मर्डर मिस्ट्री फिल्म 'निर्दोष' में बजाय रोमांच के रोंगटे खड़े होने के नींद की झपकियां आने लगे तो दोष किसका है? दोष है लेखक का। कहानी इतनी लचर है कि क्राइम पेट्रोल का एपिसोड इससे ज्यादा अच्छा लगता है।
शनाया ग्रोवर (मंजरी फडणीस) पर हत्या का आरोप है। वह एक सामान्य महिला है, लेकिन इस केस में दिलचस्पी मुंबई से लेकर तो दिल्ली तक है। लोग रेडियो और टीवी से चिपक कर इस केस के बारे में जानकारी लेते हैं जिस पर हैरान होती है।
मर्डर किसका हुआ है ये आधे घंटे बाद पता चलता है। इसके पहले खूब शोर मचाया जाता है। दर्शक हैरान रहता है कि आखिर चीख-पुकार क्यों हो रही है? इसके बाद लेखकों ने यह बताने में लंबा समय ले लिया कि यह मर्डर कहां हुआ है? इन बातों को इतनी देर बार उजागर करने का कोई औचित्य नजर नहीं आता। कई सीन बेवजह रखे गए हैं। कहानी में रिश्तों का भी झोल है। पत्नी बड़ी आसानी से उस पति को माफ करती नजर आती है जो रिश्ते में बेईमानी करता है।
दोष निर्देशक का भी है। सुब्रतो पॉल और प्रदीप रंगवानी ने मिलकर निर्देशन किया है। कई बार रसोई इसलिए भी बिगड़ जाती है जब एक से ज्यादा रसोइए हो जाते हैं। पहले मिनट से तो आखिरी मिनट तक फिल्म नकली लगती है। दर्शक कोई जुड़ाव फिल्म से महसूस नहीं करता।
फिल्म का लंबा हिस्सा लॉक-अप में फिल्माया गया है जहां पर शनाया से पूछताछ चलती है। ये सीन अत्यंत उबाऊ हैं। लोखंडे (अरबाज खान) को बहुत कड़क पुलिस ऑफिसर बताया गया है और ऐसा वो खुद ही बोलता रहता है। यानी निर्देशकों से ऐसे सीन नहीं बने जिसके जरिये लोखंडे को काबिल और कड़क अफसर बताए। वह बेवजह चिल्लाता रहता है।
निर्देशक ने अपना प्रस्तुतिकरण ऐसा रखा है कि पूछताछ चल रही है और बीच-बीच में घटनाक्रम दिखाए जाते हैं, लेकिन इसे वे ना मनोरंजक बना पाए और न ही रोमांचक। पूछताछ के दौरान काम वाली बाई, सिक्यूरिटी गॉर्ड, लिफ्ट मैन के जरिये कॉमेडी पैदा करने की कोशिश की गई है, लेकिन मजाल है जो मुस्कान भी चेहरे पर आ जाए।
दोष कलाकारों का भी है। मुकुल देव ही खलनायक के रूप में अपनी छाप छोड़ते नजर आए, बाकी का तो हाल बेहाल है। अरबाज खान अभिनय के नाम पर चीखते-चिल्लाते दिखाई दिए। वे ऐसे पुलिस ऑफिस बने जो खाकी नहीं पहनता क्योंकि खाकी तो उसके दिल में बसी है।
मंजरी फडणीस का काम रोना-धोना था। अश्मित पटेल और अभिनय में छत्तीस का आंकड़ा है। 'कत्ल' को वे 'कतल' बोलते हैं। महक चहल को निर्देशक ने ज्यादा फुटेज ही नहीं दिए।
फिल्म के संवाद बहुत भारी-भरकम हैं। अंग्रेजी स्टाइल में हिंदी बोलने वाले अश्मित पटेल के मुंह से ये सुनना आसान नहीं है। ऐसे कलाकार भारी संवादों का बोझ ही नहीं उठा पाते। एक-दो गाने ठीक-ठाक हैं।
कुल मिलाकर 'निर्दोष' को बेकार बनाने में इससे जुड़े सभी लोग दोषी हैं।