संकलन : अनिरुद्ध जोशी 'शतायु'
बोधी धर्मन या बोधिधर्म एक बौद्ध भिक्षु थे। बोधिधर्म का जन्म दक्षिण भारत के पल्लव राज्य के कांचीपुरम के राज परिवार में हुआ था। वे कांचीपुरम के राजा सुगंध के तीसरे पुत्र थे। छोटी आयु में ही उन्होंने राज्य छोड़ दिया और भिक्षुक बन गए। 22 साल की उम्र में उन्होंने संबोधि (मोक्ष की पहली अवस्था) को प्राप्त किया।
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बोधिधर्म के माध्यम से ही चीन, जापान और कोरिया में बौद्ध धर्म का विस्तार हुआ था। 520-526 ईस्वीं में चीन जाकर उन्होंने चीन में ध्यान संप्रदाय की नींव रखी थी जिसे च्यान या झेन कहते हैं।
इस छोटी सी उम्र में ही उन्होंने हर तरह की विद्या में खुद को पारंगत कर लिया था। बोधी धर्मन के बारे में इतिहास में अलग अलग बातें पढ़ने को मिलती है, लेकिन जो ओशो रजनीश ने कहा वह ज्यादा सत्य के नजदीक है। आओ हम बोध धर्मन के बारे में 5 रहस्य को जानते हैं।...आओ जानते हैं बोधी धर्मन के बारे में 5 रहस्य...
चीन को सिखाया मार्शल आर्ट : भारत ने कभी उन लोगों का इतिहास नहीं लिखा या संवरक्षित नहीं किया जो भारत के हीरे थे उनमें से एक थे बोधी धर्मन। दुनिया के महान भिक्षुओं में से एक बोधी धर्मन को जो नहीं जानता वह मार्शल आर्ट के इतिहास को भी नहीं जानता होगा। चीन में मार्शल आर्ट और कुंग फू जैसी विद्या को सिखाया था बोधी धर्मन ने।
बोधिधर्म या बोधि धर्मन। बोधिधर्म कौन थे? क्या थे और क्यों उन्हें महान भारतीय भिक्षु माना जाता है? उनके संबंध में ऐसे कई सवाल है जिनके जवाब हर भारतीय जानना चाहिए। बोधिधर्म आयुर्वेद, सम्मोहन, मार्शल आर्ट और पंच तत्वों को काबू में करने की विद्या जानते थे। इन्होंने देवीय शक्तियों को भी हासिल कर रखा था।
पुराणों के अनुसार, महर्षि अगस्त्य और भगवान परशुराम ने धरती को सबसे पहले मार्शल आर्ट प्रदान किया। महर्षि अगस्त्य ने दक्षिणी कलारिप्पयतु (बिना शस्त्र के लड़ना) और परशुराम ने शस्त्र युक्त कलारिप्पयतु का विकास किया था। भगवान श्रीकृष्ण दोनों ही तरह के विद्या में पारंगत थे। उन्होंने इस विद्या को और अच्छे से विकसित किया और इसको एक नया आयाम दिया। इसे कलारिप्पयतु, कलारीपयट्टू या कालारिपयट्टू (kalaripayattu) कहा जाता है।
श्रीकृष्ण ने इस विद्या के माध्यम से ही उन्होंने चाणूर और मुष्टिक जैसे मल्लों का वध किया था तब उनकी उम्र 16 वर्ष की थी। मथुरा में दुष्ट रजक के सिर को हथेली के प्रहार से काट दिया था। जनश्रुतियों के अनुसार श्रीकृष्ण ने मार्शल आर्ट का विकास ब्रज क्षेत्र के वनों में किया था। डांडिया रास उसी का एक नृत्य रूप है। कालारिपयट्टू विद्या के प्रथम आचार्य श्रीकृष्ण को ही माना जाता है। हालांकि इसके बाद इस विद्या को अगस्त्य मुनि ने प्रचारित किया था।
इस विद्या के कारण ही 'नारायणी सेना' भारत की सबसे भयंकर प्रहारक सेना बन गई थी। श्रीकृष्ण ने ही कलारिपट्टू की नींव रखी, जो बाद में बोधिधर्मन से होते हुए आधुनिक मार्शल आर्ट में विकसित हुई। बोधिधर्मन के कारण ही यह विद्या चीन, जापान आदि बौद्ध राष्ट्रों में खूब फली-फूली। आज भी यह विद्या केरल और कर्नाटक में प्रचलित है।
श्रीकृष्ण ने इस विद्या को अपनी 'नारायणी सेना' को सीखा रखा था। डांडिया रास इसी का एक रूप है। मार्शल आर्ट के कारण उस काल में 'नारायणी सेना' को भारत की सबसे भयंकर प्रहारक माना जाता था।
शिष्यों ने ही दिया जहर ? : बोधिधर्म का जन्म दक्षिण भारत में पल्लव राज्य के कांचीपुरम के राजा परिवार में हुआ था। छोटी आयु में ही उन्होंने राज्य छोड़ दिया और भिक्षुक बन गए। 22 साल की उम्र में उन्होंने संबोधि (मोक्ष की पहली अवस्था) को प्राप्त किया। प्रबुद्ध होने के बाद राजमाता के आदेश पर उन्हें सत्य और ध्यान के प्रचार-प्रसार के लिए चीन में भेजा गया।
महिनों के कठिन सफर के बाद बोधिधर्म चीन देश के नानयिन (नान-किंग) गांव पहुंचे। कहते हैं कि इस गांव के ज्योतिषियों की भविष्यवाणी के अनुसार यहां बहुत बड़ा संकट आने वाला था। बोधिधर्म के यहां पहुंचने पर गांव वालों ने उन्हें ही यह संकट समझ लिया। ऐसा जानकर उन्हें उस गांव से खदेड़ दिया गया। वे गांव के बाहर रहने लगे। उनके वहां से चले जाने पर गांव वालों को लगा की संकट चला गया।
दरअसरल, संकट तो एक जानलेवा महामारी के रूप में अभी आने वाला था और वह आ गया। लोग बीमार पड़ने लगे। गांव में अफरा-तफरी मच गई। गांव के लोग बीमारी से ग्रसित बच्चों या अन्य लोगों को गांव के बाहर छोड़ देते थे, ताकि किसी अन्य को यह रोग न लगे।
बोधी धर्मन चूंकि एक आयुर्वेदाचार्य थे, तो उन्होंने ऐसे लोगों की मदद की तथा उन्हें मौत के मुंह में जाने से बचा लिया। तब गांव के लोगों को समझ में आया कि यह व्यक्ति हमारे लिए संकट नहीं बल्कि संकटहर्ता के रूप में सामने आया है। गांव के लोगों ने तब ससम्मान उन्हें गांव में शरण दी। बोधी धर्मन ने गांव के समझदार लोगों को जड़ी-बूटी कुटने और पीसने के काम पर लगा दिया और इस तरह पूरे गांव को उन्होंने चिकित्सा सुविधा उपलब्ध कराकर गांव को महामारी से बचा लिया।
एक संकट खत्म होने के बाद गांव पर दूसरा संकट आ गया। हैवानों, लुटेरों की एक टोली ने गांव पर हमला कर दिया और वे क्रूर लोगों को मारने लगे। चारों और कत्लेआम मच गया। गांव वाले समझते थे कि बोधी धर्मन सिर्फ चिकित्सा पद्धत्ति में ही माहिर है लेकिन उन्होंने क्या मालूम था कि बोधी धर्मन एक प्रबुद्ध, सम्मोहनविद् और चमत्कारिक व्यक्ति थे। वे प्राचीन भारत की कालारिपट्टू विद्या में भी पारंगत थे। कालारिपट्टू को आजकल मार्शल आर्ट कहा जाता है।
बोधी धर्मन ने मार्शल आर्ट और सम्मोहन के बल पर उन हथियारबद्ध लुटेरों को हरा दिया और उन्हें भागने पर मजबूर कर दिया। गांव वालों ने बोधी धर्मन को लुटेरों की उन टोली से अकेले लड़ते हुए देखा और वे इसे देखकर चौंक गए। चीन के लोगों ने युद्ध की आज तक ऐसी आश्चर्यजनक कला नहीं देखी थी। वे समझ गए कि यह व्यक्ति कोई साधारण व्यक्ति नहीं है। इसके बाद तो बोधी धर्मन का सम्मान और भी बढ़ गया।
बोधी धर्मन ने गांव के लोगों को आत्म रक्षा के लिए इस विद्या को सिखाया। गांव के लोग उनसे प्यार करने लगे और प्यार से उन्हें धापू बलाने लगे। कई वर्षों बाद जब उन्होंने उस वहां से भारत जाने की इच्छा जतायी तब ज्योतिषियों ने गांव पर फिर से संकट आने की भविष्यवाणी की।
गांव वालों ने एक जगह एकत्र होकर यह निर्णय लिया कि अगर इस संकट से बचना है तो बोधी धर्मन को यहीं रोकना होगा किसी भी हाल में। यदि वह नहीं रुकते हैं तो उन्हें जबरदस्ती रोकना है। किसी भी किमत पर उन्हें जिंदा या मुर्दा रोकना ही होगा। गांव वाले यह जानते थे कि वे बोधी धर्मन से लड़ नहीं सकते तो उन्होंने बोधी धर्मन को रोकने के लिए उनके खाने में जहर मिला दिया, लेकिन बोधी धर्मन यह बात भलिभांति जान गए।
उन्होंने गांव वालों से कहा कि तुमने ऐसा क्यों किया? तुम मुझे मारना क्यों चाहते हो? गांव वालों के कहा कि हमारे ज्योतिषियों अनुसार आपके शरीर को यहीं दफना दिया जाए तो हमारा गांव हमेशा के लिए संकट से मुक्त हो जाएगा। बोधी धर्मन ने कहा, बस इतनी सी इच्छा। बोधी धर्मन ने गांव वालों की इस बात को स्वीकार कर लिया और उन्होंने जहर मिला वह भोजन बड़े ही चाव से ग्रहण कर लिया।
चाय की खोज की थी बोधी धर्मन ने : संद सद्गुरु ने एक कहानी सुनाई थी जो कि इस प्रकार है। चीन का राजा वू भारत के किसी महान बौद्ध भिक्षु के आने का इंतजार कर रहा था। क्योंकि वह जानते था कि भारत में एक से एक रहस्यमयी और चमत्कारिक ऋषि, मुनि, संत और भिक्षु रहते हैं। वू के मन में कई तरह के धार्मिक और दार्शनिक प्रश्न इकट्ठे हो गए थे।
वे चीन में बौद्ध धर्म का महान संवरक्षक था। उसको किसी भविष्यक्ता ने कहा कि भारत से कोई महान भिक्षु आएगा और चीन का भाग्य बदल जाएगा। इसके बाद उसने उस भिक्षु के स्वागत के लिए भरपूर तैयारियां कर ली थी। लेकिन सालों तक कोई भिक्षु नहीं आया, कोई भी बौद्ध गुरु नहीं आया।
फिर एक दिन यह संदेश आया कि दो महान भिक्षु हिमालय पार करके चीन आएंगे और बौद्ध धर्म के संदेशों का प्रचार करेंगे। यह सुनकर राजा फिर से स्वागत की तैयारी में लग गया। कुछ काल के इंतजार के बाद, चीन राज्य की सीमा पर दो लोग नजर आए। ये थे बोधिधर्म और उनका एक शिष्य।
वू ने जब दोनों को देखा तो उसे बहुत निराश हुई। उसने सोच था कि कोई वृद्ध, ज्ञानी और महान होगा, लेकिन ये दोनों तो बिल्कुल साधारण और युवा लग रहे थे। महज 22-23 साल का लड़का और महान भिक्षु? ऐसा कैसे हो सकता है। वू ने तो सुन रखा था कि वे बड़े ज्ञानी और महान हैं, लेकिन ये तो थके हारे युवक नजर आ रहे हैं।
दरअसल, पर्वतों में महीनों की लंबी यात्रा से थके हुए बोधिधर्म भी राजा पर अपना कुछ खास प्रभाव नहीं छोड़ पाए। हालांकि प्रभुद्ध व्यक्ति किसी पर प्रभाव छोड़ने की तमन्ना भी नहीं रखते। खैर, राजा ने किसी तरह अपनी निराशा को छिपाया और दोनों भिक्षुकों का हंसते हुए स्वागत किया। उसने उन्हें अपने शिविर में बुलाया और उन्हें बैठने का स्थान देकर उनके भोजन आदि की व्यवस्था की।
दोनों की थकान उतरने के बाद राजा ने उनसे वार्तालाप शुरू की। वार्तालाप के बाद सवाल जवाब का दौरा शुरू हुआ तो राजा ने बोधिधर्म से कहा, “क्या मैं आपसे एक प्रश्न कर सकता हूं?”
बोधिधर्म ने कहा बोले, 'बिल्कुल कर सकते हैं।' राजा वू ने पूछा, 'इस सृष्टि का स्रोत क्या है?' बोधिधर्म ने राजा की ओर देखकर हंस दिए और बोले बोले, 'यह तो बड़ा मूर्खताभरा प्रश्न है! कोई और प्रश्न पूछिए।'
राजा वून ने खुद को अपमानित महसूस किया और निराश हो गया। उसने सोच इतने महत्वपूर्ण प्रश्न को यह युवक मूर्खतापूर्ण कह रहा है तो फिर यह जानता ही क्या होगा? राजा ने तो इस तरह के दार्शनिक प्रश्नों की एक लंबी सूची बना रखी थी। अब वह सोच में पड़ गया। राजा ने भीतर ही भीतर खुदको बहुत अपमानित और क्रोधित महसूस करते हुए भी खुद को संभाले रखा और कहा, 'चलिए, मैं आपसे दूसरा प्रश्न पूछता हूं। मेरे अस्तित्व का स्रोत क्या है?”
यह सुनकर बोधिधर्म और भी जोर से हंसे और बोले, 'यह तो और भी मूर्खतापूर्ण प्रश्न है! कुछ और पूछिए।'
दो महत्वपूर्ण प्रश्न थे, ‘इस सृष्टि का स्रोत क्या है’ और ‘मेरे अस्तित्व का स्रोत क्या है’। दोनों महत्वपूर्ण प्रश्न जिसके आधार पर संपूर्ण दर्शन और धर्म खड़ा हुआ था उसे बोधिधर्मन ने एक झटके में खारिज कर दिया। राजा समझ गया कि यह खुद ही मूर्ख है।
राजा का पारा तो सातवें आसमान पर था, लेकिन फिर भी उसने खुद को संभालते हुए तीसरा प्रश्न पूछा। तीसरा प्रश्न उसका बहुत ही अलग था। उसने पूछा, “बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार करने के लिए मैंने कई ध्यान कक्ष बनवाए, सैकड़ों बगीचे लगवाए और हजारों अनुवादकों को प्रशिक्षित किया। मैंने इतने सारे प्रबंध किए हैं। क्या मुझे मुक्ति मिलेगी?”
यह सुनकर बोधिधर्म गंभीर हो गए। वह खड़े हुए और अपनी बड़ी-बड़ी आंखें राजा की आंखों में डालकर बोले, “क्या! तुम और मुक्ति? तुम तो सातवें नरक में गिरोगे।” (बौद्ध धर्म के मुताबिक, मस्तिष्क के सात स्तर होते हैं। सबसे नीचले स्तर को सातवां नरक कहते हैं)
बोधी धर्मन का यह जवाब सुनकर राजा वू तो आगबबूला हो गया। उसने बोधी धर्मन को अपने राज्य से बाहर निकाल दिया। बोधिधर्म को इससे कोई फर्क नहीं पड़ा। राजा वू के राज्य से निकाले जाने के बाद बोधिधर्म पर्वतों में चले गए। वहां उन्होंने कुछ शिष्यों को इकट्ठा किया और पर्वतों में ही ध्यान करने लगे। जिस पहाड़ पर वे ध्यान करते थे उसे चाय कहते थे।
एक दिन उस पहाड़ी पर उन भिक्षुकों को कुछ अलग किस्म की पत्तियां दिखाई दी। बोधिधर्म ने जांच-पड़ताल के बाद पाया कि अगर इन पत्तियों को उबालकर पिया जाए, तो इससे नींद भाग जाती है। इसे पीकर वे अब पूरी रात सतर्क रहकर ध्यान कर सकते थे और इस तरह से चाय की खोज हुई।
हालांकि एक दंतकथा के अनुसार चाय की उत्पत्ति बोधी धर्मन की पलकों के कारण हुई थी। दरअसल, ध्यान करते हुए एक दिन बोधिधर्म सो गए थे जो गुस्से में उन्होंने अपनी पलके काट कर जमीन पर फेंक दी थी। जहां उन्होंने पलकें फेंकी थी वहां हरी पत्तियां उग आई जिसे बाद में चाय के रूप में जाना जाने लगा।
भारतीय गुरुओं में अट्ठाइसवें गुरु थे बोधिधरम : ओशो रजनीश ने बोधिधर्म के बारे में बहुत कुछ कहा है। ओशो के अनुसार बौद्ध धर्म के ज्ञान को भगवान बुद्ध ने महाकश्यप से कहा। महाकश्यप ने आनंद से और इस तरह यह ज्ञान चलकर आगे बोधिधर्म तक आया। बोधिधर्म उक्त ज्ञान व गुरु शिष्य परंपरा के अट्ठाइसवें गुरु थे।
उत्तरी चीन के तत्कालीन राजा बू-ति एक बोधिधर्म से प्रेरित थे। बू-ति के निमन्त्रण पर बोधिधर्म की उनसे नान-किंग में भेंट हुई। यहीं पर नौ वर्ष तक रहते हुए बोधिधर्म ने ध्यान का प्रचार-प्रसार किया। बोधिधर्म चीन में नौ वर्ष तक एक दिवाल की तरफ मुंह करके बैठे रहे।
किसी ने एक दिन उनसे पूछा आप हमारी तरफ पीठ करके क्यों बैठे हैं? दिवाल की तरफ मुंह क्यों करते हैं? बोधी धर्म में कहा जो मेरी आंखों में पढ़ने के योग्य होगा उसे ही देखूंगा। जब उसके आगमन होगा तब देखूंगा अभी नहीं। अभी तो दिवाल देखूं या तुम्हें देखूं एक ही बात है।
ओशो कहते हैं कि नौ वर्ष बाद वह व्यक्ति आया जिसकी प्रतिक्षा बोधिधर्म ने की थी। उसने अपना एक हाथ काटक बोधी धर्म की ओर रख दिया और कहा जल्दी से इस ओर मुंह करो वर्ना गर्दन भी काट कर रख दूंगा। फिर क्षण भर भी बोधी धर्मन नहीं रुके और दिवाल की से उस व्यक्ति की ओर घुम गए और कहने लगे...तो तुम आ गए। मैं तुम्हारी ही प्रतिक्षा में था, क्योंकि जो अपना सबकुछ मुझे देने को तैयार हरो वहीं मेरा संदेश झेल सकता है। इस व्यक्ति को बोधी धर्म ने अपना संदेश दिया जो बुद्ध ने महाकश्यप को दिया था।
बोधिधर्म के प्रथम शिष्य : माना जाता है कि बोधिधर्म जब तक चीन में रहे मौन ही रहे और मौन रहकर ही उन्होंने ध्यान-सम्प्रदाय की स्थापना कर ध्यान के रहस्य को बताया। बाद में उन्होंने कुछ योग्य व्यक्तियों को चुना और अपने मन से उनके मन को बिना कुछ बोले शिक्षित किया। यही ध्यान-सम्प्रदाय कोरिया और जापान में जाकर विकसित हुआ।
बोधिधर्म के प्रथम शिष्य और उत्तराधिकारी का नाम शैन-क्कंग था, जिसे शिष्य बनने के बाद उन्होंने हुई-के नाम दिया। पहले वह कन्फ्यूशस मत का अनुयायी था। बोधिधर्म की कीर्ति सुनकर वह उनका शिष्य बनने के लिए आया था। बोधिधर्म का कोई ग्रंथ नहीं है, लेकिन ध्यान सम्प्रदाय की इतिहास पुस्तकों में उनके कुछ वचनों का उल्लेख मिलता है।
ओशो कहते हैं, फिर यह व्यक्ति जिसे बोधीधर्म संदेश दे आए थे उनके लगभग 500 शिष्य थे। जब यह व्यक्ति बुढ़ा हुआ तो उसे भी अपने उत्तराधिकारी शिष्य की तलाश थी। इसके आश्रम में पांच सौ भिक्षु थे। इसने एक दिन घोषणा कर दि कि जो भी सोचता है कि वह मेरे योग्य है वह मेरे द्वारा पर धर्म का सार चार पंक्तियों में लिख जाए और मुझे समझ आ जाएगा तो मैं उसे अपना गुरुपद दे दूंगा।
उक्त पांच सौ में से एक ने हिम्मत की लिखने की। औरों ने तो हिम्मत ही नहीं की, क्योंकि वे अपने गुरु को जानते थे। वह चोरी छुपे गया और चार पंक्तियां लिखा आया कि 'मन दर्पण के भांति है। इस पर विचारों और विकारों की धूल जम जाती है। उस विचार और विकार की धूल को पोछ दें, यही धर्म का सार है।'
दूसरे दिन सबमें खबर पहुंच गई कि बात तो कह दी। बिल्कुल ठीक कह दी लेकिन गुरु को पसंद नहीं आई थी। गुरु ने पढ़े वचन, लेकिन चुप रहा कोई वक्तव्य नहीं दिया। लोग सोचने लगे कि ये तो ज्यादती है। इससे सुंदर वचन और क्या लिखा जा सकता है। इस खबर पर वाद विवाद होता था। भिक्षु इस पर एक दूसरे से चर्चा करते थे।
ऐसे ही चार्च करते हुए दो भिक्षु भोजनालय से निकलते थे कि आश्रम के भोजनालय में जो व्यक्ति चावल कूटने का काम करता था वह उन दोनों की बातें सुनकर हंसने लगा। वह 12 साल से चावल ही कूट रहा था। बारह साल पहले जब वह शिष्य बना था जो गुरु ने उससे पूछा था कि तू धर्म जानना चाहता है या कि धर्म के संबंध में जानना चाहता है। तो उसने कहा था कि धर्म के संबंध में जानकर क्या करूंगा धर्म ही जानना है।
तब गुरु ने कहा था कि फिर तू जा और चौके में चावल कूट। जब जरूरत होगी में आ जाऊंगा। तू मेरे पास मत आना। तो बारह साल से ये आदमी चुपचाप चावल ही कूट रहा था। बुद्ध तो थोड़ी देर चुप रहे थे फुल को हाथ में लेकर, बोधी धर्मन नौ साल तक चुप रहा था लेकिन यह व्यक्ति 12 साल तक चुप रहा। ये व्यक्ति इसका नाम था हुई नैन। यह 12 साल से चुपचाप चावल ही कूट रहा था। लोग जानते नहीं थे कि इसका भी कोई अस्तित्व है। 12 साल में उनके भीतर का सब शांत हो गया और वह साक्षी भाव में स्थित हो गया था।
यह 12 साल में पहला मौका था जबकि वह हंसा। वह दोनों भिक्षु चौंके। उन्होंने पूछा तुम क्यों हंसे। हुई युन ने कहा कि मैं इसलिए हंसा क्योंकि ये पंक्तियां जिसने भी लिखी है वह महामूढ़ है। अब तो भिक्षु और भी चौंक गए। उन्होंने कहा कि चावल कूटते तेजी जिंदगी गुजर गई और तू समझता है कि तू ज्ञानी है? हमारे आश्रम के सबसे बड़े महापंडित को महामूढ़ कहता है। क्या तू इनसे बेहतर पंक्तियां लिख सकता है? उसने कहा कि मैं लिख तो सकता हूं लेकिन मैं लिखना भूल गया। अगर तुम लिख तो मैं बोल दूंगा चलो अभी।
वह उन दोनों भिक्षुओं के साथ द्वार पर गया और उसने कहा पोछ दो ये पंक्तियां और लिखो, हुई युन के कहा, 'कैसा दर्पण, कहां का दर्पण, मन कोई दर्पण नहीं है, तो धूल जमेगी कहां? ऐसा जिसने जान लिया उसने धर्म को जान लिया।'...