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Written By BBC Hindi
Last Updated : शनिवार, 29 अगस्त 2020 (07:53 IST)

कोरोना दौर में शेयर मार्केट में बढ़त क्या अच्छे दिनों के संकेत हैं

कोरोना दौर में शेयर मार्केट में बढ़त क्या अच्छे दिनों के संकेत हैं - Share market in corona time
मानसी दाश, बीबीसी संवाददाता
मार्च का महीना शुरू ही हुआ था कि कोरोना महामारी ने भारत को अपनी गिरफ़्त में लेना शुरू कर दिया। महीना ख़त्म होते-होते सरकार ने देशभर में लॉकडाउन लगा दिया। व्यवसाय, उत्पादन, कामकाज सभी ठप पड़ गए। मज़दूरों के सामूहिक पलायन ने स्थिति और बिगाड़ दी। उस वक्त स्टॉक मार्केट में अचानक तेज़ गिरावट आई और कयास ये लगाए जाने लगे कि देश के लिए आगे का रास्ता बेहद मुश्किल होने वाला है।
 
लेकिन जून के आख़िर तक आते-आते स्टॉक मार्केट में हलकी-सी बढ़त देखने को मिली और उम्मीद जगी कि शायद अर्थव्यवस्था अब महामारी की मार से उबरने लगी है। लेकिन शुक्रवार को रिज़र्व बैंक के गवर्नर शक्तिकांत दास ने कहा कि स्टॉक मार्केट में जो बढ़त दिखाई दे रही है वो अर्थव्यवस्था के असल हालात से कोसों दूर है।

उन्होंने कहा, “वैश्विक वित्तीय प्रणाली में काफ़ी नकदी उपलब्ध है, इस कारण शेयर बाज़ार में तेज़ी का रुख़ दिख रहा है। यह वास्तविक अर्थव्यवस्था की स्थिति से बिल्कुल अलग है।”

आम आदमी के लिए देश के शेयर बाज़ार में गिरावट या बढ़ोतरी इस बात की ओर इशारा है कि देश आर्थिक रास्ते पर तरक्की कर रहा है या नहीं। ऐसे में आरबीआई गवर्नर ने अर्थव्यवस्था को लेकर जो चिंता जताई है उसे कैसे समझा जाए।
 
अर्थव्यवस्था का आईना नहीं शेयर बाज़ार
अर्थशास्त्री रितिका खेड़ा कहती हैं कि शेयर बाज़ार में उतार-चढ़ाव मुट्ठीभर अमीरों के लिए जुए जैसा है, इसे देश की पूरी अर्थव्यव्स्था का आईना कहना गल़त होगा।
 
उनका ऐसा इसलिए मानना है, क्योंकि "एक सर्वे के अनुसार देश के 80 फ़ीसदी लोग महीने में 10 हज़ार रुपए से कम कमाते हैं। लगभग 20 फ़ीसदी लोग ऐसे हैं, जिनके पास नौकरी का लिखित कॉन्ट्रेंट होता है। सिर्फ़ 17 फ़ीसदी लोग नौकरीपेशा हैं। एक तिहाई लोग दिहाड़ी मज़दूर हैं, जबकि 47 फ़ीसदी वो लोग हैं, जो ख़ुद का काम करते हैं, इनमें सब्ज़ी बेचने वाले से लेकर लोहार, कुम्हार, साइकिल ठीक करने वाले भी शामिल हैं।”
 
वो कहती हैं, "आम आदमी की हमारी समझ उन लोगों तक सीमित है, जिनकी थोड़ी बहुत सेविंग्स है। लेकिन जो 80 फ़ीसदी लोग हैं, उनके सामने स्वास्थ्य और रोज़गार की मुश्किलें हैं और उनका स्टॉक मार्केट से कोई ख़ास नाता नहीं है। यही देश के आम लोग हैं। लेकिन विडंबना ये है कि अगर देश में आम आदमी के लिए काम किया जाए, तो लोगों की भूख और बीमारी को भी ट्रैक करना चाहिए।"
 
वहीं अर्थशास्त्री और वित्त मंत्रालय की पूर्व प्रधान आर्थिक सलाहकार इला पटनायक कहती हैं कि शेयर बाज़ार अर्थव्यवस्था की आज की स्थिति नहीं दर्शाता।
 
वो कहती हैं, “शेयर बाज़ार मौजूदा स्थिति के बारे में कुछ नहीं कहता बल्कि ये आगे जो होने वाला है, उसको दर्शाता है। पहला तो ये कि लोगों के मन में कई तरह की चिंताएँ होती हैं जैसे बाज़ार फिर ठीक होगा या नहीं, कोरोना महामारी का असर अब कम हो रहा है या नहीं। लोगों में आज की स्थिति को लेकर उम्मीद कम है, लेकिन आगे के वक़्त को लेकर उनमें उम्मीद है।“
 
“इसका एक और कारण ये है कि लोग ये भी देखते हैं कि वो कहाँ पैसा लगा सकते हैं। जब लोग बाज़ार में अधिक पैसा लगाते हैं, तो इससे बाज़ार में पैसा बढ़ता है जो शेयर बाज़ार में बढ़त के तौर पर दिखता है। इन दोनों फ़ैक्टर के मद्देनज़र ही हम अर्थव्यव्स्था को समझने की कोशिश कर सकते हैं।”
 
बीबीसी संवाददाता दिनेश उप्रेती कहते हैं, “निफ़्टी और सेन्सेक्स कुछ 30 और 50 कंपनियों की परफ़ॉर्मेंस दर्शाते हैं। इनमें लोगों ने निवेश किया है, इस कारण उनके शेयर बढ़ रहे हैं और उनके शेयर बढ़े, तो बाज़ार में बढ़त दिखेगी ही। लेकिन छोटी और मझोली कंपनियों की हालत ख़राब है।“
 
अर्थव्यवस्था को लगातार तीसरी और गंभीर चोट
देश की अर्थव्यवस्था के सामने कोरोना ने तीसरी बड़ी मुश्किल पैदा कर दी है। 2016 नवंबर में अर्थव्यवस्था ने नोटबंदी की कड़ी मार झेली, जब अचानक रातोंरात 500 और 1000 के नोटों का चलन बंद कर दिया गया।
सरकार ने कहा कि ऐसा अर्थव्यवस्था में मौजूद जाली नोटों और काला धन और दो नंबर के पैसे पर कार्रवाई करने के लिए किया गया है।

लेकिन कुछ महीनों बाद आई आरबीआई की रिपोर्ट ने स्पष्ट कर दिया कि चलन से हटाए गए नोटों का 99 फ़ीसदी वापस बैंकों में लौटकर आ गया है। यानी नकदी के रूप में मौजूद लगभग पूरा ही काला धन बैंकों में जमा करा दिया गया।
 
लेकिन नोटबंदी के कारण कैश पर चलने वाली देश की अर्थव्यवस्था को एक ज़ोरदार ब्रेक लगा, जिसने देश के असंगठित क्षेत्र को पूरी तरह हिला कर रख दिया।
 
ख़ुद बीजेपी के सहयोगी संगठन ने भी नोटबंदी पर कहा, "असंगठित क्षेत्र की ढाई लाख यूनिटें बंद हो गईं और रियल एस्टेट सेक्टर पर बहुत बुरा असर पड़ा है। बड़ी तादाद में लोगों ने नौकरियाँ गँवाई हैं।"

उसके बाद भारत की अर्थव्यवस्था को दूसरी मार जीएसटी के रूप में झेलनी पड़ी। अर्थशास्त्री प्रोफ़ेसर अरुण कुमार ने सितंबर 2019 में बीबीसी से कहा था जीएसटी असंगठित क्षेत्रों पर लागू नहीं होता लेकिन इसका असर संगठित क्षेत्रों पर हुआ।
 
उनका कहना था कि इससे संगठित क्षेत्र के लोगों में उलझन बढ़ गई और वो जीएसटी फ़ाइल नहीं कर पाए। इसी दौरान एक तरफ़ बैंकों के सामने एनपीए की समस्या आ खड़ी हुई, तो दूसरी तरफ़ ग़ैर-वित्तीय कंपनियों के सामने भी मुश्किलें आईं। इसका असर रोज़गार पर हुआ। कुल मिलाकर अर्थव्यवस्था को ये दूसरा ज़बरदस्त धक्का था।
 
इसके बाद 2020 तक स्थिति थोड़ी संभलती दिखी, लेकिन एक अनजान वायरस ने अर्थव्यवस्था के सामने फिर एक विकराल चुनौती पेश कर दी। इस बार केवल भारतीय अर्थव्यवस्था नहीं बल्कि दुनिया के दूसरे देशों की आर्थिक स्थिति भी डगमगा गई।
 
लेकिन भारत में मामला मज़दूरों के पलायन के कारण और गड़बड़ा गया। सरकार ने लॉकडाउन तो लगाया, लेकिन वो ये आकलन करने में चूक गई कि एक बार फिर इसका सबसे बुरा असर मज़दूरों पर पड़ेगा।

रितिका खेड़ा कहती हैं, “पहले नोटबंदी ने उन लोगों की कमर तोड़ दी जो कैश पर निर्भर थे, उसके बाद जीएसटी ने व्यवसायी वर्ग की कमर तोड़ दी, जिनका पैसा फँस गया। उसके बाद जो कोरोना के कारण लगाए गए लॉकडाउन ने किया, वो एक तरह अर्थव्यवस्था को ख़त्म करने जैसा था।“
 
दिनेश उप्रेती कहते हैं, “मई और जून के मुक़ाबले स्थिति में सुधार है ये कहा जा सकता है। लेकिन फ़िलहाल न तो कंपनियाँ पूरी तरह काम कर रही हैं और न ही सप्लाई चेन फिर से पहले की तरह जुड़ पाए हैं। ऐसे में अभी स्थिति सामान्य से दूर ही दिखती है।"
 
मौजूदा स्थिति में क्या हो सरकार की प्राथमिकता
अर्थशास्त्री इला पटनायक कहती हैं कि शेयर मार्केट की मौजूदा स्थिति को सकारात्मक रूप से लेना चाहिए। वो कहती हैं, “हम मान सकते हैं कि अर्थव्यवस्था के लिए जितने बड़े नेगेटिव शॉक की उम्मीद की जा रही थी, अभी वो उतना बड़ा नेगेटिव शॉक नहीं दिखता। कोरोना के शुरुआती दौर में जिस तरह के डर और दहशत का माहौल था, वो अब कम हुआ है। आज हम जब देखते हैं, तो हम महामारी के पहले के मुक़ाबले उत्पादन के 70 फ़ीसदी लेवल तक वापस आ रहे हैं।“
 
“रोज़गार के मौक़े तेज़ी से लौट रहे है। हालाँकि इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि लोगों को मिलने वाले पैसे कम हुए हैं। लेकिन फिर भी जैसा पहले सोचा जा रहा था कि बड़े पैमाने पर बेरोज़गारी होगी, लोगों की मौतें होंगी, वैसी बुरी स्थिति अब नहीं है। “
 
अर्थशास्त्री रितिका खेड़ा कहती हैं, “शेयर बाज़ार अकेले अर्थव्यवस्था की सेहत नहीं दर्शाता, इसके साथ और 10 तरह के इंडिकेटर जोड़े जाएँ, तभी आप कह सकेंगे कि अर्थव्यवस्था वाक़ई दुरुस्त है।“

रितिका खेड़ा कहती हैं कि सरकार की प्राथमिकताएँ अभी भी सही जगह पर केंद्रित नहीं हैं, जबकि सरकार को अपने हाथ में पैसा बढ़ाने की ज़रूरत है।
 
वो कहती हैं, ”सरकार को डिमांड और सप्लाई का बेलेंस बनाने की ज़रूरत है, जिसके लिए उन्हें लोगों के हाथों में पैसा देना पड़ेगा। और इसके लिए सरकार के ख़ज़ाने में भी पैसा होना ज़रूरी है। इसके लिए वो करोड़पतियों पर वेल्थ टैक्स लगाने के बारे में सोच सकती हैं।”

वहीं इला पटनायक भारतीय अर्थव्यवस्था को इकोनॉमी इन ट्रांज़िशन कहती हैं। वो कहती हैं, “बहुत स्तर पर इकोनॉमी या तो असंगठित क्षेत्र से संगठित क्षेत्र में मूव कर रही है, ग्रामीण से शहरी में, नॉन-इंडस्ट्रीयल से इंडस्ट्रियल में और छोटे पैमाने के उद्योग से बड़े पैमाने के उद्योग की तरफ़ बढ़ रही है।

ऐसे में कई ऐसी नीतियाँ बनाई जाती हैं, जो थोड़े वक़्त में बुरा असर डालती दिखती हैं। लेकिन लंबे वक़्त में उसका लाभ होता है। जीएसटी ऐसी ही व्यवस्था है, जो लंबे समय में सकारात्मक बदलाव साबित होगा और सरकार के टैक्स बेस को बढ़ाएगा।”
 
वो कहती हैं, ”कोरोना महामारी से पहले अर्थव्यवस्था में रिकवरी के निशान दिखने लगे थे, लेकिन कोरोना के कारण लगाए लॉकडाउन ने बहुत अधिक मुश्किलें पैदा कर दीं। आज़ाद भारत की अर्थव्यवस्था ने कभी इतना बड़ी मुश्किल नहीं देखी थी। लेकिन हमारी स्थिति फ़िलहाल उतनी ख़राब नहीं है, जितना प्रेडिक्ट किया जा रहा था।”
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