ये क्रांति योद्धा 1959 में हिंदुस्तान आया था। एक ऐसी यात्रा जो ऐतिहासिक और परिवर्तनकारी हो सकती थी। भारत के लिए भी और दुनिया के लिए भी। पर पता नहीं क्यों इसे ना तब महत्व दिया गया और ना ही इसको इतिहास के पन्नों पर उचित न्याय मिला। 2007 में वरिष्ठ पत्रकार और जनसत्ता के संपादक ओम थानवी ने अपनी क्यूबा यात्रा के दौरान इसका एक सिरा तलाशा और फिर भारत आकर भी काफी शोध के बाद कास्त्रो कि उस यात्रा के संदर्भ में अहम तथ्य जुटाए।
सांस्कृतिक बहुलता के ठप्पे वाला काला बस्ता मेरी गोद में था। उस संगोष्ठी में मिला था, जिसके बहाने क्यूबा (स्पानी में कूबा) गए थे। उसे सिर पर रखा और गाड़ी से निकल कर तेजी से भागा। पीछे दुलकी चाल से कवि केकी दारूवाला आए, जो इस बात पर हैरान थे कि गांधी का मुरीद चे के घर जाने को इतना बेचैन क्यों है!
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