली एब्दो की घटना के बाद अब क्या?
क्या यह हादसा हमें कोई मौका देगा? मेरे ख्याल से यह विश्व को तथा खासकर मुस्लिम जगत को एक ईमानदार बातचीत का अवसर देता है। फ्रांसीसी पत्रिका पर हमले ने राजनीतिक, सुरक्षा और सामाजिक आयामों से जुड़े महत्वपूर्ण मुद्दे को हवा दे दी है। पूरी दुनिया में 160 करोड़ मुसलमान हैं। आखिर उनमें इसको लेकर हायतौबा क्यों नहीं मची है? विश्व का माहौल थोड़ा बेहतर होगा अगर मुसलमानों का एक छोटा तबका भी सामूहिक रूप से इस हिंसक घटना के खिलाफ आवाज बुलंद करे और कहे: "अब बहुत हुआ, इस्लाम के नाम पर लोगों की हत्याएं करना छोड़ो”। आखिर मुल्ला और इमाम सिर्फ कुरान को जलाए जाने वाली घटनाओं को लेकर ही ज्यादा संजीदा क्योँ दिख पड़ते है? इन हिंसक वारदातों, इस्लाम के नाम पर मासूमों और निर्दोषों की हत्या पर अधिकांश लोगों ने चुप्पी क्यों साध रखी है? इस समस्या का समाधान इस्लाम के अंदर से आना चाहिए ना कि इस्लाम के बाहर से।
 
इस्लाम की दुनिया से कोई महात्मा गांधी जैसा (जो अपने ही धर्मावलंबी एक हिन्दूवादी के हाथों मारे गए) शख्स क्योँ नहीं उभर कर आया, जो शांति बहाली के लिए अपने धर्म के लोगों से पहल की जिद करे? आखिर पाकिस्तान के प्रति अमेरिकी राष्ट्रपति नरम रवैया क्यों अख्तियार किए हुए हैं, जहां ओसामा की सूचना देने वाले डॉक्टर को जेल में डाल दिया जाता है। आखिर अमेरिका ऐसे कट्टर देश को आर्थिक मदद क्यों दे रहा है, जहां तालिबानियों के हाथों 150 स्कूली मासूमों को गोलियों से छलनी कर दिया जाता है? अमेरिकन मीडिया में अब इस्लामिक देशों पर व्यापारिक प्रतिबंध लगाने संबंधित भावनाएं भी व्यक्त की जा रही हैं। पूछा जा रहा है कि प्रगतिशील पश्चिम जगत में मध्ययुगीन सोच वाले लोगों को जड़ें ज़माने भी दी जाएँ क्या?
 
इस्लाम एक ऐसे चौराहे पर खड़ा है जो खुद से ज्यादा औरों के लिए खतरनाक बन गया है। क्या वैश्विक स्तर पर इस्लामी आतंकवाद की समस्या पर गहन विचार किया जाएगा या अभी भी मुंह फेरकर खड़े रहेंगे? (लेखक शिकागो स्थित सामाजिक-राजनीतिक विश्लेषक हैं)