1947 से 1991 तक हमारी औद्योगिक क्रांति का दम घोंटने वाला पुरातन केंद्रीयकृत, अफसरशाही राज्य धीरे-धीरे ही सही, मगर निश्चित रूप से अस्त होने की ओर अग्रसर है। अधिकांश भारतीय भारत की आध्यात्मिकता और गरीबी को तो अपनी सहज बुद्धि से समझ जाते हैं, लेकिन हम इस शांत सामाजिक एवं आर्थिक क्रांति के महत्व को नहीं समझ पा रहे। यह परिवर्तन आंशिक रूप से सामाजिक लोकतंत्र और वोट के जरिए पिछड़ी जातियों के उभार पर आधारित है।
लेकिन इससे भी अधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि यह भारत द्वारा पिछले 25 वर्षों से दर्ज की जा रही उच्च आर्थिक विकास दर पर आधारित है। देश ने 1980 से 2002 तक 6 प्रतिशत की वार्षिक विकास दर दर्ज की, जो 2003 से 2006 तक 8 प्रतिशत रही। यह उच्च विकास दर हर वर्ष एक प्रतिशत गरीबों को गरीबी से बाहर ला रही है। इस प्रकार 25 वर्षों में करीब 20 करोड़ लोग गरीबी से मुक्ति पा चुके हैं।
इस उच्च विकास दर ने मध्यम वर्ग के आकार को भी तीन गुना बढ़ाकर 30 करोड़ कर दिया है। यदि यही क्रम जारी रहता है, तो भारत की आधी आबादी अगली एक पीढ़ी के आते-आते ही मध्यम वर्ग में होगी। सच पूछा जाए, तो यह 'खामोश क्रांति' राजनीतिक नेताओं और पार्टियों की बनती-बिगड़ती किस्मत से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है, जिसके बारे में चर्चा करते हम भारतीय कभी नहीं अघाते।
दो वैश्विक धाराएँ आकर अपस में मिली हैं और ये दोनों ही भारत के पक्ष में पलड़ा झुका रही हैं। पहली धारा है उदारीकरण की क्रांति की, जो पिछले एक दशक में पूरे विश्व में फैल गई है और जिसने गत पचास वर्षों से अलग-थलग पड़ीं अर्थव्यवस्थाओं को खोलकर एक वैश्विक अर्थव्यवस्था में समाहित कर दिया है।
भारत के आर्थिक सुधार भी इसी धारा का हिस्सा हैं। इन सुधारों से अनावश्यक बंधन टूट रहे हैं और भारतीय उद्यमियों एवं आम लोगों की लंबे समय से दबी ऊर्जा मुक्त हो रही है। इनसे राष्ट्र, खासतौर पर युवाओं की मनोवृत्ति बदल रही है। इस धारा का दूसरा नाम है भूमंडलीकरण'।
दूसरी वैश्विक धारा यह है कि विश्व अर्थव्यवस्था औद्योगिक या उत्पादन अर्थव्यवस्था से हटकर 'ज्ञान अर्थव्यवस्था' बन चली है। इस सूचना आधारित अर्थव्यवस्था में भारतीय काफी अच्छा प्रदर्शन कर रहे हैं। इसका कारण तो कोई भी ठीक तरह समझ नहीं पा रहा, लेकिन एक अनुमान पेश किया जा सकता है।
भारतीय मूल रूप से कारीगर नहीं, वैचारिक लोग हैं। यह शायद इस बात का भी एक प्रमुख कारण है कि हम औद्योगिक क्रांति करने में विफल रहे। कारीगर बौद्धिकता और मानसिक शक्ति के साथ शारीरिक श्रम को भी मिला लेते हैं। औद्योगिक नवोन्मेष इसी प्रकार होता है।
भारत में मानसिक शक्ति पर हमेशा ब्राह्मणों का एकाधिकार रहा और शूद्र मुख्यतः शारीरिक श्रम करते रहे। अतः हमारे समाज में इन दोनों गतिविधियों के बीच हमेशा एक खाई रही है और शारीरिक श्रम से जुड़ी गतिविधियों में नवोन्मेष बहुत कम हो पाया है। इसके साथ ही गलत नीतियों और लाइसेंस राज के नौकरशाहों ने हमारे यहाँ औद्योगिक क्रांति के लिए दरवाजे बंद रखे।