गुरुवार, 14 नवंबर 2024
  • Webdunia Deals
  1. सामयिक
  2. विचार-मंथन
  3. विचार-मंथन
  4. Kisan Movement, Kisan Violence
Written By

किसान आन्दोलन का असली कारण....'नरा टड़ गया है'

किसान आन्दोलन का असली कारण....'नरा टड़ गया है' - Kisan Movement, Kisan Violence
- डॉ. राम श्रीवास्तव

'नरा टड़ना' एक पूरी तरह विशुद्ध देहाती मर्ज का नाम है। इसके मर्म को वही समझ सकता है जो सच में देहाती हो। पर आज की विडम्बना यह है कि कोई भी अपने को देहाती कहलाना पसन्द नहीं करता। सब अपने को शहरी या ग्रामीण कहलाने में गौरवा‍न्वित महसूस करते हैं।
 
वर्तमान में किसान आन्दोलन की पृष्टभूमि की असली मूल समस्या समझने के पहिले 'देहात' और 'ग्राम' के बीच का भेद  समझना होगा। देहात नाम आते ही उस परिवेश का चित्र उभर आता  है, जहां पर चारों ओर जंगल  बीच मे बैलगाड़ियों के  चलने से बनी गढारें हुआ करती  थी। देहात के प्राकृतिक माहौल में सुगंधित  मन्द-मन्द वायु बहती  थी। प्रकृति स्वयं  इन  देहाती स्थान पर अपना सौन्दर्य सजाती रहती थी। मिट्टी की सौंधी हवा, नदी की कल-कल ध्वनि का कर्णप्रिय संगीत, बेर,  करोंदे, खजूर, खिन्नी और अमियों की मीठी सुगन्ध। कच्ची हरी इमली का खट्टा चिरखा स्वाद, अधपके कच्चे आंवलों को दांतों  से चबाकर, हथेलियों की चुल्लू में रेत के बने गड़्ड़े से ऊकड़ू बैठकर पानी पीना, आंवले की खटास में से पानी के साथ मिठास  निकाल कर, जीभ  चाट-चाटकर  स्वाद गटकना। पनधट की नारियां,  मन्दिरों की घंटियां, ढ़ोलक-मजीरों  की आवाज, देर रात  तक आल्हा ऊदल के किस्से। यहां के लोग भोले , सहज, धर्म भीरू और अनुशासन प्रिय होते थे। ऐसे देहात अब सिर्फ पुरानी  पिक्चरों में सुरैय्या या शमशाद बेगम के गानों के साथ ब्लेक एंड व्हाइट सिनेमा के पर्दों पर ही देखने को मिलते हैं।
हकीकत में 'देहात' में तो राष्ट्र के देह की आत्मा का निवास होता है। और देहाती तो उन सब असली कृषकों को कहते हैं,  जिनकी देह में राष्ट्र की आत्मा का पवित्र निवास होता हैं। इन्हीं देहातियों के कारण भारतीय संस्कृति सभ्यता सैकड़ों साल  गुलामी के बाद भी आज तक सुरक्षित रही। यही वह देहात और देहाती लोग थे, जो अंग्रेजों की गोलियों को अपने सीने पर  खाकर, एक के मरने के बाद दूसरा आगे आकर स्वेच्छा से गोलियां खाने को तैय्यार रहता था। पर तिरंगे को झुकने नहीं देता  था। उस समय किसी देहाती किसान ने हाथ में पत्थर उठाकर अंग्रेज पुलिस या फौज पर नहीं फैंका। पर आज अपने को  ग्रामीण कहने वाले किसान, देश की विकृत राजनीति की गर्मी से सब्ज साज होकर, यह सिद्ध कर रहे हैं वह देहाती किसान नहीं  वह तो 'देश की विकृत राजनीति की गर्मी को धारण करने वाले 'ग्रामीण' बन गये हैं।'
 
अब आइए, समझें कि यह 'नरा' क्या होता है? यह 'टड़' कैसे जाता है, और पुराने जमाने में इसका रामबाण इलाज कैसे किया  जाता था। आज की परिस्थिति में किसान आन्दोलन का 'नरा' कहां पर है? कैसे 'टड़' गया है? और इसे कैसे ठीक किया जा  सकता है?...
 
देहाती भाषा में जिसे 'नरा' कहते हैं वह 'गर्भनाल' अर्थात umbillical cord अम्लायकल नली होती है। शिशु के प्रजनन के समय  इस नली को काट कर अलग कर दिया जाता है। हर व्यक्ति के पेट में  इसका गोल निशान बना रहता है। इसे 'नाभि' NAVEL या 'टुंडी' कहते हैं। मुझे अच्छी तरह याद है जब मैं मुश्किल से 8-9 साल का होऊंगा तो एक बार मेरे पेट में भीषण  पीड़ा हुई थी। मैं दर्द से तड़फ रहा था। मेरी नानी जो 100 फीसदी  देहाती अनपढ़ विदुषी थी, उन्होंने मुझे चटाई पर सीधा  लेटाया। एक पान का पत्ता मेरी टुंड़ी पर रखा और टुंड़ी के ठीक ऊपर आटे का दिया बनाकर उसमें थोड़ा धी-बत्ती में रखकर  जला दिया। फिर एक गोल किनोरी वाले लोटे को औंधा करके जलते हुए दिये पर पेट से चिपका कर रख दिया। थोड़ी ही देर में  मुझे लगा जैसे मेरा पेट लोटे के भीतर खिंचा चला जा रहा है। चार पांच मिनिट तक पेट लोटे के अन्दर खिचा हुआ बना रहा और जैसे ही ऊंगली से पेट दबाकर नानी ने लोटे को अलग हटाया सुर्र से आवाज हुई। जब मैं उठकर बैठा तो पेट की मरोड़  और तड़फन गायब हो चुकी थी। नानी ने मुझे बताया था कि मेरा 'नरा' टड़ गया था। इस प्रक्रिया से टड़ा हुआ 'नरा' एकदम  ठीक हो गया।
 
असली में वाक्या कुछ और था, पड़ोस के मकान में रहने वाली नीम वाली बाखल की बूढ़ी नानी ने मुझे सबेरे-सबेरे महेरी खिला  दी थी। फिर भैयालाल की दादी ने ज्वार की गरम-गरम रोटी पर मक्खन का लौंदा रखकर, नमक भुरक कर खिला दिया था।  इसके बाद मेरी शकुन बहन मुझे अपनी सहेली मोहरबाई के साथ नदी किनारे नहाने ले गई। साथ में नाई बाखल, काछी बाखल  की चार पांच किशोरिया और थी। नदी में घंटों उछलकूद करने के बाद, सबने मिलकर बहुत ही उम्दा मीठे बेर, करोंदे और पके  पके खजूर तोड़े। मैंने खूब सारे बेर, करोन्दे, खजूर ठूंस-ठूंस कर खाए। रास्ते में एक पका कबीट भी मिला मैंने आधा कबीट भी  पेट में भर लिया। मेरा पेट इतना उफर गया था कि चलने में दिक्कत होने लगी। नानी के पास आते आते तो मेरा बुरा हाल हो  गया था। नानी को समझते देर नहीं लगी कि मेरे उल्टा सीधा जरूरत से ज्यादा ठूंस-ठूंसकर खाने से कुपच हो गई है। इस  कारण 'नरा'  टड़ गया है। नानी ने उल्टे लोटे के भीतर जलते दिए को बुझाकर मेरा इलाज कर दिया। साथ में नसीहत भी दे दी  कि अब कभी जीवन में उल्टा सीधा ठूंस-ठूंस कर मत खाना।
 
नरा के टड़ जाने और किसान आन्दोलन में क्या तालमेल हो सकता है, यह एकदम आपके समझ में नहीं आएगा। पर जब मैं  तीन जून की रात को इन्दौर स्थित चोइथराम कृषि मंडी के रास्ते अपने घर आ रहा था, तो सड़क पर पड़े ढ़ेर सारे पत्थरों को  देखकर चौंक गया। देखा पास में लगी सीमेन्ट की जालियों को तोड-तोड़कर सड़क पर पटक-पटककर उपद्रवी लोग उनके एक  एक किलो से भी बड़े पत्थर बनाकर डंड़े बरसा रही पुलिस पर फैंक रहे थे। पता लगा कि यह पत्थर बरसाने वाले लड़के पास के  गांव बीजलपुर की झुग्गियों, गड़बड़ी पुलिया के पास वाली झुग्गियों और आसपास के 15-16 साल से लेकर 25-30 साल के  नौजवान थे। चश्मदीदों का कहना है कि इस प्रकार की तोड़फोड़, लूटपाट, दूध फैंकने, सब्जी लूटने का काम करने वाले लोगों में एक भी असली किसान नहीं है।
 
फिर आखिर किसानों की आड़ लेकर लूटपाट हिंसक हरकतें कौन कर रहा है? इसकी जानकारी जुटाने के लिए मैं दूसरे दिन रविवार को इन्दौर से सटी सड़कों के प्रमुख गांवों में गया और लोगों से चर्चा की। सब जगह एक ही कॉमन बात सुनने को  मिली। पानी गिरने दीजिए बुवाई शुरू हो जाएगी पूरा आन्दोलन चुपचाप ठंड़ा हो जाएगा। कुछ समझदार लोगों ने बताया 'यह  सब तो अब आगे किसी न किसी बहाने होता ही रहेगा। क्योंकि दो साल बाद चुनाव जो आने हैं।' किसान आन्दोलन से जुडे असली किसान नेताओं से मिलने की कोशिश की, पर जो किसानों के नाम पर नेतागिरी कर रहे हैं उनमें से एक भी वास्तव में किसान नहीं है।
 
मैं उस समय और भी चौंक गया जब इन्दौर के आसपास के गांवों में, मैं असली किसान और असली गांवों को देख रहा था। इन  गांवों में मुझे ऐसे सैंकड़ों घर देखने को मिले जिनका मूल्य कई करोड़ों का है। सब जगह पक्की सीमेन्ट की सड़कें, घर के बाहर  तीन तीन चार-चार  मंहगी कारें और एक एक गांव में हजारों कीमती, मोटरसाइकिलें देखने को मिली।  सभी पक्के मकानों के  ऊपर टीवी की डिश-एन्टीना, घर-घर में फ्रीज, हर किशोर युवक के हाथ में कीमती मोबाईल सेमसन या एपल का आई फोन  देखने को मिला। 
 
गांवों की समृद्धि देखकर पहिले तो सुखद अनुभूति हुई पर यह गलतफहमी जल्दी ही दूर हो गई, जब मुझे पता लगा कि इन्दौर  के आसपास के करोड़पतियों के तीस चालीस गांवों में अस्सी फीसदी लोग 'गरीबी रेखा से नीचे' बीपीएल कार्डधारी हैं। इन सब  लोगों ने अपनी अपनी जमीनें या उसका हिस्सा  करोड़ों रुपयों का मूल्य लेकर भू माफिया लोगों को बेच दिया है। इन्हीं जमीनों  पर इन्दौर की नई-नई कालोनियां और बहुमंजिल टाऊनशिप बनती जा रही है। 
 
जिन किसानों ने मंहगे दामों में जमीने बेचीं हैं, लगभग ओने-पौने दाम रजिस्ट्री में बताकर पूरा का पूरा पैसा ब्लेक में कमाया  है। अब उसी ब्लेकमनी के पैसे से करोडो रुपयों की कोठियां बना ली हैं। पर इन किसान कहे जाने वाले करोड़पति लोगों में 70  फीसदी लोग ऐसे हैं, जो खुद के खेतों की फसल के गेहूं 2500 से लेकर 3000 रुपए क्विन्टल के हिसाब से बाजार में बेचते हैं।  पर इनमें से अधिकांश लोग खुद के खाने के लिए सरकारी एक रुपए किलो का गेहूं और एक रूपये किलो का चावल लाकर खा  रहे हैं। तुर्रा यह कि मंहगी कीमतों पर फसल बेचने की मांग करने वाले लोग अपनी फसल से हुई आमदनी पर कभी भी कोई  कर या टैक्स नहीं देते हैं।
 
किसानों की यह मांग तर्क संगत हो सकती है कि कृषि की लागत मूल्य में वृद्धि हो गई है,  इस लिए समर्थन मूल्य बढ़ाया  जाए। जहां तक कीमतों  का प्रश्न है, यह  तो पूरी तरह 'मॉग और आपूर्ति' के संतुलन पर निर्भर करता है। एक समय था जब  प्याज  100 रुपए प्रति किलो से ज्यादा मंहगा हो गया था और सरकार डगमगा गई थी, उस समय कोई किसान नेता आगे  नहीं आया था  और कहा  कि हमारे प्याज की लागत मूल्य सौ रुपयों से बहुत कम है हम मंहगा प्याज नहीं बेचेंगे।
 
किसान आन्दोलन से  राजनीति में गुल्ली ड़ंड़ा खेलने वालों को शिवराज को उखाड़ने पछाड़ने का एक चोखा मौका मिल गया है।  शिवराज की जन्मपत्री में भी लगता है कुछ खोटे दिन चल रहे हैं। एक तरफ तो राहू-केतु की निगाह की तरह कमलनाथ,  सिंधिया तथा दिग्गी की तिकड़ी लगी है। दूसरी तरफ उनकी पार्टी की भीतरी घात में उनके अपने कहे जाने वाले लोग, आंख  मिचौनी खेलकर, मुंह पर कुछ और पीठ पीछे कुछ, की छुपा-छुपी का खेल कर रहे हैं। दबी जवान उनके अपने संघ के हमदर्द  कानाफूसी करके बता रहे हैं कि नर्मदा नदी उत्थान प्रोग्राम में सीएम ने जिन हजार करोड़ रुपयों को फूंककर वाहवाही लूटने और  'नमो नमो का महामृत्युंजय मंत्र' का पाठ किया है, उससे उनकी पूरी मेहनत पर पानी फिर गया है।
 
सिर्फ मीडिया को विज्ञापन और पीएम के गुणगानों से प्रशासन में काम नहीं चलता है। आज सरकारी तंत्र पूरी तरह पंगु हो गया  है। बड़े-बड़े आईएएस अफसर बन गए हैं 'मोम के पुतले'। एक जिले के प्रमुख अधिकारी ने  गंभीर होकर दु:खी लहजे में मुझसे  यहां तक कह दिया  कि शिवराज जी ने यह सबसे बड़ी गलती कर दी है कि 'किसान आन्दोलन में तोड़फोड़ और हिंसक  कार्यवाही करते पकड़े गए लोगों पर कोई मुकदमा दर्ज नहीं किया जाएगा'। 
 
इससे प्रशासन की ताकत और अधिक कमजोर हो जाएगी। अब अपराधी तत्व खुले आम हिंसक कार्यवाही करेंगे, लूटपाट,  आगजनी करेंगे क्योंकि अब उनको किसी का कोई खौफ नहीं रहेगा। अब ऐसे अपराधी प्रवृति के लोग नीडर होने के साथ ही  बेलगाम भी हो गए। यह लोग तो खुले आम लूटपाट, खून-खराबा करेंगे, उनका तो कोई बाल बांका नहीं कर सकेगा। एक जिला  के अफसर  ने तो व्यक्तिगत चर्चा के दौरान मुझसे यहां तक कह दिया, कि मुख्यमंत्री की दूसरी सबसे बड़ी गलती यह है कि  पुलिस गोलीबारी में मारे गए लोगों को एक एक करोड़ रुपयों का मुआवजा दिया जाएगा। हंसते हुए जिला अधिकारी ने मजाक  में कहा कि अब तो ऐसा लगता है कि 'मैं भी अपने गनमैन से कहूं कि भाई मुझे गोली मार दे, एक करोड़ का मुआवजा मिलेगा मेरी फेमिली को सफीशियंट होगा'!

शहरों में पांच दिनों से दूध-सब्जी लापता है। उपद्रवियों की हिम्मत देखिए कि चलती रेल में घुसकर महिलाओं और यात्रियों से मारपीट करते हैं। इस सब पर गजब की बात यह है कि राहुल गांधी गरीबों की जलती लाशों पर रोटियां सेंकने घटनास्थल पर जाने की कोशिश करते हैं। इसका कूटनीतिक भाषा में यही अर्थ निकलता है कि उनकी पार्टी चाहती है आन्दोलन और भड़के और दस, बी, पचास, लोग और गोलियों से मारे जाएं।
 
उपद्रवियों की गोली पत्थर एक निम्न स्तर का सरकारी नौकर सहन कर लेता होगा, पर जिस समय हमने  सीआरपीएफ या पुलिस जवान के हाथों मे जब रायफल सौंपी है तो क्या यह रायफल उसके हाथ मे हमने चूमने के लिए दी है। जब  कानून यह कहता है कि अगर कोई किसी पर हमला करता है और उस नागरिक को यह अन्देशा है कि अगर उसने अपनी रक्षा  स्वंय नहीं की तो वह मारा जाएगा। ऐसी हालात में पुलिस या  अन्य फौजी ही नही, अगर एक आम नागरिक भी होगा तो उसे  आत्मरक्षा में गोली चलाकर अपनी जान बचाने का पूरा कानूनी अधिकार है। 
 
जहां तक मन्दसौर में गोली चली और किसान मारे गए, इस प्रश्न का सबाल है, यह क्यों नहीं कहा जाता कि असामाजिक तत्व लूटपाट मारपीट करने पर आमादा थे तो जिस तरह विदेशों में जहां हमसे बेहतर प्रजातंत्र है, उन देशों में भी पुलिस कांस्टेबल या शेरीफ को पूरा अधिकार है कि वह उपद्रवी या लुटेरे को सीधे गोली मार दे। अमेरिका या यूरोप में खुले आम लूटपाट करने वालों को शूट करने के पहले किसी को डोनाल्ड़ ट्रम्प या इंग्लैंड की प्रधानमंत्री से इजाजत नहीं लेना पड़ती कि 'श्रीमान यह लुटेरा लूट रहा है मैं गोली मारू या नहीं।'
 
जिला प्रशासन और भोपाल की सरकार को किसान आन्दोलन के हिंसक हो सकने की जानकारी हो या न हो। पर बीजेपी  सरकार की रीढ़ की हड़्ड़ी कही जाने वाली  'आरएसएस' के स्वंय सेवक क्या सो रहे थे? मन्दसौर नीमच जिले के हर गांव  कस्बों में उनकी शाखाएं हैं। क्या हिंसक आन्दोलन होने के समाचार से वह अपने मुख्यमंत्री को सतर्क नहीं कर सकते थे?
 
असल में अपने को किसान घोषित करके बड़े-बड़े, किसान नेताओं ने सरकारी सुविधाओं और सब्सिडियों की मलाई इतनी हजम कर रखी है कि उनके जहन में हराम की कमाई ठूंस-ठूंस कर गले'गले तक भर गई है। अब उनका 'नरा' सच में 'टड़' गया है। अब समय आ गया है  कि जो लोग भोले भाले किसानों को भड़काकर अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं। इनको लेटाकर  इनके अपराधों के दिये को जलाकर कानून के लोटे से ढ़ककर उनकी पूरी ऑक्सीजन जला देना चाहिए। 
 
अगर इनको अभी नियंत्रित नहीं किया तो आज तो इनके  प्रायोजित असामाजिक तत्वों ने जिला कलेक्टर के साथ मन्दसौर मे मारपीट की तथा कपड़े फाड़ दिए हैं। अब आगे चलकर यही जनता की अमन चैन के दुश्मन, असामाजिक तत्व मंत्रियों और विपक्ष के बड़े नेताओं के कपड़े फाड़कर नोंचेगे, उनकी सुरक्षा में खड़ी पुलिस तमाशा देखेगी क्योंकि आपने उनके हाथों में जो बन्दूकें तो थमा दी है, वह तो चूमने के लिए हैं। अपराधियों पर गोली चलाने के लिए नहीं हैं।
 
अब तो किसान आन्दोलन से उत्पन्न समस्याओं से जूझने का एक ही तरीका शेष बचा है। जिस तरह मोदी जी ने कश्मीर में फौजी हुकमरानों को निर्णय लेने की खुली छूट दे दी है, उसी तरह फील्ड में मौजूद प्रशासकीय अफसरों को परिस्थितियों को देखकर स्वंय निर्णय लेने की आजादी देना चाहिए। अफसरों को भी अपनी जिम्मेदारी से नहीं भागना चाहिए। मन्दसौर के कलेक्टर की सबसे बड़ी गलती यह रही कि उन्होंने प्रेस को इन्टरव्यूह में बताया कि 'मैंने तो गोली चलाने का आदेश नहीं दिया था।' यह कह कर उन्होंने अपनी चमड़ी तो बचा ली, पर जिले की पुलिस का मनोबल तोड़ दिया। उसका नतीजा कलेक्टर को दूसरे दिन ही झेलना पड़ा। असामाजिक तत्व कलेक्टर को कुत्ते की तरह दौडा दौडाकर मारते रहे, दूर खड़ी पुलिस उनके फटे कपड़े देखती रही।
 
अब सरकार को ढ़िलपुल लचीला आचरण करने के बजाए सख्त और कड़क रूख अपनाना चाहिए। खुले शब्दों में ऐलान कर देना  चाहिए अब कोई 'भाईयों-बहनों मामा-भान्जियों की भाषा  नहीं चलेगी'। जो भी किसान आन्दोलनकारी कानून तोड़ते पकडा  जाएगा, उसे किसानों को दी जाने वाली सभी सरकारी सुविधाओं और सबसीडियों से बंचित कर दिया जाएगा। सरकार को   'बीपीएल' कार्डधारी  कृषकों के बीपीएल कार्डो की तत्काल जांच शुरू कर देना चाहिए। जांच शुरू होते ही आधे से ज्यादा फर्जी  कार्डधारी आन्दोलनकारी किसान चूहों की तरह अपने बिलों में घुसकर छुप जाएंगे। (ये लेखक के अपने विचार हैं)
ये भी पढ़ें
पत्तल (पातल) पर खाना खाने के 5 फायदे