पिछले दिनों वित्तमंत्री पी. चिदम्बरम ने अमेरिका के हार्वर्ड विश्वविद्यालय में व्याख्यान देते हुए भारत को जिन कारणों से 'समृद्ध गरीब' देश निरूपित किया, वे मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ दोनों 'समृद्ध गरीब' राज्यों पर भी घटित होते हैं। अर्थात प्राकृतिक और मानव संसाधनों में संपन्न होते हुए भी वांछनीय उपयोग और दोहन के अभाव में ये राज्य विकसित राज्यों की श्रेणी में नहीं आते।
मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ समृद्धि की खोज यात्रा के क्रमशः इक्यावनवें व सातवें पड़ाव पर हैं। यात्रा पूर्व दोनों ही राज्यों को नीति-निर्देशक उद्देश्य दिए गए थे। जहाँ 45 जिलों में विस्तारित मप्र के धनधान्य, खनिज पदार्थ आधारित उद्योग और राजस्व अधिशेष को स्मरण रखने को कहा गया, वहीं धान के कटोरे छत्तीसगढ़ को विशाल खनिज की समृद्धि और वन संपदा के संरक्षण और विकास की जिम्मेदारी सौंपी गई।
लगभग चवालीस वर्ष एक साथ रहने और समान पृष्ठभूमि होने के कारण यह स्वाभाविक ही है कि दोनों राज्यों में महत्वपूर्ण समानताएँ हों। सामाजिक-आर्थिक दृष्टि से पिछड़े दोनों राज्य विकासोन्मुख हैं। राष्ट्रीय परिवार एवं स्वास्थ्य संरक्षण के ताजा सर्वे के अनुसार दोनों राज्यों में एक तिहाई से अधिक की आबादी निर्धनतम की श्रेणी में आती है। दोनों ही खनिज संपदा की दृष्टि से धनी हैं।
मध्यप्रदेश में लगभग 25 और छत्तीसगढ़ में लगभग 30 प्रकार के खनिज हैं, जिन पर आधारित अनेक उद्योग विकसित किए गए हैं। दोनों मूलतः ग्रामीण राज्य हैं, जहाँ की दो-तिहाई आबादी की आजीविका कृषि पर आधारित है। इन राज्यों में खाद्य एवं वनोपज प्रसंस्करण की असीमित संभावनाएँ हैं।
आधे से अधिक कार्यशील जनसंख्या को रोजगार मुहैया कराने वाली कृषि स्थिर उत्पादकता और कम प्रगति दर से बेहाल है। अपार क्षमता वाले ग्रामीण हस्तशिल्प, कुटीर और लघु उद्योग उत्पादों की मार्केटिंग और ऋणों की उपलब्धता की समस्याओं से जूझ रहे हैं।
ये उद्योग ऊर्जा और सड़क जैसी आधारभूत संरचनाओं की कमी से तो परेशान हैं ही, ग्रामीण क्षेत्र भी पानी जैसी मूलभूत आवश्यकताओं की कमी के चलते निवेश, जीवन और पर्यावरण व्यवस्था के लिए अनुपयुक्त बन गए हैं। इन समस्याओं से निजात दिलाने के लिए दोनों राज्यों को भारी मात्रा में निवेश की आवश्यकता होगी।
यद्यपि पिछले सप्ताह इंदौर में संपन्न विश्व निवेश सम्मेलन में 1 लाख 20 हजार करोड़ रुपए के 102 निवेश के करार पत्रों पर हस्ताक्षर हुए, लेकिन प्रकारांतर और स्थान भिन्नता के बावजूद नए उदीयमान उद्योगों को दोनों राज्यों में संसाधन-लागत, लागत-पूँजी, भूमि लागत इत्यादि के 20 से 30 प्रतिशत का सवाल लागत-लाभ है। दोनों ही गतिशील विकास के नए क्षितिज छूने को उत्पर हैं।
मध्यप्रदेश में आगामी पाँच वर्षों में निवेशकों द्वारा शुरू की जाने वाली परियोजनाओं में से अधिकांश तब ही धरातल छू सकेंगी, जब बैंकों से पर्याप्त वित्तीय पोषण हो। चूँकि दोनों राज्य सामाजिक-आर्थिक दृष्टि से पिछड़े हैं इसलिए 'कम निवेश और ज्यादा से ज्यादा उत्पादन' पर जोर दिया जाना चाहिए। यह भी नहीं भुलाया जाना चाहिए कि विकास केवल निवेश से नहीं बल्कि उत्पादकता बढ़ाने, उत्पादन क्षमता विकसित और उसको पूर्ण करने से होता है।
लेकिन ये सब मुद्दे प्रदेश की आवश्यकता हैं, प्राथमिकता नहीं। प्राथमिकता होनी चाहिए कृषि में निवेश तथा उत्पादन में वृद्धि, लेकिन केंद्र सरकार के समान दोनों ही सरकारें खाद्य सुरक्षा को गंभीरता से नहीं ले रही हैं। कृषि उत्पादन में लागत बढ़ने और बाजार में बिचौलियों की भरमार के कारण कृषकों को उचित मूल्य नहीं मिल पाता।
दूसरी ओर शहरीकरण और विशेष आर्थिक क्षेत्र के बढ़ते चरण के कारण कृषि की भूमिका कम होती जा रही है। दिलचस्प बात यह है कि अविभाजित मध्यप्रदेश में कृषक कल्याण आयोग और नई कृषि नीति की रिपोर्ट विभिन्न मंत्रालयों में दबकर रह गई। नई कृषि नीति ने तो विधानसभा पटल को भी नहीं देखा। भूमि सुधार भी फाइलों में दब गए।
यह सही है कि मध्यप्रदेश में चालू वित्त वर्ष में 725 नई सिंचाई योजनाएँ और छत्तीसगढ़ में श्रममूलक करीब 100 परियोजनाएँ पूरी करने का लक्ष्य रखा गया है, लेकिन स्टॉपडेम और नहरों की स्थिति दयनीय है। नहरों के रखरखाव पर खर्च किए जाने वाले मानक भी पुराने पड़ चुके हैं।
पूर्व मध्यभारत के बाईस हजार तालाब कहाँ चोरी चले गए, इसका अब तक पता नहीं। निश्चिय ही ये सब कॉलोनियों की भेंट चढ़ गए। यही हाल दोनों राज्यों के सभी क्षेत्रों का है। छत्तीसगढ़ में तालाब की स्वच्छता और पवित्रता सुनिश्चित करने के लिए कछुए की नाक में सोने की नथ पहनाकर तालाब में छोड़ा जाता था।
उन्नत बीज उत्पादन करने वाली कंपनियाँ जितने बैग राज्य को आवंटित करती हैं, उससे अधिक बैग वितरित होना आम बात बन गई है। उदाहरणार्थ 2006 में बी काटन का उत्पादन कर रही कंपनी ने मध्यप्रदेश को तीन लाख बैग आवंटित किए, लेकिन बाजार में 20 लाख बैग वितरित किए गए। इतने थैले कहाँ से आए?
ये वास्तव में नकली बीज होंगे, जिनका खामियाजा किसानों ने भरा। कृषि ऋण तथा सहकारी बैंकों की वास्तविकता यह है कि बहुधा छोटे किसान ही सहकारी बैंकों से ऋण लेते हैं। मध्यप्रदेश में जिला सहकारी बैंकों की आर्थिक स्थिति, पूँजी निवेश पर प्राप्तियाँ और देय उपलब्ध पूँजी आधार इतनी दयनीय स्थिति में पहुँच गए हैं कि सहकारी बैंकों में भी किसी के 100 रुपए जमा हैं तो 60-70 रुपए ही वापस हो सकते हैं।
गैर निष्पादित संपत्ति भी बढ़ती जा रही है। ऐसी स्थिति में सहकारी बैंकों की पूँजी सुदृढ़ीकरण के लिए पर्याप्त राशि का प्रावधान तात्कालिक आवश्यकता है। दोनों विरही विराटों को यह भली-भाँति समझना होगा कि देश के 15 राज्यों के अधोसंरचना ढाँचे में निचले पायदान से ऊपर बढ़ने के लिए कुछ स्फूर्तिदायक महत्वपूर्ण क्षेत्रों को चुनना होगा।
राज्य सरकारों द्वारा संचालित जनकल्याण की अवधारणा वांछनीय है, लेकिन कुछ गुणक क्षेत्र ऐसे होते हैं, जिन पर दोनों क्षेत्रों का विकास आधारित होता है। शिक्षा और स्वास्थ्य को बढ़ावा देने के लिए विशेष आर्थिक क्षेत्रों की तर्ज पर विशेष शिक्षा, स्वास्थ्य और पर्यटन क्षेत्रों का विकास किया जाना चाहिए। दुर्भाग्य से नक्सलवाद ने दोनों राज्यों, विशेषकर छत्तीसगढ़ में अपने पैर पसारे हैं।
छत्तीसगढ़ के बस्तर, दंतेवाड़ा और कांकेर जिलों में एक-तिहाई आबादी आदिवासियों की है। यद्यपि छत्तीसगढ़ में सलवा जुडूम अभियान ने सामाज के सैन्यीकरण से नक्सलवाद का सामना करने की रणनीति अपनाई है, लेकिन दिनचर्या में पुलिस या पेरामिलीटरी या अर्द्धसैनिक बलों का हस्तक्षेप आदिवासी सभ्यता-संस्कृति से मेल नहीं खाता।
सन् 2006 में इलिना सेन की अध्यक्षता में नक्सलवादी समस्याओं का अध्ययन करने हेतु गठित समिति ने यह अनुशंसा की थी कि आदिवासियों से बलात् भूमि अधिग्रहण और नक्सलवादियों से संघर्ष करने के लिए आदिवासियों के तदर्थ उपयोग को पुलिस के कवच के रूप में उपयोग करने और महिलाओं के यौन शोषण को रोका जाना चाहिए।
समिति ने सरकार को सुझाव दिया है कि बड़े पैमाने पर विस्थापन और आदिवासियों के हाशिए पर चले जाने पर आधारित आर्थिक विकास के मॉडल के स्थान पर ऐसा मॉडल और रणनीति तैयार करनी चाहिए, जिसमें गरीबी, भुखमरी, बेरोजगारी, शोषण आदि समस्याओं से जूझ रहे आदिवासियों को मुक्ति दिलाई जा सके।
दरअसल, दोनों विरही और विकासोन्मुख राज्यों को नए विकास मॉडल और अपनी रणनीति के साथ-साथ निर्धारित प्राथमिकताओं से कार्य निष्पादन, संस्कृति, नौकरशाही के व्यवहार, रणनीति और धनराशि के पर्याप्त प्रावधान जैसे विषयों पर गंभीरता से पुनर्विचार करना होगा, तब ही समृद्धि आएगी।