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Written By समय ताम्रकर

नो वन किल्ड जेसिका : फिल्म समीक्षा

नो वन किल्ड जेसिका
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बैनर : यूटीवी स्पॉट बॉय
निर्माता : रॉनी स्क्रूवाला
निर्देशक : राजकुमार गुप्ता
संगीत : अमित त्रिवेदी
कलाकार : रानी मुखर्जी, विद्या बालन
सेंसर सर्टिफिकेट : ए * 2 घंटे 17 मिनट * 16 रील
रेटिंग : 3/5

आम इंसान को इंसाफ नहीं मिलने की कहानी पर बॉलीवुड में कई फिल्में बन चुकी हैं, लेकिन ‘नो वन किल्ड जेसिका’ इसलिए प्रभावित करती है कि यह एक सत्य घटना पर आधारित है।

‘नो वन किल्ड जेसिका’ उन फिल्मों से इसलिए भी अलग है क्योंकि इसमें कोई ऐसा हीरो नहीं है जो कानून हाथ में लेकर अपराधियों को सबक सीखा सके। यहाँ जेसिका के लिए एक टीवी चैनल की पत्रकार देशवासियों को अपने साथ करती है और अपराधी को सजा दिलवाती है।

जेसिका को सिर्फ इसलिए गोली मार दी गई थी क्योंकि उसने समय खत्म होने के बाद ड्रिंक सर्व करने से मना कर दिया था। हत्यारे पर शराब के नशे से ज्यादा नशा इस बात का था कि वह मंत्री का बेटा है। उसके लिए जान की कीमत एक ड्रिंक से कम थी।

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300 से ज्यादा हाई प्रोफाइल लोग उस समय मौजूद थे जब जेसिका को गोली मारी गई, लेकिन किसी ने जेसिका के पक्ष में गवाही नहीं दी। दूसरी ओर मंत्री होने का फायदा उठाया गया। गवाहों को खरीद लिया गया या धमका दिया। रिपोर्ट्स बदल दी गई। जेसिका की बहन सबरीना करोड़ों भारतीयों की तरह एक आम इनसान होने के कारण लाख कोशिशों के बावजूद अपनी बहन को न्याय नहीं दिला पाई।

टीवी चैनल पर काम करने वाली मीरा को धक्का पहुँचता है कि जेसिका का हत्यारा बेगुनाह साबित हो गया। वह मामले को अपने हाथ में लेती है। गवाहों के स्टिंग ऑपरेशन करती है और जनता के बीच इस मामले को ले जाती है। चारों तरफ से दबाव बनता है और आखिरकार हत्यारे को उम्रकैद की सजा मिलती है।

फिल्म यह दर्शाती है कि यदि मीडिया अपनी भूमिका सही तरह से निभाए तो कई लोगों के लिए यह मददगार साबित हो सकता है। साथ ही लोग कोर्ट, पुलिस, प्रशासन से इतने भयभीत हैं कि वे चाहकर पचड़े में नहीं पड़ना चाहते हैं। इसके लिए बहुत सारा समय देना पड़ता है जो हर किसी के बस की बात नहीं है। फिल्म सिस्टम पर भी सवाल उठाती जिसमें ताकतवर आदमी सब कुछ अपने पक्ष में कर लेता है।

राजकुमार गुप्ता ने फिल्म का निर्देशन किया है और आधी हकीकत आधा फसाना के आधार पर स्क्रीनप्ले भी लिखा है। उन्होंने कई नाम बदल दिए हैं। एक वास्तविक घटना पर आधारित फिल्म को उन्होंने डॉक्यूमेंट्री नहीं बनने दिया है, बल्कि एक थ्रिलर की तरह इस घटना को पेश किया है। लेकिन कहीं-कहीं फिल्म वास्तविकता से दूर होने लगती है।

इंटरवल के पहले फिल्म तेजी से भागती है, लेकिन दूसरे हिस्स में संपादन की सख्त जरूरत है। ‘रंग दे बसंती’ से प्रेरित इंडिया गेट पर मोमबत्ती वाले दृश्य बहुत लंबे हो गए हैं। कुछ गानों को भी कम किया जा सकता है जो फिल्म की स्पीड में ब्रेकर का काम करते हैं।

सारे कलाकारों के बेहतरीन अभिनय के कारण भी फिल्म अच्छी लगती है। रानी मुखर्जी के किरदार को हीरो बनाने के चक्कर में यह थोड़ा लाउड हो गया है। फिर भी होंठों पर सिगरेट और गालियाँ बकती हुई एक बिंदास लड़की का चरित्र रानी ने बेहतरीन तरीके से निभाया है।

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रानी का कैरेक्टर मुखर है तो विद्या बालन का खामोश। विद्या ने सबरीना के किरदार को विश्वसनीय तरीके से निभाया है। उन्होंने कम संवाद बोले हैं और अपने चेहरे के भावों से असहायता, दर्द, और आक्रोश को व्यक्त किया है। इंसपेक्टर बने राजेश शर्मा और जेसिका बनीं मायरा भी प्रभावित करती हैं।

अमित त्रिवेदी ने फिल्म के मूड के अनुरुप अच्छा संगीत दिया है। ‘दिल्ली’ तो पहली बार सुनते ही अच्‍छा लगने लगता है। फिल्म के संवाद उम्दा हैं।

जेसिका को किस तरह न्याय मिला, यह जानने के लिए फिल्म देखी जा सकती है। साथ ही उन जेसिकाओं को भी खयाल आता है, जिन्हें अब तक न्याय नहीं मिल पाया है।