चीनी के भाव बढ़ क्यों रहे हैं?
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राजेंद्र हरदेनिया चीनी की रिकॉर्ड तोड़ महँगाई ने केन्द्र सरकार को हिला दिया है। कृषि मंत्री शरद पवार कठघरे में हैं। मिलें व चीनी व्यापारी निशाने पर हैं। समस्या से तात्कालिक छुटकारा पाने के उपाय खोजे जा रहे हैं लेकिन इस पर किसी का ध्यान नहीं है कि अचानक यह समस्या आई कैसे? हाल ही में मध्यप्रदेश के होशंगाबाद जिले में पिपरिया से गाडरवारा जाते समय रास्ते में पड़ने वाली दो बड़ी चीनी मिलों, रामदेव शुगर मिल तथा नर्मदा शुगर मिल के सामने से मैं गुजरा। मिलों में गन्ना पेराई का यह व्यस्ततम सीजन है, लेकिन पिछले सालों की तुलना में वहाँ एक बड़ा अंतर दिखा। मिलों के सामने गन्नों से लदी बैलगाड़ियों, ट्रैक्टर, ट्रॉलियों व ट्रकों की कोई रेलमपेल नहीं थी। गन्ना परिवहन से सड़कें लगभग खाली थीं। दो साल पहले मिलों के सामने सड़क पर दूर-दूर तक गन्नों से लदी ट्रैक्टर-ट्रॉलियों, ट्रकों व बैलगाड़ियों की लंबी-लंबी कतारें दिखती थीं। लेकिन इस बार ऐसा लगता था कि जैसे अभी से गन्ना पेराई समापन पर हो।
यह दृश्य वास्तव में किसानों के गन्नों की खेती से मोह भंग का है। शुगर मिल के एक संचालक विनित माहेश्वरी के अनुसार पहले की तुलना में पिछली बार गन्नों का रकबा घटने से उन्हें मात्र 25 प्रतिशत गन्ना ही मिल पाया है। दूसरी ओर चीनी के दामों में गजब का उछाल है। जनवरी 2009 में 22 रु. किलो मिलने वाली चीनी 45 रु. किलो तक पहुँच गई। बताया जाता है कि इस साल चीनी उत्पादन में कमी हो गई। तुर्रा यह कि भारत दुनिया के दस सबसे बड़े चीनी उत्पादक देशों में ब्राजील के बाद दूसरे नंबर पर है। ब्राजील में जून 2008 में 514 लाख टन चीनी थी, वहीं हमारे देश में 355 लाख टन चीनी थी। फिर ऐसा क्या हुआ कि देश में चीनी का अकाल पड़ गया? हुआ यह है कि एक साल के अंदर ही भारत ने अतिरिक्त स्टाक ठिकाने लगाने के लिए 50 लाख टन चीनी का निर्यात किया। फिर उत्पादन कम होने पर 50 लाख टन चीनी का आयात किया। निर्यात के समय विश्व बाजार के भाव 230 डॉलर प्रति टन थे। जब आयात किया तो वही भाव 700 डॉलर प्रति टन के हो गए। निर्यात में भी घाटा और आयात में भी घाटा।पड़ताल से पता चलता है कि गन्ना उत्पादन में कमी, चीनी उत्पादन में गिरावट तथा कीमतों में जो उछाल आज आया है, इसकी नींव तो सन् 2005-06 में रखी जा चुकी थी। साल-दर-साल के गन्नों की पैदावार, चीनी का उत्पादन व देश में घरेलू खपत के आँकड़े इस हकीकत को बयान करते हैं। इंडियन शुगर मिल्स एसोसिएशन की पत्रिका 'इंडियन शुगर' में उपलब्ध आँकड़ों के अनुसार वर्ष 2005-06 में देश में कुल 232 लाख टन चीनी थी, जबकि खपत 185 लाख टन की हुई। उस समय चीनी के भाव 1800 रु. प्रति क्विंटल थे। इसमें किसान को 100 से 120 रु. का भाव मिल रहा था। गन्नों के उचित दाम मिलने से गन्नों का रकबा बढ़ा, जिससे वर्ष 2006-07 में 319 लाख टन की उपलव्धता हो गई। इस वर्ष खपत 210 लाख टन की थी। वर्ष 07-08 में तो उत्पादन और बढ़ा, जिससे देश में कुल स्टाक 355 लाख टन का हो गया, जबकि मिलों के लिए घरेलू खपत का बाजार 225 लाख टन का ही था। चीनी के इस ज्यादा उत्पादन व घरेलू कम खपत से मिलों के सामने गंभीर संकट पैदा हुआ। मिलों के पास भंडारण के लिए जगह नहीं बची तथा माल की पर्याप्त बिक्री न होने से नकद राशि हाथ में नहीं आई, इससे मिल व किसान दोनों ही परेशान हो गए। बढ़े उत्पादन को ठिकाने लगाने के लिए मिलें गलाकाट प्रतिस्पर्धा में उतर आईं।
जहाँ अक्टूबर 2006 में चीनी के भाव 1700 से 1800 रु. क्विंटल थे, वहीं जनवरी 2007 से भावों का गिरना चालू हुआ व मार्च 2007 से जून 2008 यानी सवा साल तक 1300-1400 रु. प्रति क्विंटल के रह गए। घाटे में ही सही, किसी तरह पैसा खड़ा करने के चक्कर में उत्पादकों ने स्वयं प्रयास करके वर्ष 2006-07 में 18 लाख टन तथा वर्ष 2007-08 में 50 लाख टन का निर्यात किया।जिस किसान ने ठंड के मौसम की कड़कड़ाती सर्दी, गर्मी की चिलचिलाती धूप, बरसात के पानी में भीगते हुए तीनों मौसम में खेत में रहकर बड़ी मेहनत से गन्नों की फसल तैयार की थी, उसकी वह फसल मिलों के गेट पर रेट के मामले में फेल हो गई। 13
रु. किलो में बिकने वाली चीनी में किसान को जो हिस्सा मिला, वह इतना कम था कि उनकी लागत तक नहीं निकली। इस कारण किसान का गन्नों की खेती से मोह भंग हो गया तथा उसने अन्य फसलों का रुख कर लिया। आज यदि पीड़ित असहाय किसान गन्नों की खेती से पूर्णतः हट जाए तो चीनी उद्योग चरमरा जाएगा तथा देश पूरी तरह आयात पर आश्रित हो जाएगा। फिर उपभोक्ताओं को चीनी क्या भाव मिलेगी। अभी जो आम उपभोक्ता के साथ जो क्रूर मजाक हुआ है, उसके लिए कौन जिम्मेदार है?
नतीजा सामने है कि गन्नों का रकबा घट गया। किसान तो गन्ना उगाना छोड़ सकता है, पर चीनी मिलों के लिए गन्नों का विकल्प नहीं है। उद्योगपति तो मुनाफा कमाने के लिए मिल लगाता है। किसान उसके लिए सोने का अंडा देने वाली मुर्गी है। लेवी पर खरीदी की जो दरें सन 2002 में रु.13.50 प्रतिकिलो थीं, वे आज तक यथावत हैं। सार्वजनिक वितरण प्रणाली के लिए सरकार मिलों से बीस प्रतिशत यानी 10 किलो चीनी में से 2 किलो चीनी लेवी लेती है। शेष आठ किलो चीनी उद्योगपति खुले बाजार में बेच सकता है। उसे लेवी तथा खुले बाजार के जो औसत दाम मिलते हैं, गन्ने का भाव उसी पर तय होता है। जैसे बाजार में यदि चीनी 40 रु. किलो हो तो एक एकड़ में उत्पादित 10 किलो चीनी के दाम वैसे तो 400 रु. होंगे पर लेवी के कारण 2 किलो के दाम 13.50 लेवी दर से 27 रु. तथा 8 किलो 40 रु. की दर से 320 रु. यानी 10 किलो के कुल दाम 347 रु. होंगे। यही दाम गन्नों के मूल्य तय करने का आधार होंगे। इससे लेवी का यह आनुपातिक बोझ किसान पर आता है। आज यदि पीड़ित असहाय किसान गन्नों की खेती से पूर्णतः हट जाए तो चीनी उद्योग चरमरा जाएगा तथा देश पूरी तरह आयात पर आश्रित हो जाएगा। फिर उपभोक्ताओं को चीनी क्या भाव मिलेगी। अभी जो आम उपभोक्ता के साथ जो क्रूर मजाक हुआ है, उसके लिए कौन जिम्मेदार है? एक बड़ा सवाल है कि हमारी चीनी नीति कहाँ असफल हुई? चीनी उद्योग पर सरकार का नियंत्रण है। अधिक उत्पादन व अतिरिक्त स्टाक के कारण मिलें जब उसे ठिकाने लगाने के लिए परेशान थीं व किसान भटक रहे थे तब क्या सरकार ने कोई आकलन नहीं किया? सन 2008-09 में गन्ने का रकबा घटने से मिलें चेतावनी दे रही थीं कि चीनी का उत्पादन कम होगा, पर गाफिल सरकार का कहना था कि चीनी का उत्पादन 220 लाख टन होगा। लेकिन पेराई के सीजन के बाद चीनी का उत्पादन 145 लाख टन पर आकर रुक गया। यह सरकार की अदूरदर्शिता थी। यदि सरकार उस समय उस अतिरिक्त स्टाक को 13-14 रुपए के बजाय 18-20 रुपए की दर से स्वयं खरीद कर बफर स्टाक बना लेती तो किसानों को गन्ने के उचित दाम मिल जाते, जिससे किसान गन्ने की खेती से नहीं हटता व आज उपभोक्ता को महँगी चीनी नहीं मिलती। (नईदुनिया)