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Last Updated : गुरुवार, 23 अप्रैल 2020 (11:31 IST)

सत्यजित राय की फिल्में नहीं देखी तो आप दुनिया में बिना सूरज या चाँद देखे रह रहे हैं

सत्यजित राय की फिल्में नहीं देखी तो आप दुनिया में बिना सूरज या चाँद देखे रह रहे हैं - Satyjit Ray, Film Director, Pather Panchali, Akira Kurusova
पाथेर पांचाली', 'देवी' 'चारुलता', 'शतरंज के खिलाड़ी' जैसी लोकप्रिय फिल्में देने वाले सत्यजित राय अपने समय से बहुत आगे थे। उनकी सोच और नजरिया एक आम इनसान से बहुत ही भिन्न था। देश को ये अमर फिल्में बनाने वाले सत्यजित राय कभी किताबों के आवरण (कवर) बनाया करते थे, यह बात कम ही लोग जानते होंगे।
 
दो मई 1921 को कलकत्ता में जन्मे सत्यजित राय ने शुरुआत में विज्ञापन एजेंसी में बतौर जूनियर विज्युलाइजर काम शुरू किया था। इसी दौरान उन्होंने कुछ बेहतरीन किताबों के आवरण बनाए जिनमें से मुख्य थी जिम कार्बेट की 'मैन इटर्स ऑफ कुमायू' और जवाहरलाल नेहरु की 'डिस्कवरी ऑफ इंडिया'।
 
तब कौन जानता था कि किताबों के आवरण बनाने वाला लड़का अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान बनाने वाला पहला भारतीय फिल्मकार बन जाएगा। राय न केवल एक बेहतरीन लेखक बल्कि अलहदा दृष्टिकोण के फिल्मकार थे। उनकी पहली फिल्म पाथेर पांचाली ने अनेक अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार जीते जिसमें कान फिल्म फेस्टिवल का 'श्रेष्ठ मानवीय दस्तावेज' का सम्मान भी शामिल है।
 
'पाथेर पांचाली' को बनाने के लिए राय को काफी संघर्ष करना पड़ा, यहाँ तक कि अपनी पत्नी के जेवर भी गिरवी रखने पड़े थे पर इस फिल्म की सफलता ने उनके साराय कष्ट दूर कर दिए।
 
सत्यजित दा को परिभाषित करने के लिए महान जापानी फिल्मकार अकीरा कुरासोवा का यह कथन काफी है कि यदि आपने सत्यजित राय की फिल्में नहीं देखी हैं तो इसका मतलब आप दुनिया में बिना सूरज या चाँद देखे रह रहे हैं।
 
अपने जमाने की प्रसिद्ध हीरोइन वहीदा रहमान कहती हैं कि राय का नजरिया बिल्कुल साफ था। वे अन्य फिल्मकारों से बिलकुल जुदा थे। राय को पता था कि किस कलाकार से किस तरह का काम उन्हें चाहिए।
 
निदेशक बरुआ कहते हैं कि राय भारत में पहले फिल्म निर्माता थे, जिन्होंने विश्व सिनेमा की अवधारणा का अनुसरण किया। भारतीय सिनेमा में आधुनिकतावाद लाने का श्रेय भी उन्हीं को जाता है। उनकी फिल्में हमेशा यथार्थ पर केन्द्रित रहीं और उनके चरित्रों को हमेशा आम आदमी के साथ जोड़ा जा सकता है।
 
उन्होंने कहा कि 'पाथेर पांचाली', 'अपूर संसार' तथा 'अपराजिता' में सत्यजित राय ने जिस सादगी से ग्रामीण जनजीवन का चित्रण किया है वह अद्भुत है। 'चारूलता' में उन्होंने मात्र सात मिनट के संवाद में चारू के एकाकीपन की गहराई को छू लिया है। उन्होंने अपनी हर फिल्म इसी संवेदनशीलता के साथ गढ़ी।
 
शर्मिला टेगौर के मुताबिक सत्यजित राय बड़ी आसानी से मुश्किल से मुश्किल काम करवा लेते थे। अर्मत्य सेन के मुताबिक राय विचारों का आनंद लेना और उनसे सीखना जानते थे। यही उनकी विशेषता थी।
 
चार्ली चैपलिन के बाद राय फिल्मी दुनिया के दूसराय व्यक्ति थे जिसे आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय ने डॉक्टरेट की उपाधि से नवाजा था। उन्हें भारत रत्न दादा साहेब फालके मानद आस्कर एवं अन्य कई पुरस्कारों से देश-विदेश में सम्मानित किया गया था।
 
सत्यजित दा की अनोखी कल्पनाशीलता का पता 'फेलूदा तोपसे' और 'प्रो.शंकू' के कारनामों से सजी उनकी कहानियों से चलता है। ऐसा लगता है जैसे वे भविष्य में झाँकने की शक्ति रखते थे। उनके द्वारा ईजाद किए हुए फेलूदा और प्रो.शंकू के किरदार आज भी लोगों को गुदगुदाते हैं और उनके कारनामों में आज भी उतनी ही ताजगी महसूस होती है जितनी तब जब ये लिखे गए थे।
 
फेलूदा की लोकप्रियता तो इतनी अधिक है कि उसे देसी शरलक होम्स कहा जाता है। भारत के अन्य किसी भी उपन्यासकार या लेखक के किरदार को इतनी लोकप्रियता नहीं मिली है जितनी कि राय के फेलूदा और प्रो. शंकू को मिली।
 
राय की प्रतिभा से प्रभावित पूर्व प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने उनसे रवीन्द्रनाथ टेगौर पर वृत्तचित्र बनाने का आग्रह किया था।
 
कुछ आलोचकों को कहना था कि राय की फिल्में बहुत ही धीमी गति की होती हैं, पर उनके प्रशंसक इन आलोचनाओं का कड़ा जवाब यह कहकर देते थे कि उनकी फिल्में धीमी बहती नदी के समान हैं जो सुकून देती हैं।
 
राय की लोकप्रियता का इसी से पता चलता है कि बीबीसी ने उनके किरदार फेलूदा की दो कहानियों को अपने रेडियो कार्यक्रम में शामिल करने की घोषणा की थी।
 
सत्यजित राय23 अप्रैल 1992 को इस दुनिया से विदा हुए। उस समय हजारों प्रशंसकों ने कलकत्ता स्थित उनके निवास के बाहर एकत्रित होकर उन्हें श्रद्धांजलि दी थी।