पुष्पा 2 अल्लू अर्जुन की फिल्म कितनी है दमदार, चेक करें रिव्यू
फिल्म के पहले भाग में पुष्पा का उदय बताया गया था। चंदन की लकड़ी स्मगलिंग करने वालों के बीच एक मजदूर पुष्पा (अल्लू अर्जुन) अपनी जगह बनाता है और पार्टनर बन जाता है। फिल्म के दूसरे भाग में पुष्पा का राज बताया गया है। अब वह चमकीले और रंगीले कपड़े पहनता है। ढेर सारा सोना उसके गले, कलाई और उंगलियों में नजर आता है। नेल पेंट लगाता है। महल में रहता है। खुद का उसके पास हेलीकॉप्टर है। अपराधियों के सिंडीकेट का वह लीडर बन चुका है। वह अब इंटरनेशनल प्लेयर बन चुका है।
पुष्पा द राइज, एक अहम मोड़ पर समाप्त हुई थी। फिल्म खत्म होने के पहले एसपी भंवर सिंह शेखावत (फहद हासिल) की एंट्री होती है और दोनों की दुश्मनी खतरनाक मोड़ लेती है। पुष्पा द राइज देखने के बाद ये उम्मीद जानती है कि पुष्षा और शेखावत की जोरदार टक्कर पुष्पा द रूल में देखने को मिलेगी।
कहानी और स्क्रिप्ट लिखने वाले बी सुकुमार, जो फिल्म के डायरेक्टर भी हैं, ने पुष्पा और शेखावत की टक्कर वाले सीन रचे तो हैं, लेकिन इनमें बहुत ज्यादा रोमांच नहीं है। इसकी एक वजह ये है कि पुष्पा और शेखावत बराबर के नहीं लगते।
पुष्पा द रूल में बताया गया है कि पुष्पा अब हजार करोड़ की डील करता है, यानी उसके पास खूब सारी संपत्ति है। वह बैठे-बैठे प्रदेश का मुख्यमंत्री बदलवा लेता है, यानी उसके पास पावर भी है। पुष्पा बहुत ताकतवर और पहुंच वाला आदमी है, उसकी तुलना में शेखावत एक पुलिस ऑफिसर है। इसलिए दोनों की टक्कर बराबरी की नहीं लगती। ऐसा लगता है कि पुष्पा जैसे के लिए शेखावत बेहद मामूली इंसान है और वह बेहद आसानी से शेखावत का नुकसान कर सकता है, ऐसे में शेखावत का लगातार पुष्पा को चैलेंज देते रहना जंचता नहीं है।
तर्क को छोड़ दिया जाए तो दोनों की टक्कर में दर्शकों का बहुत मनोरंजन भी नहीं होता। पुष्पा का शेखावत को सॉरी बोलने वाला पूरा घटनाक्रम बिना किसी ठोस कारण के फिल्म में रखा गया है। सिंडिकेट वाले बेहद खतरनाक अपराधी हैं और उनके लिए शेखावत से हाथ मिलाना इतना जरूरी क्यों है, इसका उत्तर फिल्म में नहीं मिलता।
पुष्पा-शेखावत की दुश्मनी वाली बात को जब निर्देशक सुकुमार ज्यादा दूर तक नहीं ले पाए, तो उन्होंने फिल्म में एक और विलेन की एंट्री करवा दी ताकि पुष्पा 3 में इसे दिखाया जाए। इस विलेन को लेकर सुकुमार ने जो कहानी लिखी है, वो कोई नौसिखिया भी लिख दे। लड़की को उठा कर ले जाओ और हीरो बचाने के लिए आए, यह बात हजारों फिल्मों में दोहराई जा चुकी है।
पहले पार्ट की तरह दूसरे पार्ट में भी कैरेक्टर कहानी पर भारी पड़ता है। फिल्म का पहला घंटा पुष्पा के स्वैग और अकड़ पर खर्च किया गया है, लेकिन सीन उतने मजेदार नहीं है क्योंकि पहली फिल्म में हम वो सब देख चुके हैं और अब की बार नई बात नजर नहीं आती। हां, स्कैल बहुत बढ़ गया है, लेकिन मनोरंजन उस अनुपात में नहीं बढ़ा।
सुकुमार ने पुष्पा के किरदार पर खूब फोकस किया है और इसका असर कहानी और फिल्म के अन्य किरदारों पर भी पड़ता है। पुष्पा के स्वैग को दिखाने की खातिर कहानी से समझौता किया गया है और दूसरे किरदार उभर नहीं पाते, इससे फिल्म का खासा नुकसान होता है। अल्लू अर्जुन के फैंस इस बात को आसानी से इग्नोर कर देंगे, लेकिन दूसरे दर्शकों पर ये कमियां असर करती है।
सुकुमार ने फैंस को खूब सारा अल्लू परोसा है इसलिए फिल्म 200 मिनट तक फैल गई है। दृश्यों को इतना लंबा रखा गया है कि वे खींचे हुए लगते हैं। पुष्पा की चालाकियां और स्मार्टनेस की इस बार कमी लगती है।
दूसरी ओर कुछ सीक्वेंस जोरदार भी हैं, जैसे क्लाइमैक्स में पुष्पा का मुंह से लड़ना, फिल्म का ओपनिंग सीक्वेंस जिसमें पुष्पा जापान में लड़ते हुए नजर आता है, पुष्पा का शेखावत को सॉरी कहने के बाद फिर पार्टी में लौट कर हंगामा करना, पुष्पा का मां काली के रूप में भेष बना कर डांस करना।
स्क्रिप्ट की कमियों को सुकुमार ने अपने निर्देशन के जरिये कवर करने की कोशिश की है। उनकी मेकिंग शानदार है। पुष्पा का स्वैग जो फिल्म का यूएसपी है, उसे बखूबी उभारा है।
एक स्टार किस तरह से फिल्म में अंतर पैदा करता है, उसका अल्लू अर्जुन उदाहरण है। उन्होंने पुष्पा के किरदार को जिस तरह से जिया है वो दर्शकों में दीवानगी और उन्माद पैदा करता है। पुष्पा की अकड़, एक कंधा ऊंचा रखना, बैठने का स्टाइल, बोलने का तरीका उनकी एक्टिंग की रेंज को दिखाता है। पुष्पा के किरदार को उन्होंने दर्शकों के दिमाग में इस तरह बैठा दिया है, उन पर ऐसा जादू कर दिया है कि उन्हें पुष्पा के अलावा कुछ और नजर नहीं आता। पुष्पा द रूल में भी वे छाए हुए हैं और फिल्म देखने का एक बहुत बड़ा कारण है।
रश्मिका मंदाना इस बार पति के लिए खाना लगाते, उसकी आरती उतारते ज्यादा नजर आई। उन्हें निर्देशक ने एक-दो ही सीन दिए हैं जहां उन्हें एक्टिंग दिखाने का मौका मिला है।
फहाद फासिल ने छोटे से रोल में पहले पार्ट में जिस तरह का खौफ पैदा किया था, वैसा दूसरे भाग में लंबे रोल में वे पैदा नहीं पर पाए। इसमें लेखक का भी दोष है।
मिरोस्लाव कुबा ब्रोज़ेक की सिनेमाटोग्राफी शानदार है। फिल्म में रंगों का बहुत उपयोग है, चाहे पुष्पा के शर्ट हो, घर हो, सेट हो, इन रंगों के संयोजन को बखूबी पकड़ते हुए एक अलग ही लुक ब्रोज़ेक ने दिया है। नवीन नूली का संपादन चुस्त नहीं है, शायद उन पर निर्देशक का दबाव हो। फिल्म का बैकग्राउंड म्यूजिक, प्रोडक्शन वैल्यू और अन्य तकनीकी पक्ष बहुत मजबूत है। फिल्म के गाने खास नहीं है।
पुष्पा द रूल, पुष्पा द राइज से आगे नहीं निकल पाती है। अल्लू अर्जुन का स्टारडम और कुछ जोरदार एक्शन सीन ही फिल्म का हासिल है।