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Written By WD

खट्टा-मीठा : खट्टा निर्देशन, मीठा अभिनय

खट्टा मीठा
बैनर : हरि ओम एंटरटेनमेंट कं., श्री अष्टविनायक सिनेविज़न लिमिटे
निर्देशक : प्रियदर्श
संगीत : प्रीतम, शान
कलाकार : अक्षय कुमार, त्रिशा कृष्णन, राजपाल यादव, मकरंद देशपांडे, नीरज वोरा, मिलिंद गुनाजी, असरानी, अरुणा ईरानी, उर्वशी शर्मा, मनोज जोशी, टीनू आनंद, कुलभूषण खरबंदा, जॉनी लीव
रेटिंग : 2/5
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यह तो मानना पड़ेगा कि 'खट्टा मीठा' में प्रियदर्शन कुछ नया लेकर आए हैं, लेकिन इस नए को वे संभाल नहीं पाए। फिल्म में प्रियदर्शन का अंदाज कहीं भी नजर नहीं आता। प्रियदर्शन के प्रशंसक इस फिल्म को देखकर निराश होंगे।

असरानी, जॉनी ‍लीवर और राजपाल यादव जैसे कलाकारों का सही इस्तेमाल नहीं किया गया है। यहाँ तक कि कुलभूषण खरबंदा जैसे कलाकार को भी ठीक से प्रस्तुत नहीं किया गया है। शुरुआत के 25 मिनट तक फिल्म इतनी थकी हुई है कि लगता है यह प्रियदर्शन की मूवी नहीं है।

सचिन टिचकूले एक बड़े घर का असफल बेटा है। सड़क बनाने से ज्यादा उसे कभी कोई कॉंन्ट्रेक्ट नहीं मिला। टिचकूले दंपत्ति (कुलभूषण खरबंदा और अरुणा इरानी) की दो बड़ी बेटियाँ अपने पतियों के साथ इसी घर में रहती हैं। बड़ा भाई हरीश टिचकूले उसकी पत्नी और छोटी कुँवारी बहन (उर्वशी शर्मा) भी इनमें शामिल हैं। दोनों जीजा और बड़ा भाई इसलिए सफल हैं क्योंकि वे नेताओं के साथ साँठगाँठ करना जानते हैं।

ये सभी मिलकर सरकार के विकास कार्यों के लिए भेजे करोड़ों रुपए खाकर ईमानदारी का ढोंग करते हैं और सचिन को नीचा दिखाने से बाज नहीं आते। एक दामाद (मनोज जोशी) इंजीनियर है। दूसरा (मिलिंद गुणाजी) कॉन्ट्रेक्टर है। मिस्टर टिचकूले (कुलभूषण खरबंदा) ईमानदार रिटायर्ड जज हैं। उनका राजा-महाराजाओं वाला इतिहास रहा है लेकिन वर्तमान में पेंशन का सारा पैसा बेटियों की शादी में खर्च कर दिया है और रही-सही इज्जत लेकर बैठे हैं।

फिल्म शुरू होने के 10 मिनट बाद ही वह इतनी बोझिल और बिखरी लगती है कि दर्शक भटकने लगता है।

फिल्म में सचिन टिचकूले एक मिलाजुला आम कैरेक्टर है। अपने टिपिकल अंदाज में वह सामने आता है जिसमें एक बैग, काला चश्मा, छतरी उसकी पहचान है। लेकिन फिल्म के अन्य कैरेक्टर की तुलना में यहाँ अक्षय का गेटअप मिसफिट है। फिल्म में गति तब आती है जब अभिनेत्री त्रिशा कृष्णन यानी गहना का आगमन होता है और दर्शकों को पहली बार पता चलता है कि सचिन और गहना कॉलेज के पुराने दोस्त हैं और एक दूजे को पसंद करते थे।

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सत्य और न्याय के रास्ते पर चलते सचिन के एक विरोध में वह उसका साथ नहीं देती और सचिन उस पर हाथ उठा देता है। यहाँ उनका ब्रेकअप हो जाता है। इतने सालों बाद वह ईमानदार म्यूनिसिपल अधिकारी के रूप में सचिन से मिलती है। सचिन की हरकतें उसे हैरत में डाल देती है कि ईमानदारी का डंका बजाने वाला उसका साथी बेईमानी के रास्ते पर चल पड़ा है, जबकि सच यह नहीं है।

बदले की भावना से वह गहना को रिश्वत के झूठे आरोप में फँसा देता है। गहना बदनामी के डर से आत्महत्या की कोशिश करती है। सचिन के भीतर की ईमानदारी और सच्चाई फिर जाग उठती है। इस सबको इतने कमजोर दृश्यों के साथ लिखा गया है कि फिल्म अटक-अटक कर चलती है।

ND
स्क्रीन प्ले इतना कमजोर है कि दर्शक फिल्म से जुड़ नहीं पाता। प्रियदर्शन ने उम्मीद के खिलाफ कलाकारों का उनके कद के मुताबिक इस्तेमाल नहीं किया। फिल्म में ऐसे कई सीन हैं जो और बेहतर हो सकते थे।

फिल्म के आरंभिक हिस्से में जहाँ बैकग्राऊँड म्यूजिक की जरूरत थी वहाँ भी सन्नाटा मिला। कैमरा वर्क कमजोर है। गणेश की कोरियोग्राफी में फिनिशिंग नहीं दिखी। प्रीतम से यादगार संगीत की उम्मीद करना ही बेमानी है।

फिल्म में सिनेमैटिक लिबर्टी के नाम पर जल्दबाजी दिखाई गई है। कुछ सीन दर्शकों को रोमांचित भी करते हैं, जैसे संजय राणा सचिन की बहन को छेड़ता है तब वह उसके ऑफिस जाकर उसे बड़े अनूठे अंदाज में निपटाता है। यह सीन आम दर्शकों की अपेक्षाओं के अनुरूप लिखा गया है। जहाँ सचिन बेहद प्यार से कमरे में संजय को लेकर जाता है और उसकी तबियत से धुलाई करने के बाद कहता है बाहर जाकर कुछ मत बताना, मैं भी कुछ नहीं कहूँगा। चलो कंघी करो, मुस्कुराते हुए बाहर चलो। यहाँ आम फिल्म प्रेमी यह मान बैठता है कि बहन भाई की लाड़ली है। यहाँ अक्षय का कैरेक्टर कहीं-कहीं उलझा हुआ है। कभी तो वह सबका सामना करने में सक्षम है और कभी इतना बेबस कि बहन की शादी भाई और जीजाओं के कहने से मवाली संजय राणा से होने देता है।

मूलत: सचिन ईमानदार है लेकिन बेइमान भी उसे होना पड़ता है। अक्षय ने अभिनय में अपनी और से कोई कसर नहीं छोड़ी लेकिन एडिटिंग की घोर गलतियों के चलते फिल्म को वे अपने दम पर खींच पाएँगे इसमें शक है। अभिनेत्रत्रिशसाधारलगी

ND
फिल्म में जहाँ हल्के-फुल्के संवाद से काम चल सकता था वहाँ अनावश्यक रूप से उपदेश डाले गए हैं जो असरकारी नहीं है। जहाँ गंभीर अभिनय की जरूरत थी वहाँ उस तरह के सीन ही नहीं लिखे गए। यह फिल्म उन दर्शकों को पसंद आएगी जो समाज की व्यवस्थाओं से खफा है और समाज के लिए कुछ सोचते हैं। इस फिल्म को समाज पर लिखा गया व्यंग्य माना जा सकता है लेकिन व्यंग्य की अपनी कुछ शर्ते होती है ‍खासकर हास्य के रैपर में लपेट कर उससे चुटीला बनाया जा सकता था।

प्रियदर्शन जैसे सफल हास्य फिल्म निर्देशक इस मामले में असफल रहे। एक नया मुद्दा उठाने और उसे सीधे-सीधे रखने के साहस की तारीफ करनी होगी। मगर कुछ पहलुओं पर थोड़ी और बारीकी से काम किया होता तो एक उम्दा फिल्म दर्शकों तक पहुँच सकती थी। फिलहाल, तमाम कमियों के बावजूद एक ठीक-ठाक फिल्म की श्रेणी में इसे रखा जा सकता है। कमजोर संपादन ने इसे खट्टा नहीं किया होता तो दर्शकों का मीठा प्यार अक्षय की झोली में जाने से कोई नहीं रोक सकता था।