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Written By अनिल जैन
Last Updated : सोमवार, 11 जुलाई 2022 (19:11 IST)

राष्ट्रपति चुनाव: विपक्ष ने उम्मीदवार चयन में ही नैतिक हार मान ली

राष्ट्रपति चुनाव: विपक्ष ने उम्मीदवार चयन में ही नैतिक हार मान ली - In the presidential election, the opposition conceded a moral defeat in the candidate selection itself
राष्ट्रपति पद के लिए सत्ताधारी पक्ष की उम्मीदवार द्रौपदी मुर्मू का चुना जाना तय है। उनकी जगह भाजपा किसी और को भी उम्मीदवार बनाती तो उसके जीतने में भी कोई समस्या नहीं आती। लेकिन प्रतीकों की राजनीति करने में माहिर भाजपा ने द्रौपदी मुर्मू को उम्मीदवार बनाकर जहां एक ओर यह जताने की कोशिश की है कि वह आदिवासियों की परम हितैषी है, वहीं उसने इस बहाने विपक्षी खेमे में सेंध लगाकर कुछ क्षेत्रीय पार्टियों का समर्थन भी द्रौपदी मुर्मू के लिए हासिल कर लिया।
 
इस सबके अलावा सबसे बड़ी बात यह है कि उसने 2024 के लोकसभा चुनाव के मद्देनजर ओडिशा, पश्चिम बंगाल और झारखंड में राजनीतिक जमीन को मजबूत करने का दांव भी चला है, क्योंकि इन राज्यों में संथाल जाति के आदिवासी बड़ी संख्या में निवास करते हैं और द्रौपदी मुर्मू भी इसी समुदाय से आती हैं।
 
लेकिन भाजपा के बरअक्स विपक्षी पार्टियों ने अपने उम्मीदवार का चयन करने में ज्यादा सोच-विचार नहीं किया। ले-देकर उन्हें सिर्फ गोपालकृष्ण गांधी का ही नाम याद आया, जो पिछली बार उपराष्ट्रपति के चुनाव में विपक्ष के उम्मीदवार थे। इस बार जब उन्होंने इंकार कर दिया तो एचडी देवेगौड़ा, शरद पवार और फारुक अब्दुल्ला जैसे निस्तेज नामों पर विचार किया गया था लेकिन इन तीनों ने भी जब इंकार कर दिया तो ममता बनर्जी के सुझाव पर उनकी पार्टी के नेता यशवंत सिन्हा को उम्मीदवार बना दिया गया।
 
मगर यशवंत सिन्हा की पालकी के कहार बने विपक्षी दलों से यह सवाल तो पूछा ही जा सकता है कि आखिर यशवंत सिन्हा को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाने का औचित्य या आधार क्या है? क्या उन्होंने सिर्फ इसलिए विपक्ष का चेहरा बनने की पात्रता हासिल कर ली है कि अब वे भाजपा छोड़ चुके हैं और भाजपा सरकार के खिलाफ लगातार बयान देते रहे हैं?
 
आज जो पार्टियां विपक्ष में हैं, वे लगभग सभी 20 साल पहले भी विपक्ष में थीं और अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में यशवंत सिन्हा वित्तमंत्री व विदेश मंत्री थे। कांग्रेस, वामपंथी और समाजवादी पृष्ठभूमि की पार्टियों को याद करना होगा कि उन्होंने तब यशवंत सिन्हा पर कैसे-कैसे आरोप लगाए थे। क्या भाजपा छोड़ देने के बाद वे उन आरोपों से मुक्त हो गए?
 
विपक्षी पार्टियां आरोप लगाती हैं कि कोई भी आरोपी जैसे ही भाजपा में शामिल होता है, वह पवित्र हो जाता है तो वैसे ही क्या विपक्ष की नजर में भाजपा छोड़ने पर भी आरोपी पवित्र हो जाते हैं? यशवंत सिन्हा ने केंद्र में मंत्री रहते गुजरात दंगों पर कभी अपना मुंह नहीं खोला। यह भी कौन भूल सकता है कि 2012-13 के दौरान भाजपा के जो नेता नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाने की मुहिम छेड़े हुए थे, उनमें यशवंत सिन्हा भी एक थे। उनके वित्तमंत्री रहते हुए जो आर्थिक घोटाले हुए, वह भी कम महत्वपूर्ण मामला नहीं है।

 
यशवंत सिन्हा के वित्तमंत्री रहते यूटीआई घोटाला हुआ था। वह ऐसा घोटाला था जिसमें सरकारी खजाने की बजाय सीधा नुकसान आम आदमी को हुआ था। करीब 20 हजार करोड़ रुपए के उस घोटाले की जांच के लिए संयुक्त संसदीय समिति बनी थी और उस संयुक्त संसदीय समिति ने अपनी मसौदा रिपोर्ट में इस घोटाले की जिम्मेदारी यशवंत सिन्हा पर डाली थी।
 
आज के विपक्ष के कई बड़े नेता उस संयुक्त संसदीय समिति की जांच में शामिल थे। टैक्स हैवेन देशों से पैसे की राउंड ट्रिपिंग को लेकर भी उस समय उन पर कई आरोप लगे थे। कहने की आवश्यकता नहीं कि यशवंत सिन्हा को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाकर विपक्ष ने अपने नैतिक और वैचारिक दिवालिएपन को ही उजागर किया है।
 
यह सही है कि इस समय देश में विपक्ष बेहद कमजोर स्थिति में है और विभिन्न कारणों से बंटा हुआ भी है। हालांकि राष्ट्रपति के निर्वाचक मंडल यानी संसद के दोनों सदनों और 2 केंद्र शासित प्रदेशों सहित कुल 30 राज्यों की विधानसभाओं में उसका संख्याबल सत्ताधारी पक्ष के मुकाबले ज्यादा कमजोर नहीं है फिर भी वह इस स्थिति में नहीं है कि राष्ट्रपति पद पर अपनी पसंद के उम्मीदवार को जितवा सके।
 
लेकिन इसके बावजूद अगर वह चाहता तो इस सर्वोच्च संवैधानिक पद के लिए किसी साफ-सुथरी छवि के प्रतिष्ठित व्यक्ति को अपना उम्मीदवार बनाकर सत्ताधारी पक्ष के मुकाबले अपनी नैतिक बढ़त बना सकता था। लेकिन उसने यशवंत सिन्हा जैसे औसत दर्जे के नेता को उम्मीदवार बनाकर सत्ताधारी पार्टी के मुकाबले अपनी नैतिक और वैचारिक हार मान ली।
 
इसमें कोई दो मत नहीं कि राष्ट्रपति के चुनाव में हमेशा ही सत्तापक्ष का उम्मीदवार ही जीतता रहा है, इसके बावजूद विपक्ष ने पहले कभी ऐसा कोई उम्मीदवार मैदान में नहीं उतारा जिसके साथ कई विवाद और गंभीर आरोप नत्थी हो। राष्ट्रपति पद के लिए 1952 में जब पहली बार चुनाव हुआ तब तो संसद और विधानसभाओं में संख्याबल के लिहाज से विपक्ष आज के मुकाबले भी बेहद कमजोर था, लेकिन उसने डॉ. राजेंद्र प्रसाद के मुकाबले संविधान सभा के सदस्य रहे प्रसिद्ध अर्थशास्त्री केटी शाह को अपना उम्मीदवार बनाया था।
 
राष्ट्रपति पद के लिए 1957 में दूसरे और 1962 में हुए तीसरे चुनाव में सत्तापक्ष के उम्मीदवार क्रमश: डॉ. राजेंद्र प्रसाद और डॉ. राधाकृष्णन के खिलाफ विपक्ष ने अपना उम्मीदवार खड़ा नहीं किया था। 1967 में चौथे राष्ट्रपति के लिए हुए चुनाव में सत्तापक्ष के डॉ. जाकिर हुसैन के खिलाफ विपक्ष ने सुप्रीम कोर्ट के पूर्व प्रधान न्यायाधीश कोटा सुब्बाराव को अपना उम्मीदवार बनाया।
 
जाकिर हुसैन का अपने कार्यकाल के दूसरे ही साल में निधन हो जाने की वजह से 1969 में राष्ट्रपति पद के लिए 5वां चुनाव हुआ जिसमें सत्तारूढ़ कांग्रेस के आधिकारिक उम्मीदवार नीलम संजीव रेड्डी थे और उनके खिलाफ तत्कालीन उपराष्ट्रपति वीवी गिरि निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में मैदान में उतरे थे। उस चुनाव में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने अपनी पार्टी के आधिकारिक उम्मीदवार का समर्थन न करते हुए परोक्ष रूप से वीवी गिरि का समर्थन किया और सभी सांसदों से अंतरात्मा की आवाज पर वोट देने की अपील की। कई विपक्षी दलों ने भी वीवी गिरि को समर्थन दिया।
 
1974 में 6ठे राष्ट्रपति के रूप में फखरुद्दीन अली अहमद का चुनाव भी एकतरफा रहा था, लेकिन विपक्ष ने उनके खिलाफ साफ-सुथरी छवि के विद्वान सांसद त्रिदिब चौधरी को मैदान में उतारा था, जो रिवॉल्यूशनरी सोशलिस्ट पार्टी के नेता थे। फखरुद्दीन अली अहमद का निधन भी अपने कार्यकाल के दौरान ही 1977 में हो गया जिसकी वजह से नए राष्ट्रपति का चुनाव 1977 में ही कराना पड़ा।
 
7वें राष्ट्रपति चुनाव के समय केंद्र में सत्ता परिवर्तन हो चुका था। 5 दलों के विलय से बनी जनता पार्टी सत्ता में थी और कांग्रेस विपक्ष में। इस चुनाव में जनता पार्टी ने नीलम संजीव रेड्डी को अपना उम्मीदवार बनाया था जिन्हें कांग्रेस ने भी अपना समर्थन दिया था। यह एकमात्र ऐसा चुनाव रहा जिसमें राष्ट्रपति निर्विरोध चुने गए।
 
1982 में 8वें राष्ट्रपति के चुनाव के वक्त कांग्रेस की सत्ता में वापसी हो चुकी थी। ज्ञानी जैल सिंह कांग्रेस के उम्मीदवार थे जबकि विपक्ष ने सुप्रीम कोर्ट से इस्तीफा देने वाले जस्टिस एचआर खन्ना को अपना उम्मीदवार बनाया था।
 
1987 में 9वें राष्ट्रपति के चुनाव में कांग्रेस के आर. वेंकटरमण के खिलाफ भी विपक्ष ने सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश और प्रतिष्ठित विधिवेत्ता वीआर कृष्ण अय्यर को मैदान में उतारा था। 1992 10वें राष्ट्रपति के लिए हुए चुनाव में डॉ. शंकर दयाल शर्मा सत्तापक्ष के उम्मीदवार थे और विपक्ष ने उनके खिलाफ मेघालय के वरिष्ठ सांसद और लोकसभा के डिप्टी स्पीकर रहे प्रो. जीजी स्वेल को अपना उम्मीदवार बनाया था। 1997 में 11वें राष्ट्रपति चुनाव में केआर नारायणन सत्तापक्ष और विपक्ष के संयुक्त उम्मीदवार थे और उनके खिलाफ पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त टीएन शेषन निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में मैदान में उतरे थे जिन्हें शिवसेना ने समर्थन दिया था।
 
साल 2002 में 12वें राष्ट्रपति चुनाव के समय कांग्रेस विपक्ष में थी और भाजपा नीत एनडीए की सरकार थी। एनडीए ने डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम के नाम पर वामपंथी दलों के अलावा सभी पार्टियों को सहमत कर लिया था। वामपंथी दलों ने नेताजी सुभाष चंद्र बोस की सहयोगी रहीं कैप्टन लक्ष्मी सहगल को अपना उम्मीदवार बनाया था।
 
2007 13वें राष्ट्रपति का जब चुनाव हुआ तब कांग्रेस अपने सहयोगी दलों के साथ सत्ता में वापसी कर चुकी थी। उसने प्रतिभा पाटिल को अपना उम्मीदवार बनाया था जिनके खिलाफ विपक्ष ने तत्कालीन उपराष्ट्रपति भैरोंसिंह शेखावत को मैदान में उतारा था। 2012 में 14वें राष्ट्रपति के चुनाव में प्रणब मुखर्जी सत्तापक्ष के उम्मीदवार थे और विपक्ष ने उनके खिलाफ पूर्व लोकसभा अध्यक्ष पीए संगमा को अपना उम्मीदवार बनाया था। 2017 15वें राष्ट्रपति चुनाव के समय भाजपा सत्ता में आ चुकी थी और उसने रामनाथ कोविंद को अपना उम्मीदवार बनाया था जबकि विपक्ष की ओर पूर्व लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार मैदान थीं।
 
इस प्रकार राष्ट्रपति पद के लिए अब तक हुए सभी चुनावों में सिर्फ 4थे और 5वें चुनाव को छोड़कर बाकी सभी चुनाव एकतरफा ही रहे। लेकिन विपक्ष ने सभी चुनावों में साफ-सुथरी छवि के व्यक्तियों को ही अपना उम्मीदवार बनाया, भले वे राजनीतिक रहे हों या गैरराजनीतिक। अलबत्ता सत्तापक्ष के कतिपय उम्मीदवारों के साथ जरूर कुछ विवाद या आरोप जुड़े रहे। लेकिन इस बार पहला मौका है, जब विपक्ष ने ऐसे नेता को उम्मीदवार बनाया है जिसका नैतिक और वैचारिक धरातल बेहद कमजोर है और कई आरोप उस पर चस्पा हैं।
 
(इस लेख में व्यक्त विचार/ विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/ विश्लेषण 'वेबदुनिया' के नहीं हैं और 'वेबदुनिया' इसकी कोई जिम्मेदारी नहीं लेती है।)
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