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Written By उमेश चतुर्वेदी

संघ मुक्त भारत के समाजवादी नारे पर उठेंगे सवाल

संघ मुक्त भारत के समाजवादी नारे पर उठेंगे सवाल - Socialism, RSS, Nitish Kumar, Congress, JD U
अपने चरम उत्थान के दिनों में समाजवाद ने विपक्ष को गोलबंद करने की कोशिश की थी और उसके लिए उसने गैर कांग्रेसवाद का सिद्धांत दिया था। डॉक्टर राममनोहर लोहिया समेत तकरीबन पूरा समाजवादी खेमा मानता था कि आजादी के बाद अगर देश प्रगति की अपनी राह पर आगे नहीं बढ़ पा रहा है तो उसकी बड़ी वजह कांग्रेस की राजनीति और उसके शासन का पश्चिमोन्मुखी होना है।
समाजवादी आंदोलन के अगुआ चूंकि 1948 तक खुद ही कांग्रेस की छतरी के नीचे आजादी के आंदोलन में शामिल रहे थे, लिहाजा उन्हें कांग्रेस के तत्कालीन नेतृत्व की खामियों-खूबियों का अंदाजा दूसरे विपक्षी खेमे के नेताओं की तुलना में कहीं ज्यादा था। चार आने बनाम पच्चीस हजार की बहस अगर समाजवादी धुरंधर डॉक्टर राममनोहर लोहिया संसद में शिद्दत और कड़ाई से चला सके तो उसकी बड़ी वजह कांग्रेस नेतृत्व की बदलती शैली, उसकी गरीबों से बढ़ती दूरी और भारतीयता से विचलन था। इसलिए समाजवाद के पुरोधा मानते थे कि अगर देश को पटरी पर लाना है, आजादी के आंदोलन के दौरान देखे गए सपनों के मुताबिक हिंदुस्तानी अवाम को मुख्यधारा में बराबरी के सिद्धांत पर आगे बढ़ाना है तो इसके लिए गैर कांग्रेसवाद जरूरी है।
 
गैर कांग्रेसवाद का उनका सिद्धांत कितना उदात्त था, इसका अंदाजा इस बात से ही लगाया जा सकता है कि उन्होंने गैर कांग्रेसवाद की धुरी में तत्कालीन जनसंघ को भी शामिल किया। इसके बाद ही इतिहास बदला था। पहली बार सोशलिस्ट पार्टी, जनसंघ और स्वतंत्र पार्टी के गठबंधन ने 1963 में हुए उपचुनावों में बाजी मारी। बेशक जनसंघ के तत्कालीन महासचिव पंडित दीनदयाल उपाध्याय उत्तरप्रदेश के जौनपुर से चुनाव हार गए, लेकिन अमरोहा से आचार्य जेबी कृपलानी, फर्रूखाबाद से डॉक्टर राममनोहर लोहिया और गुजरात के राजकोट से पीलू मोदी चुनाव जीतकर लोकसभा पहुंचे। गैर कांग्रेसवाद का राजनीतिक फॉर्मूला कितना कामयाब हुआ, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि 1967 के विधानसभा चुनावों में तब तक देश में अजेय समझी जाने वाली कांग्रेस का नौ राज्यों से सूपड़ा साफ हो गया। 
 
आखिर इस इतिहास को यहां दोहराने की जरूरत क्यों पड़ी है। क्योंकि बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने जनता दल यू की अध्यक्षता हासिल करने के दूसरे ही हफ्ते देश को संघ मुक्त बनाने का नारा दे डाला है। उनका यह नारा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कांग्रेसमुक्त भारत के नारे के जवाब में माना जा रहा है। यहां यह याद दिलाने की जरूरत नहीं है कि नीतीश उसी समाजवादी धारा की विरासत को ढो रहे हैं, जिसने गैर कांग्रेसवाद का सिद्धांत देकर कांग्रेस विरोधी विचारों और धाराओं को गोलबंद किया था। उनका राजनीतिक प्रशिक्षण भी उसी धारा में हुआ है, बल्कि उनकी 2005 तक की राजनीति गैर कांग्रेसवाद के खांचे में ही विकसित हुई है और राजनीतिक शीर्ष पर पहुंची है। ऐसे में उनका संघ मुक्त नारा अगर उनकी अपनी विचारधारा से विचलन भी माना जाने लगे तो हैरत नहीं होनी चाहिए।
 
बिहार में दस साल से लगातार सत्ता के शीर्ष पर बैठे नीतीश कुमार से यह पूछा जाना चाहिए कि उन्हें संघ मुक्त धारा का सवाल 2005 में क्यों नहीं नजर आया। क्योंकि संघ यानी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपनी सामाजिक भूमिका में तब भी गहरे तक था और उसके स्वयं सेवक उनकी ही सरकार में उपमुख्यमंत्री तक बने।
 
दरअसल नीतीश को लग रहा है कि कांग्रेस का मौजूदा नेतृत्व बीजेपी विरोधी धारा की अगुआई कर पाने में नाकाम है। इसलिए वे गैर बीजेपी दलों को गोलबंद करके खुद को उसका नेता बनाने की कोशिश में हैं। लेकिन वे यह भूल जाते हैं कि जिस समाजवाद का वे प्रतिनिधित्व करते हैं, उसकी तमाम अच्छाइयों पर उसकी एक बुराई भारी पड़ती है। 

समाजवादी खेमे को लगातार बांधे रखना तराजू पर मेंढक तौलने जितना कठिन है। फिर वहां मुलायम सिंह यादव और नवीन पटनायक जैसे ताकतवर क्षत्रप भी हैं। जो शायद ही उनके नेतृत्व को स्वीकार कर पाएं। इसलिए लगता नहीं कि नजदीकी वर्षों में नीतीश का संघ मुक्त भारत का नारा हकीकत में परवान चढ़ पाए। हां, अखबारी सुर्खियां जरूर बन सकता है।