एक समय था जबकि संपूर्ण एशिया में बौद्ध धर्म नेतृत्व और सत्ता के शिखर पर था। लेकिन इस्लाम के उदय के बाद छठी शताब्दी के अंत और आठवीं शताब्दी की शुरुआत तक बौद्ध धर्म दक्षिण एशिया के बहुत से राष्ट्र खो बैठा। इसमें आधा भारत भी शामिल है। वर्तमान में चीन, जापान, श्रीलंका, बर्मा, थाईलैंड, लागोस, भूटान, कोरिया, वियतनाम, ताइवान, मंगोलिया, कंबोडिया, जावा आदि बौद्ध राष्ट्र हैं।
जब से पश्चिम और मध्य एशिया में इस्लामिक आतंकवाद ने अपना विभत्स रूप दिखाना शुरू किया है तब से बौद्ध राष्ट्रों में इसको लेकर चिंता अपने चरम पर है। यही वजह है कि बौद्ध राष्ट्रों में मुस्लिमों के प्रति आक्रमक रुख भी वहां की सरकारों के लिए मुसिबतें पैदा कर रहा है।
दुनियाभर में जहां भी मुसलमान गैर-इस्लामिक देशों में रह रहे हैं वहां अब उनको देखे जाने की दृष्टि बदल गई है, खासकर बौद्ध राष्ट्रों में। हालांकि स्थानीय मुसलमानों के लिए भी यह चिंता का विषय है कि बाहरी आतंकवादी गतिविधियों का असर उनके जीवन पर भी पड़ रहा है। पिछले कुछ वर्षों में बौद्ध राष्ट्रों में हुई आतंकवादी घटनाओं ने तो इस चिंता को और बढ़ा दिया है, जिसके चलते बौद्धों में भी चरमपंथी संगठन अस्तित्व में आने लगे हैं।
पहले बौद्ध भिक्षु इस्लाम को खतराक नहीं मानते थे लेकिन कुछ जानकार कहते हैं कि अफगानिस्तान में बामियान की ऐतिहासिक बुद्ध प्रतिमाओं पर तालिबानी हमलों ने कुछ बौद्ध संप्रदायों को भड़काया और उनकी मुस्लिमों के प्रति देखने की दृष्टि बदल दी। इसके चलते ही बर्मा, श्रीलंका और थाईलैंड में हालात बदल गए हैं।
श्रीलंका : श्रीलंका के बौद्ध धर्मगुरु दिलांथा विथानागे श्रीलंका में इस्लामिक गतिविधियों के चलते खासे परेशान रहते हैं। इसी चिंता के चलते उनके बोदु बाल सेना (बीबीएस) का गठन किया जिसे चरमपंथी सिंहली बौद्ध राष्ट्रवादी संगठन माना जाता है। यह संगठन पिछले साल श्रीलंका में मुसलमानों पर हुए खूनी हमलों के लिए जिम्मेदार माना गाया है। हालांकि विथानागे ने इस बात से इनकार किया कि उनका संगठन ये सब कुछ करता है।
बीबीएस की स्थापना 2012 में जाथिका हेला उरूमाया (जेएचयू) से अलग हुए एक धड़े ने की थी। संगठन का कहना है कि बौद्ध धर्म की रक्षा के लिए इसका गठन हुआ। सेना का मुख्यालय कोलंबो के बुद्धिस्ट कल्चरल सेंटर में है।
विथानागे मानते हैं कि श्रीलंका में भी बौद्धों पर धर्मांतरण का खतरा मंडरा रहा है। मुसलमानों और अन्य अल्पसंख्यकों ने धर्मांतरण का कुचक्र चला रखा है। वे बौद्ध महिलाओं से विवाह करते हैं, उनसे बलात्कार करते हैं और वे बौद्धों की भूमि भी हड़पना में लगे हैं। सिंहली परिवारों में एक या दो बच्चे हैं, जबकि अल्पसंख्यक आधा दर्जन या इनसे ज्यादा बच्चे पैदाकर आबादी का संतुलन बिगाड़ रहे हैं। इनके पीछे विदेशी पैसा लगा हुआ है और सरकार इस मामले में कुछ नहीं कर रही है। यह संगठन अल्पसंख्यक वोट बैंक की सियासत पर सवाल उठाता आया है। इस संगठन का मानना है कि श्रीलंका में मुसलमान तेजी से मस्जिदें बनाने और अपनी जनसंख्या बढ़ाने लगा है जिसके चलते बौद्ध धर्मावलंबियों को खतरा महसूस होता है।
हालांकि मुस्लिम धर्मगुरु इन सभी आरोपों से इनकार करते हैं।
शिनजियांग : चीन का प्रांत शिनजियांग एक मुस्लिम बहुल प्रांत है। जबसे यह मुस्लिम बहुल हुआ है तभी से वहां के बौद्धों, तिब्बतियों आदि अल्पसंख्यकों का जीना मुश्किल हो गया है। अब यहां छोटे-छोटे गुटों में आतंकवाद पनप चुका है, जो चीन से आजादी की मांग करते हैं। हालांकि हर वो चीज जिससे देश को खतरा महसूस हो, चीन उसे रोकने में देर नहीं लगाता, फिर चाहे उस पर दुनिया में कितना ही बवाल मचे या उसका विरोध हो। चीन ने जिस सख्ती के साथ वहां आतंकवाद को कुचला है उसकी कोई निंदा नहीं करता है।
हाल ही में हुए धर्म सम्मलेन में कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ चाइना के जनरल सेक्रेटरी और राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने अपने देशवासियों को चेतावनी देते हुए कहा कि वे चीन की स्टेट पॉलिसी 'मार्क्सवादी नास्तिकता' का अनुसरण करें और इस्लामी विचारधारा का अनुसरण न करें। यह कितनी हास्यापद बाद है कि पाकिस्तान ने उस चीन से हाथ मिला रखा है, जो ईश्वर को नहीं मानता है। ऐसा उसने सिर्फ इसलिए कर रखा है ताकि वह भारत से कश्मीर मामले में मुकाबला कर सके।
चीन के शिनजियांग प्रांत में रहने वाले उइगर समुदाय के लोग इस्लाम धर्म को मानते हैं। पिछले कुछ वर्षों के दौरान उइगरों द्वारा चीनी सरकार का विरोध काफी बढ़ा है। शिनजियांग की सीमा पाकिस्तान से लगती है, जहां से कट्टरपंथी इस्लामी शिक्षाओं का प्रसार होता है। चीन पहले ही पाकिस्तान को शिनजियांग में इस्लामी शिक्षाओं प्रचार-प्रसार को रोकने की चेतावनी देता रहा है। शिनजियांग में उइगर मुस्लिमों की आबादी 1 करोड़ से ज्यादा है जिन्हें तुर्किस्तान का मूल निवासी माना जाता है। चीन ईस्ट तुर्किस्तान इस्लामिक मूवमेंट को आतंकवादी संगठन मानता है।
उइगर मुस्लिम नेता डोल्कुन ईसा पर शिनजियांग में कट्टरवाद फैलाने के आरोप हैं। चीन के अनुसार यह नेता मुस्लिम बहुल जिनजियांग प्रांत में इस्लामिक आतंकवाद का समर्थक है। जर्मनी में रह रहे डोल्कुन ईसा को चीन एक आतंकी घोषित कर चुका है और उसकी मांग पर ईसा के खिलाफ रेड कॉर्नर नोटिस जारी है। सन् 1985-89 के बीच जिनजियांग यूनिवर्सिटी में छात्र नेता के रूप में डोल्कुन ने लोगों को भड़काने का कार्य शुरू किया था। 1997 में चीन की सख्ती के चलते वह यूरोप भाग गया और 2006 में उसे जर्मनी की नागरिकता मिल गई। वहां रहकर इसने चीन से बाहर रह रहे उइगर मुस्लिमों के ग्रुप wuc को ज्वॉइन किया और उसका महासचिव बन गया।
थाईलैंड : श्रीलंका, म्यांमार, कंबोडिया और थाईलैंड वैसे तो बौद्ध राष्ट्र हैं लेकिन यहां के मुस्लिम बहुल क्षेत्र में अब तनाव बढ़ने लगा है। श्रीलंका में कटनकुड़ी नगर मुस्लिम बहुल बन चुका है तो म्यांमार का अराकान प्रांत बांग्लादेश के रोहिंग्या मुस्लिमों से आबाद है। कंबोडिया, थाईलैंड में सबसे ज्यादा तनाव है। संसार का एक बहुत बड़ा भाग बौद्ध मतावलंबी है। जापान को छोड़कर (चीन, वियतनाम आदि देश कम्युनिस्ट है यद्यपि वहां भी बौद्ध मतावलंबी काफी संख्या में हैं) श्रीलंका, म्यांमार और थाईलैंड आदि सभी देशों में ये जिहादी आतंकवादी अब सक्रिय होने लगे हैं।
जहां मिली-जुली आबादी हो और मुसलमानों का बहुमत हो वहां अल्पसंख्यकों के प्रति उनका रवैया एक जैसा ही होता है। यानी पहले अपने उग्र रवैये से सामाजिक और मानसिक दबाव बनाना, फिर मार-काट और अंत में अल्पसंख्यकों को खदेड़कर शत-प्रतिशत इस्लामी क्षेत्र बना लेना। थाईलैंड में इसी के चलते वहां 3 दक्षिणी प्रांत- पट्टानी, याला और नरभीवाट- मुस्लिम बहुल (लगभग 80 प्रतिशत) हो चुके हैं।
इन 3 प्रांतों में अल्पसंख्यक बौद्धों की हत्याएं और भगवान बुद्ध की मूर्तियों को तोड़ना, सुरक्षा बलों से मुठभेड़, बौद्ध भिक्षुओं पर हमले, थाई सत्ता के प्रतीकों, स्कूलों, थानों, सरकारी संस्थानों पर हमले और तोड़फोड़, निहत्थे दुकानदारों और बाग मजदूरों की हत्या एक आम बात हो गई थी। ये लोग अपनी दुकानें और संपत्ति छोड़कर या कौड़ियों के मोल बेचकर बड़े शहरों की ओर भागने लगे।
थाईलैंड के मुसलमानों ने थाई भाषा और जीवन प्रणाली को अंगीकार करने और थाई लोगों से घुल-मिलकर रहने की बजाय पड़ोसी मुस्लिम देश मलेशिया से अपनी निकटता बनाई और मलय भाषा को अपनाकर वे अपने को एक पृथक राष्ट्र के रूप में उजागर करने लगे। थाईलैंड में अल कायदावाद का मूल हथियार बनी है इंडोनेशिया आधारित 'जेमाह जमात इस्लामियाह', जिसके गुट अलग-अलग नामों से प्राय: सभी 'आसियान' देशों में फैले हुए हैं। इनका एक ही उद्देश्य है- गैर-मुस्लिमों का सफाया और गैर-मुस्लिम सत्ता से सशस्त्र संघर्ष।
थाईलैंड में 2004 का वर्ष काफी उपद्रवग्रस्त रहा। बात 28 अप्रैल 2004 की है। पट्टानी प्रांत में उस दिन उन्मादभरे मुस्लिम जवानों ने सेना से संघर्ष किया। इस भिड़ंत में 100 उन्मादी तत्व और 10 सैनिक मारे गए और 16 को सैनिकों ने बंदी बना लिया। किंतु अभी संघर्ष चल ही रहा था कि बचे हुए 32 मुस्लिमों ने जाकर एक पुरानी मस्जिद में शरण ले ली और वहां से लड़ाई जारी रखी। जब 6 घंटे तक भी इन लोगों ने हथियार नहीं डाले तो सैनिक मस्जिद में घुस गए और सभी को गोली से उड़ा दिया।
जब 2004 में करीब 10 महीनों तक मुस्लिम बहुल दक्षिण प्रांतों में उपद्रव नहीं रुके तो प्रधानमंत्री सहित देश के सभी वर्गों के 930 सदस्यों के शिष्टमंडल ने महारानी सिरीकित से भेंट की और इस पर विचार करने को कहा। तब से एक नीति के तहत संघर्ष जारी है और इस संघर्ष के बीच इस्लामिक आतंकवादियों द्वारा भी एक के बाद एक किए जाने वाले बम विस्फोट भी जारी है।
म्यांमार : म्यांमार में बौद्ध धर्म कमोबेश उतना ही प्राचीन है जितना दूसरे दक्षिण पूर्व एशियाई देशों में। श्रीलंका की ही तरह म्यांमार में भी बौद्धों का सत्ता राजनीति में दखल और कभी प्रत्यक्ष कभी परोक्ष वर्चस्व रहा है। म्यांमार में बहुसंख्यक बौद्ध आबादी को रोहिंग्या मुसलमान खटकते हैं। खटकने के कई कारण है जिसमें से एक यह है कि उन्हें बांग्लादेशी माना जाता है और उन पर बांग्लादेश के कट्टरपंथी मुस्लिम संगठनों से जुड़े होने के आरोप भी है। बांग्लादेश में बौद्धों पर लगातार हुए हमले की प्रतिक्रिया में बार्मा में यह हिंसक युग शुरु हुआ। बांग्लादेश में चकमा पर्वतों के बौद्ध आदिवासियों को अपनी जमीन मुस्लिम आप्रवासियों को देनी पड़ी और हजारों बौद्धों को अब वहां से पलायन करना पड़ रहा है।
यही सब कारण है कि बौद्ध भिक्षु उन्हें देश से चले जाने की धमकियां देते हैं। भिक्षु मानते हैं कि ये हमारे देश और धर्म के लिए खतरा हैं। इसी के चलते 1995 से मुसलमानों के खिलाफ बाकायदा योजनाबद्ध हमले बढ़े हैं और रह रह कर उन्हें जमीन और जिंदगी से बेदखल किया जाता रहा है। ठीक उसी तरह जिस तरह की कश्मीर में कश्मीरी पंडितों को किया गया।
रोहिंग्या मुस्लिम प्रमुख रूप से म्यांमार (बर्मा) के अराकान (जिसे राखिन के नाम से भी जाना जाता है) प्रांत में बसने वाले अल्पसंख्यक मुस्लिम लोग हैं जो सुन्नी इस्लाम को मानते हैं। म्यांमार में करीब 10 लाख रोहिंग्या मुस्लिम बेघर हो चुके हैं। कुछ हजार मुसलमानों ने भारत में शरण ले रखी है जबकि बांग्लादेश जैसे मुसलिम देशों ने इन मुसलमानों को शरण देने से इनकार कर दिया है।
रहाइन स्टेट में ही धार्मिक हिंसा के शिकार रोहिंग्या मुसलमानों को कैंप में शिफ्ट किया गया है। इसकी प्रतिक्रिया में भारत के बोधगया में बम विस्फोट किए गए जिसके चलते बौद्ध और भड़क गए।
रोहिंग्या मुसलमानों को मुश्किल उस वक्त और बढ़ गई जब पाकिस्तानी आतंकवादी हाफिस सईद ने उन्हें आतंकवादी संगठन में शामिल करने की बात कही। सबसे बड़ी समस्या रोहिंग्या विस्थापितों के इस्लामी हमदर्दों की है, जो पाकिस्तान के अपने सुरक्षित अड्डों में बैठकर उनकी दुर्दशा को 'इस्लाम-विरोधी अंतरराष्ट्रीय षड्यंत्र' की तरह पेश करते हैं।
बांग्लादेश में हाल ही में चटगांव के करीब दक्षिण पूर्व के शहर में मुस्लिम प्रदर्शनकारियों ने 11 बौद्ध मंदिरों को जला डाला और दो अन्य को क्षतिग्रस्त कर दिया। हजारों की संख्या में मुस्लिम सड़कों पर उतर आए और मंदिरों और पड़ोस के बौद्ध इलाकों पर हमला कर दिया। इसके कारण स्थानीय बौद्ध अल्पसंख्यक अपने घरो में छिप गए लेकिन कोई सुरक्षा नहीं होने के कारण कम से कम 30 बौद्ध घरों में लूटपाट की गई।
वियतनाम और कंबोडिया भी राष्ट्र बौद्ध राष्ट्र है। दोनों को ही एक ओर जहां चीन से खतरा है वही दूसरी और मलेशिया, इंडोनेशिया जैसे देश भी वहां खतरा पैदा करने में लगे हुए हैं। दुनियाभर के बौद्ध राष्ट्रों के बौद्ध कट्टरपंथियों का अरोप है कि ईरान और सऊदी अरब यहां के स्थानीय मुसलमानों की मदद करके उन्हें देश के खिलाफ भड़काने का काम करता है। ईरान और सऊदी अरब से धन आता है और उस धन का उपयोग मस्जिद बनाने और व्यापार खड़ा करने में किया जाता है। ऐसा आरोप है कि वर्तमान में थाईलैंड में सऊदी अरब की मदद से आतंक बढ़ा है।
इंडोनेशिया, मलेशिया, बांग्लादेश, पाकिस्तान, अफगानिस्तान आदि मुस्लिम राष्ट्रों में अल्पसंख्यक बौद्ध लोगों का अस्तित्व खतरे में है। उनके स्तूप, मंदिर और उनकी आबादी पर लगातार हमले होते रहते हैं। इस सब के चलते बौद्ध राष्ट्रों में भी मुस्लिमों के प्रति नफरत बढ़ने लगी है।
जापान : सरकारी आंकड़ों के अनुसार, जापान में केवल ढाई लाख मुसलमान हैं। जापान में जापानी भाषा ही सर्वोपरि है। वहां कोई इस्लामी या अरबी मदरसा नहीं खोल सकता है। जापान में आज जितने भी मुसलमान हैं उनमें अधिकांशत: तुर्की के हैं। जबसे दुनिया में आतंकवाद की जिहादी लहर चली है, जापानी बहुत सतर्क हो गए हैं।
- एजेंसियां