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Written By BBC Hindi
Last Modified: शनिवार, 12 अगस्त 2023 (07:55 IST)

चीन में गिरती कीमतें क्यों हैं दुनिया के लिए चिंता की बात, भारत पर क्या होगा असर

Xi Jinping
मानसी दाश, बीबीसी संवाददाता
चीन की अर्थव्यवस्था एक नई परेशानी से जूझ रही है। बीते दो सालों के वक्त में पहली बार इस साल जुलाई में देश में उपभोक्ता सामान की क़ीमतें सामान्य से कम रही हैं। महंगाई को आंकने वाले उपभोक्ता सूचकांक के अनुसार बीते महीने चीज़ों की क़ीमतें सालभर पहले की स्थिति के मुक़ाबले 0.3 फ़ीसदी और कम हो गई हैं।
 
देश डीफ्लेशन यानी अवस्फ़ीति की स्थिति का सामना कर रहा है। अवस्फ़ीति की स्थिति तब पैदा होती है जब बाज़ार में चीज़ों की मांग कम हो जाती है, या तो उत्पादन ज़रूरत से अधिक होता है या फिर उपभोक्ता पैसा खर्च नहीं करना चाहता।
 
जानकार मानते हैं कि चीन पर ये दबाव बन गया है कि वो बाज़ार में मांग बढ़ाने के लिए कोशिश करे और घरेलू बाज़ार में स्थिरता लाए। इससे पहले आठ अगस्त को चीन के आयात-निर्यात पर रिपोर्ट आई थी, जिसमें कहा गया कि बीते महीने देश का आयात और निर्यात दोनों ही कम रहा।
 
इसके बाद सवाल उठने लगे कि कोविड महामारी के बाद देश की अर्थव्यवस्था उस गति से नहीं उभर नहीं पा रही जिसकी उम्मीद की जा रही थी?
 
या फिर कहीं ऐसा तो नहीं कि हाल के वक्त में चीन ने आर्थिक स्थिति में बड़े बदलाव करने की जो नीति अपनाई है, ये उसका नतीजा है?
 
अगर सस्ता चीनी सामान दुनिया के बाज़ार में पहुँच गया तो दूसरे देशों की कंपनियों पर नकारात्मक असर पड़ेगा। इससे कई देशों में बेरोज़गार बढ़ जाएगा। इससे कंपनियों के मुनाफ़े पर भी असर पड़ेगा।
 
चीन के सामने मौजूद मुश्किलें
कोविड महामारी का मुक़ाबला करने के लिए चीन ने 2020 में बेहद कड़ी पाबंदियां लगाई थीं। दुनिया के सभी देश महामारी के असर से बाहर निकले और धीरे-धीरे स्थिति सामान्य होने लगी, चीन की अर्थव्यवस्था संकट से जूझ रही थी।
 
एक तरफ महामारी के कारण सप्लाई चेन ठप पड़ गई थी और चीन का घरेलू बाज़ार लगभग थम गया तो दूसरी तरफ अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अमेरिका समेत कुछ और देश चीन से व्यापारिक रिश्ते तोड़ने की बात कर रहे थे।
 
मंगलवार को अधिकारियों ने देश के आयात-निर्यात से जुड़े आंकड़े जारी किए। इसके अनुसार बीते साल जुलाई के मुक़ाबले चीन का निर्यात इस साल जुलाई में 14.5 फ़ीसदी कम रहा जबकि उसका अयात 12.4 फ़ीसदी गिरा।
 
चीन में स्थानीय सरकारें कर्ज़ के बोझ तले दबी हैं, भ्रष्टाचार रोकने के लिए नियामक कंपनियों पर नकेल कसने की कोशिश में लगे हैं और युवाओं में बेरोज़गारी रिकॉर्ड स्तर पर है।
 
कुछ जानकार मानते हैं कि ये आंकड़े चिंता का सबब बन सकते हैं। अगर स्थिति कुछ और वक्त तक जारी रही तो चीन की आर्थिक विकास दर इस साल और कम रह सकती है। देश में खर्च पहले ही कम है, इस कारण उत्पादन भी कम हो सकता है जो बेरोज़गारी भी बढ़ सकती है।
 
हालांकि ये बात भी सच है कि मौजूदा वक्त में चीन घरेलू स्तर पर भी बड़ी उथल-पुथल से जूझ रहा है। उसका बीते कुछ वक्त से रीयल इस्टेट बाज़ार मुश्किलों से घिरा हुआ है। देश की सबसे रीयल इस्टेट कंपनी एवरग्रैंड दिवालिया होने की कगार पर है और सरकार इस सेक्टर को फिर से खड़ा करने की कोशिश कर रही है।
 
चीन की लगभग स्थिर विकास दर कोविड महामारी के बाद 2020 में तेज़ी से गिरी और सालभर पहले 6.0 से 2.2 पर आकर रुकी। इसके बाद उसकी अर्थव्यवस्था ने तेज़ी से उछाल मारा और 2021 में 8.4 तक पहुंची।
 
वर्ल्ड बैंक के अनुसार बीते साल के आंकड़ों को देखें तो आयात और निर्यात दोनों में गिरावट आने के कारण देश की विकास दर घटकर 3 तक आ गई जो 1976 के बाद से अब तक (कोविड महामारी के साल को छोड़कर) सबसे कम थी। चीन का निर्यात बीते साल जुलाई के मुक़ाबले इस साल जुलाई में 14.5 फीसदी और आयात 12.5 गिर गया है।
 
ट्रेडिंग इकोनॉमिक्स के अनुसार चीन ने इससे पहले महीने यानी जून 2023 में 285.32 अरब अमेरिकी डॉलर का निर्यात किया था जो जुलाई में कम हो कर 281.76 अरब डॉलर हो गया, वहीं आयात जहां जून में 214.70 अरब अमेरिकी डॉलर था, जुलाई में 201.16 अरब डॉलर तक आ गया।
 
जून में चीन का निर्यात साल भर पहले के आंकड़े की तुलना में 12.4 फीसदी और आयात 68 फीसद कम हो गया था।
 
भारत-चीन व्यापार, क्या कहते हैं आकड़े?
बीते 26 सालों में भारत और चीन के बीच आयात और निर्यात दोनों की लगातार बढ़ता रहा है। जहां चीन से होने वाला आयात सालाना क़रीब 19.5 फीसदी की दर से बढ़ता रहा, वहीं चीन को किए जाने वाले निर्यात में सालाना क़रीब 16.6 फीसदी की बढ़त दर्ज की जाती रही।
 
साल 2021 में भारत ने चीन से 94.1 अरब डॉलर का आयात किया, वहीं चीन को भारत का निर्यात 23.1 अरब डॉलर रहा। 1995 में चीन से भारत का आयात 91.4 करोड़ डॉलर था जबकि चीन को निर्यात 42.4 करोड़ डॉलर था।
 
2023 तक ये आयात-निर्यात घट गया, मई 2023 तक जहां भारत ने चीन से 9.5 अरब डॉलर का आयात किया, वहीं निर्यात 1.58 अरब डॉलर रहा।
 
लेकिन साल 2022 का आंकड़ा चौंकाने वाला रहा। दोनों मुल्कों के बीच इस साल व्यापार पहली बार 136 अरब डॉलर का रहा। ये वो वक्त था जब दोनों के रिश्ते अब तक के अपने सबसे निचले स्तर पर थे और व्यापार का आंकड़ा 100 अरब डॉलर के पार गया था।
 
चीन में क्या हुआ, इसका क्या होगा असर?
कोविड महामारी के बाद अधिकांश देशों ने पाबंदियां हटाईं और उपभोक्ता जो अब तक अपने खर्च रोके हुए थे, वो खर्च करने लगे। बाज़ार में मांग बढ़ने लगी और कंपनियां मांग की आपूर्ति में जुट गईं।
 
इस बीच यूक्रेन पर रूस के हमले और उर्जा की बढ़ती क़ीमतों के बीच कई चीज़ों की मांग तेज़ी से बढ़ने लगी, नतीजा ये हुआ कि महंगाई बढ़ने लगी।
 
लेकिन चीन में ऐसा नहीं हुआ। चीन में अर्थव्यवस्था कोविड महामारी के बाहर निकली तो कुछ वक्त तक तेज़ी से आगे बढ़ी लेकिन फिर चीज़ों की मांग बढ़ती नहीं दिखाई दी। 2021 फरवरी में उपभोक्ता सूचकांक गिरा। मांग गिरती रही और इस साल की शुरूआत तक स्थिति इतनी बुरी हो गई कि कंपनियों के लिए उत्पादन की लागत निकलना तक मुश्किल होने लगा।
 
जानकार कहते हैं गिरती क़ीमतों के कारण चीन के सामने कम विकास दर जैसी चुनातियां पैदा हो रही हैं।
 
चीनी सरकार बार-बार ये इशारा दे रही है कि अर्थव्यवस्था नियंत्रण में है लेकिन कुछ जानकार अब तक सरकार ने आर्थिक वकास बढ़ाने के लिए कोई कारगर कदम नहीं उठाए हैं।
 
निवेश कंपनी ईएफ़जी एसेट मैनेजमेन्ट के डेनियल मर्रे ने बीबीसी को बताया कि, "महंगाई बढ़ाने की कोई ख़ास गोली नहीं होती, सरकार को अपनी आर्थिक नीति में सरकारी खर्च बढ़ाने, टैक्स कम करने जैसे उपायों की मिश्रण लाना होता है।"
 
दिल्ली स्थित फ़ोर स्कूल ऑफ़ मैनेजमेंट में चीन मामलों के विशेषज्ञ प्रोफ़ेसर फ़ैसल अहमद कहते हैं इसे दो तरीकों से देख सकते हैं।
 
वो कहते हैं, "पहला ये कि हम ये मान लें कि चीन मंदी की तरफ जा रहा है दूसरा ये कि क्या चीन ने नीति के तहत सोच-समझ कर ऐसा किया है।"
 
"कोविड के बाद अर्थव्यवस्था में मंदी की बात को हम समझ रहे हैं लेकिन इस बात को हम नज़रअंदाज़ न करें कि 2020 में जब भारत, आत्मनिर्भर भारत की बात कर रहा था उस दौरान चीन डूअल सर्कूलेशन पॉलिसी लेकर आया था।"
 
इस नई नीति के बारे में चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग का कहना था कि चीन विदेश पर अपनी निर्भरता कम करेगा। सरकार देश के भीतर मांग बढ़ाने के लिए काम करेगी साथ ही विदेश में भी अपने उत्पादों की मांग बढ़ाने के लिए काम करेगी।
 
वो समझाते हैं, "डेंग शाओपिंग के नेतृत्व में 1978 में चीनी सरकार 'द ग्रेट सर्कुलेशन' नाम से एक नीति लेकर आई थी जिसमें अर्थव्यवस्था को निर्यात आधारित बनाने का लक्ष्य था। लेकिन लॉकडाउन की स्थिति के दौरान मुल्क अपनी खुद की अर्थव्यवस्था पर ध्यान देने लगे। चीन ने इस बात को समझा कि निर्यात आधारित अर्थव्यवस्था काफी नहीं है, हमें घरेलू बाज़ार पर भी ध्यान देना है।"
 
वो कहते हैं कि हमें ये समझना होगा कि चीन अपने आप में एक बेहद बड़ा बाज़ार है और चीनी सरकार को इस बात की समझ है।
 
वो कहते हैं, "अभी हम चीन में जो देख रहे हैं वो इसी का असर है। क़ीमतें कम होने से वहां के उपभोक्ताओं के लिए सामान सस्ता होगा और घरेलू खपत बढ़ेगी। घरेलू खपत बढ़ना अगर रुके तो अवस्फ़ीति इससे निपटने का कारगर तरीका है। वो डूअल सर्कूलेशन नीति के तहत अपने घरेलू बाज़ार पर ध्यान दे रहा है।"
 
क्या चीन इस चुनौती से लड़ सकेगा?
चीन की केंद्रीय बैंक (पीपल्स बैंक ऑफ़ चाइना) ने आधिकारिक तौर पर इन चिंताओं को दरकिनार किया है और कहा है कि उन्हें उम्मीद है कि जुलाई में कम रहने के बाद उपभोक्ता सूचकांक एक बार फिर चढ़ना शुरू होगा।
 
बैंक ने कहा है कि, "हमने जो नीतियां लागू की हैं, उनका असर पड़ना शुरू हो गया है। हमें धैर्य दिखाने की ज़रूरत है इस बात पर भरोसा रखना है कि अर्थव्यवस्था स्थिर हो जाएगी।"
 
लेकिन पिनप्वाइंट एसेट मैनेजमैन्ट के मुख्य अर्थशास्त्री ज़िवेई झांग ने अल जज़ीरा को बताया, "अब तक ये स्पष्ट नहीं है कि सरकार ने जो नीतियां लागू है उसका असर जल्द दिखेगा। ऐसे में अवस्फ़ीति की स्थिति की चुनौती से लड़ने के लिए सरकार को और कदम उठाने पड़ सकते हैं।"
 
कॉर्नेल यूनिवर्सिट में व्यापार नीति और आर्थिक मामलों के प्रोफ़ेसर ईश्वर प्रसाद कहते हैं कि चीनी अर्थव्यवस्था की रिकवरी के लिए सरकार को निवेशकों और उपभोक्ताओं में भरोसा पैदा करना होगा।
 
वो कहते हैं, "मूल मुद्दा ये है कि क्या सरकार निजी क्षेत्र का भरोसा हासिल कर सकती है, ताकि अपभोक्ता अपना पैसा बचाने की बजाय खर्च बढ़ाना शुरू करें, व्यापार में निवेश बढ़े और अर्थव्यवस्था में गति आए। अब तक ऐसा कुछ नहीं हुआ। सरकार को टैक्स में कटौती जैसे कई कारगर कदम उठाने की ज़रूरत है।"
 
उनका कहना है, "अगर सरकार अवस्फ़ीति के ख़तरों को नज़रअंदाज़ करती रही तो इससे विकास गति के रुकने का डर है। और अगर अर्थव्यवस्था गिरने लगी तो उसे फिर से वापिस पटरी पर लाना सरकार के लिए बड़ी चुनौती हो सकता है।"
 
वहीं प्रोफ़ेसर फ़ैसल अहमद कहते हैं, "अवस्फ़ीति की स्थिति कम वक्त के लिए लाई गई नीति है। अगर मार्च 2024 तक सरकार स्थिति पर काबू कर लेती है तो उसकी अर्थव्यवस्था पटरी पर आ जाएगी। इससे पहले घरेलू खपत बढ़ेगी, जिससे मांग बढ़ेगी, इसका असर उत्पादन पर पड़ेगा और बेरोज़गारी कम होगी, इससे उसका निर्यात बढ़ेगा। लेकिन अगर स्थिति पर सरकार काबू नहीं कर पाई तो इससे चीन की मुश्किलें तो बढ़ेंगी ही, उन मुल्कों के लिए भी हालात बिगड़ेंगे जो चीन से आयात करते हैं।"
 
अवस्फ़ीति का क्या होगा दुनिया पर असर?
दूसरे मुल्कों की बात करें तो, चीन ऐसी बहुत सारी चीज़ों का उत्पादन करता है, जिसे वो दुनियाभर में बेचता है। अगर चीन में चीज़ों की क़ीमतें कम हुईं तो उसका फायदा ब्रिटेन जैसे उन देशों को हो सकता है जो चीन से सामान खरीदते हैं क्योंकि इससे उनका आयात बिल कम होगा।
 
लेकिन इसका नकारात्मक असर दूसरे मुल्कों के उत्पादकों पर पड़ेगा जो चीन के सस्ते सामान के मुक़ाबले अपना सामान बेच नहीं पाएंगे। इससे उन मुल्कों में निवेश में कमी आ सकती है और बेरोज़गारी बढ़ सकती है।
 
प्रोफ़ेसर फ़ैसल अहमद कहते हैं, "चूंकि चीन अपना उत्पादन सस्ता कर रहा है, ज़ाहिर है कि इसका असर दूसरे मुल्कों की कंपनियों पर पड़ेगा। जो मुल्क चाहते हैं कि वो देश के भीतर ही उत्पादन करें, उनके व्यापार को चीन लुभा सकता है।"
 
बीते कुछ वक्त में कई मुल्कों की कोशिश है कि वो चीन से अपना उत्पादन ख़त्म करें और दूसरे मुल्कों का रुख़ करें। इन मामलों में अमेरिका आगे है। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने 2019 में राष्ट्रीय सुरक्षा क़ानून का हवाला देते हुए कहा था कि अमेरिकी व्यापार के लिए चीन सुरक्षित जगह नहीं। उन्होंने कंपनियों से आग्रह किया था कि वो चीन से बाहर निकलें।
 
चीन भी ये जानता है कि मौजूदा वक्त में कई देश उसे उत्पादन के सेंटर के तौर पर नहीं देखना चाहते इसलिए वो भी ऐसी नीति चाहता है जिससे वो चीन में उत्पादन का खर्च इतना कम कर देना चाहता है कि दूसरों के लिए देश के भीतर उत्पादन की बजाय चीन से आयात बेहतर विकल्प हो।
 
वो अपने भविष्य को देखते हुए योजना बना रहा है। एक तरफ वो वो ये सुनिश्चित करने की कोशिश कर रहा है कि वो आने वाले वक्त में सप्लाई चेन की अहम कड़ी बना रहे, तो दूसरी तरफ से भी कोशिश कर रहा है कि उसका घरेलू बाज़ार मज़बूत बने।
 
क्या भारत पर भी होगा असर?
रही भारत की बात तो भारत पहले भी आयात के मामले पर चीन पर निर्भर रहा है और ये उम्मीद करना कि इसमें आने वाले सालों में बदलाव आएगा सही नहीं होगा।
 
लेकिन मुश्किल ये है कि भारत और चीन के बीच कोई मुक्त व्यापार समझौता नहीं है, ऐसे में उसे चीन से सस्ता सामान सीधे नहीं मिल सकेगा।
 
प्रोफ़ेसर फ़ैसल अहमद कहते हैं, "आरसीईपी (क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक साझेदारी, नवंबर 2019 में भारत इससे बाहर हो गया था) के देशों को ये सामान सस्ते में मिलेगा और भारत को उनसे ये सामान मिल सकता है। ये भारत के लिए बड़ी चुनौती है।"
 
वो कहते हैं आसियान देशों के साथ चीन का व्यापार समझौता है और इसके साथ भारत का भी मुक्त व्यापार समझौता है। भारत इसके नियमों में बदलाव चाहता है ताकि उसे सस्ते में चीज़ें मिलें और उसका आयात घाटा कम हो सके।
 
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