ध्वस्त हुईं इमारतें और पुल, हर पचास गज की दूरी पर कटी हुईं सड़कें, घाटियों और बीहड़ों के बीच से होकर गुजरने वाली कच्ची सड़कों पर टूटे हुए पेड़, यह युद्ध क्षेत्र है। संगीनें खिंची हुई हैं और अब आर पार की लड़ाई की पृष्ठभूमि तैयार हो चुकी है। एक तरफ़ माओवादी छापामार हैं तो दूसरी तरफ सुरक्षाबलों के जवान।
चिंतलनार को माओवादियों की राजधानी कहा जाता रहा है, लेकिन ऐसा नहीं है कि यहाँ इनका कोई मुख्यालय स्थित हो या कोई कार्यालय, मगर कहा जाता है कि चिंतलनार के बीहड़ों से ही वह अपनी समानांतर 'जनता सरकार' चलाते हैं। इसीलिए यहाँ के संपर्क मार्गों को काफी कठिन बना कर रखा गया है। माओवादियों की मर्जी के खिलाफ यहाँ न कोई आ सकता है और न यहाँ से जा सकता है।
दोरनापाल से चिंतलनार तक का सफर कोई आसान नहीं है। सीमित वाहन और कुछ चुनिंदा लोग ही इस सड़क पर आते जाते हैं। पिछले छह अप्रैल से इस मार्ग पर वाहनों की आवाजाही बंद है क्योंकि उसी दिन सुबह यह इलाका गवाह बना भारत के इतिहास के सबसे बड़े नक्सल हमले का। जिसमें सुरक्षाबलों के 76 जवानों को अपनी जान गँवानी पड़ी।
दोरनापाल से सीधी सड़क कोंटा की तरफ जाती है और दाहिने वाली सड़क जगरगुंडा तक जो 70 किलोमीटर की दूरी पर है। हमें पता चला कि चिंतलनार तक तो हम किसी तरह पहुँच सकते हैं। मगर वहाँ से जगरगुंडा का रास्ता कटा हुआ है। एक लंबे अरसे से यहाँ वाहन नहीं चल रहे हैं।
नक्सली गढ़ का सफर : दोरनापाल नामक कस्बे के चौराहे पर खड़े कुछ युवकों की यह सलाह थी, 'प्रेस वाले जा सकते हैं। घटना के बाद प्रेस के जाने पर कोई प्रतिबंध नहीं है। हो सकता है की बीहड़ों में छापामार दस्ते के लोग आपको रोकें। अपना परिचय दे दीजिएगा। आप जा सकते हैं।'
पहला पुलिस कैंप हमें दोरनापाल से मुड़ते ही मिला। रेत की बोरियों के पीछे सिमटे हुए जवान सड़क पर चलने वालों पर पैनी नजर रख रहे थे। कैंप के बाहर कोई हलचल नहीं थी।
दूसरा कैंप पोल्लमपल्ली में मिला। जवान अपने कैंप में और बहार सड़क पर मौजूद चेक नाके पर किसी का अता पता नहीं। बाँस गिरा हुआ था। हमें बताया गया कि हमें गाड़ी से खुद उतरकर इस बाँस को हटाना है और फिर खुद इसे बंद करना भी है। जवान कैंप से बाहर नहीं आएँगे।
यह रणभूमि है और यहाँ कोई भी चूक महँगी पड़ सकती है। शायद छह अप्रैल को चिंतलनार में ऐसा ही हुआ था। स्थिति की थोड़ी सी अनदेखी और इतने खतरनाक परिणाम।
जगह-जगह पर कटी हुई सड़कों पर समझ नहीं आ रहा था कि किस परिवर्तित रास्ते से जाया जाए। ध्वस्त किए गए रास्तों पर हमारी गाड़ी बमुश्किल पार हो तो रही थी मगर कलेजा मुँह को आ रहा था। कहा जाता है कि इस रोड पर कहाँ बारूदी सुरंग बिछी हुई है यह खुद माओवादी भी भूल गए हैं।
चिंतागुफा थाने पर स्थित कैंप के पास के चेक नाके पर हमें जवानों के रजिस्टर पर एंट्री करनी पड़ी। हमें बताया गया कि एंट्री करने से यह पता चल जाएगा कि कौन वापस लौट गया और कौन रह गया।
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चेक नाके पर तैनात जवान ने हमसे कहा, 'यहाँ से चिंतलनार 15 किलोमीटर दूर है। सड़क खराब है सावधानी से जाएँगे।' छह अप्रैल की घटना में चिंतागुफा कैंप के 13 जवान भी मारे गए थे इसलिए यहाँ तैनात जवानों में मातम और आक्रोश खत्म नहीं हुआ है।
इस रास्ते को देख कर लगता है कि माओवादी नहीं चाहते कि कोई इस इलाके में आए। यह फिर इस इलाके को ऐसा मुश्किल बना दें कि सुरक्षा बलों के जवान यहाँ आसानी से न पहुँच पाएँ. और अगर आएँ भी तो उन्हें बारूदी सुरंगों के जाल का सामना करना पड़े।
यूँ तो पूरे बस्तर में खौफ का साया है मगर छह अप्रैल की घटना के बाद हालात और गंभीर बने हुए हैं। सुदूर ग्रामीण और जंगली क्षेत्रों में अब मौत का डर बड़े पैमाने पर लोगों को पलायन करने पर मजबूर कर रहा है। घटना के बाद से दोरनापाल से लेकर चिंतलनार और चिंतलनार से लेकर जगरगुंडा तक सन्नाटा पसरा हुआ है।
चिंतलनार से महज चार किलोमीटर पहले कच्ची सड़क पर हमें उस बारूदी सुरंग निरोधक वाहन के अवशेष मिले जिसे छह अप्रैल को माओवादियों नें विस्फोट कर उड़ा दिया था. घटना के कई दिनों बाद भी इस वाहन के टुकड़े अभी तक इधर-उधर बिखरे पड़े थे। विस्फोट के कारण हुए गड्ढे को देख कर और वाहन के बिखरे हुए कलपुर्जों को देख कर अंदाजा लगाया जा सकता है कि धमाका कितना जोरदार था।
दंतेवाड़ा जिला मुख्यालय से लगभग 150 किलोमीटर दूर स्थित चिंतलनार के लोग बताते हैं कि पिछले सात दिनों से वह अपने-अपने घरों में सिमटे हुए हैं। इस इलाके में हर मंगलवार को बाजार भी लगता है जो इस बार नहीं लगा।
चिंतलनार के एक ग्रामीण नें बीबीसी को बताया, 'बाजार तो लगा मगर इसमें कोई ग्रामीण नहीं आया। चिंतलनार के मंगल बाजार में सुदूर जंगली क्षेत्रों से आदिवासी आया करते हैं, मगर घटना के बाद से सब अपने घरों में सिमट गए हैं।'
युद्ध क्षेत्र : यहाँ कब क्या होगा कोई नहीं जानता। एक युद्ध क्षेत्र में रहने का खामियाजा लोगों को भुगतना पड़ रहा है। चूँकि यहाँ बिजली नहीं है इसलिए हर रात और ज्यादा अंधेरी और खौफजदा बन जाती है।
घटना के बाद से इस इलाके के कई गाँव वीरान हो गए हैं। खौफजदा ग्रामीण अपना घर छोड़ कर दूसरी जगहों पर चले गए हैं। पुलिस के लोग कहते हैं कि बहुत सारे लोग तो घटना के पहले से ही यहाँ से पलायन कर चुके हैं।
चिंतलनार के ही काशीनाथ सिंह कहते हैं, 'कौन रहेगा यहाँ। भूख और दहशत के बीच कितने दिनों तक यहाँ रहा जा सकता है? एक-एक कर लोग अब भाग रहे हैं। हमारे गाँव में भी पाँच घरों में ताले लटके हुए हैं। बगल के आदिवासी टोले में भी कई परिवार पलायन कर चुके हैं।
चिंतलनार में ही वह सीआरपीएफ का कैंप है जहाँ से सबसे ज्यादा जवान छह अप्रैल की घटना में मारे गए थे। सुबह छह बजे से दो घंटों तक चली मुठभेड़ का गाँव वालों की तरफ से कोई प्रत्यक्षदर्शी नहीं है। जिससे पूछो वह यही कहता है, 'हमने कुछ नहीं देखा। हम अपने घरों में थे। सिर्फ आवाजें सुन रहे थे।'
कैंप चिंतलनार के अंदर है मगर यहाँ तैनात कोई जवान बाहर नहीं आता है। जवान हर किसी को शक की नजर से देखते हैं। यहाँ कोई किसी पर भरोसा नहीं करता है। शायद युद्ध क्षेत्र में ऐसा ही होता है।