- सौरव शर्मा
हिन्दी-हिन्दू-हिन्दुस्तान हमारे क़दम तो बढ़े थे यही बोलते हुए पर अन्य भाषाएं मिलती गईं और हम हमारी मंज़िल बदलते गए। कुछ ही वक़्त पश्चात कोस कोस दूर की भाषा अस्तित्व में आती गईं। हिन्दी में एक कहावत है 'कोस-कोस पर पानी बदले चार कोस पर बानी'।
हम अक्सर यह कहावत गर्व के साथ कहते हैं पर क्या यह सत्य नहीं कि इसी वजह से हम संकुचित विचारधारा वाले रहे। शायद हम इसी में फंसे हैं और निकलने का रास्ता भी मालूम नहीं। क्या भाषाओं का अपने चार कोस में सिमटे रहना हमारे लिए गर्व की बात है?
सस्यूर के मुताबिक भाषा केवल ध्वनियों के बीच का अंतर नहीं बल्कि विचारों की असमानता का भी सूचक है। यही विचारों की असमानता हमारी वैचारिक प्रगति की चालक है। भाषाओं का एकीकरण जहां हमें पिछड़ेपन से मुक्ति दिला सकता है, वहीं हमारी वैचारिक भिन्नता का नाश कर सकता है। परसाई जी ने हमें इसी पिछड़ी हुई मानसिकता के ख़िलाफ़ आगाह किया था। उन्होंने लिखा था कि हिंदी भाषा का विकास तब तक संभव नहीं है जब तक हम लोक भाषाओं और उर्दू को न अपनाएं। सामंतवादी सोच रखने वाले लोक भाषाओं को हिंदी में जगह नहीं देना चाहते और हिन्दुत्ववादी उर्दू के खिलाफ हैं। सबसे दुखद बात यह है कि भाषा के ये भक्षक ही हमारी संस्कृति के रक्षक भी बने हुए हैं।
भाषा के संदर्भ में इस बात को समझना नितांत आवश्यक है कि भाषाएं ज्ञान का समग्र रूप हैं। और पुरानी कहावत के मुताबिक़ ज्ञान बांटने से ही बढ़ता है न कि कैद करने से या सामने वाले पर थोपने से। भाषाओं के रक्षक जहां अविकास का रास्ता इख़्तियार करते नज़र आ रहे हैं, हमें विकास का रास्ता अपनाना होगा।
हिंदी में उर्दू और लोक भाषाओं के अलावा आज इंटरनेट की डिजिटल भाषा का प्रवेश नितांत आवश्यक है। हमारे समय में बढ़ती डिजिटल क्रांति ने भाषाओं के उन्मूलन की गहरी संभावना हमारे सामने रखी है। हिंदी की रक्षा के लिए तीर कमान निकालने वालों की संख्या की तुलना अगर हिंदी विकिपीडिया में योगदान देने वालों की संख्या से की जाए तो वास्तविकता सामने आती है। इंटरनेट पर उपयोगकर्ताओं की संख्या की बात करें तो भारतीयों की संख्या दूसरी है, मगर इसी इंटरनेट पर इस्तेमाल की जा रही शीर्ष तीस भाषाओं में कोई भारतीय भाषा मौजूद नहीं है। यानी तमाम भारतीय भाषाएं मिलकर भी इंटरनेट का 0.1% कंटेंट भी नहीं उपजा पा रही हैं। इसकी तुलना रूसी (5.9%) या जर्मन (5.8%) भाषा से की जाए तो हमारी दयनीय स्थिति का पता चलता है।
फेसबुक, गूगल वगैरह भारत में इंटरनेट का विस्तार करने पर ध्यान दे रहे हैं, मगर भाषाओं पर ध्यान नहीं दिया जा रहा। ये गांव-गांव जाकर अंग्रेजी सिखाएंगे। हम इसके खिलाफ नहीं हैं, मगर हिंदी और बाकी भारतीय भाषाएं अगर तकनीकी क्रांति की बलिवेदी पर कुर्बान हो जाती हैं तो इनके साथ साहित्य, ज्ञान, दृष्टि और वैचारिकता के बड़े कोष भी लुप्त होते चले जाएंगे। भारतीय सरकार भी ‘डिजिटल इंडिया’ की मुहिम में भाषाओं को दरकिनार करती नज़र जा रही है। अगर हिंदी और बाकी भारतीय भाषाओं को डिजिटल मीडिया के समय में आगे निकलना है तो इस स्थति को बदलना होगा।
डिजिटल मीडिया के दौर में प्रवेश करने के बाद भी भाषाओं की मुश्किलें ख़त्म नहीं होंगी। अंग्रेजी से हिंदी के अनुवाद क्षेत्र में गूगल का एकाधिकार है। मगर इनके सॉफ्टवेयर को अभी लम्बा रास्ता तय करना है। रूसी, चीनी और जापानी भाषाओं की तुलना में गूगल के हिंदी प्रारूप की स्थिति खराब ही है। इसी तरह जब अंग्रेजी में टाइप की गई भाषा का शब्दशः अनुवाद जब हिंदी में किया जाता है तो हम वर्तनी के भी लिए गूगल पर निर्भर हो जाते हैं। धूप, धूल जैसे शब्दों की वर्तनी गूगल पिछले कई सालों से धुप और धुल लिखता आ रहा है। डर इस बात का है कि ये शब्द कुछ साल और गलत ही रहे तो डिक्शनरी को अपनी वर्तनी में बदलाव लाने पड़ेंगे।
डिजिटल संसार की ताक़त को कम आंकना हमारी गलती है। गूगल को हमारी भाषा समझने में अभी थोड़ा समय और लगेगा। हम साले लिखना चाहते हैं और गूगल ट्रांसलेटर सेल लिख देता है। सारी को साड़ी लिख देता है। यहां भी बाजार का ही खेल है। लुडविग विट्गेंस्टाइन ने कहा था– ‘मेरी भाषा की सीमा मेरे संसार की सीमा है। कार्ल मार्क्स ने ‘जर्मन आइडियोलॉजी’ में लिखा है कि भाषा मानव चेतना जितनी ही पुरानी है। भाषा हमारी स्मृति है।
डॉ. रामविलास शर्मा लिखते हैं कि निराला के भी लिए भाषा-द्वंद्व क्लिष्ट या सरल होने के बीच नहीं बल्कि जीवन संग्राम के अनुकूल अथवा प्रतिकूल होने के बीच था।
भारतीय भाषाओं को अभी लम्बा सफर तय करना है। भाषाएं मिलकर एक दूसरे को समृद्ध करते हुए या तो आगे बढ़ सकती हैं या एक दूसरे से उलझकर कमज़ोर पड़ सकती हैं। डिजिटल संसार में भी हमारी भाषाओं को लाने की कोशिश को ज़ोर पकड़ना होगा। इस दिशा में लेखक, पाठक और बुद्धिजीवियों को पहल करने की ज़रुरत है।
(लेखक युवा उद्ममी हैं)