रेहान फ़ज़ल, बीबीसी संवाददाता
अगर कोई भारत की बाह्य खुफिया एजेंसी रॉ या रिसर्च एंड एनालिसिस विंग के दिल्ली के लोदी रोड स्थित 11 मंजिला दफ्तर में घुसे, तो पहली चीज उसका ध्यान खींचेगी, इसका गोपनीयता के प्रति 'ऑबसेशन', जुनून या सनक।
यहां पर किसी ऐसे व्यक्ति को घुसने की इजाजत नहीं है, जो यहां काम न करता हो। सिर्फ इस संस्था के कर्मचारी ही यहां घुस सकते हैं।
दिलचस्प बात ये है कि यहां किसी भी दरवाज़े के आगे न तो कोई नाम पट्टिका लिखी है और न ही कोई पद नाम। हां संयुक्त सचिव से ऊपर के अधिकारियों के कमरे के सामने एक पायदान और दो फूलों के गमले जरूर रखे रहते हैं।
रॉ का प्रमुख 11 वीं मंजिल पर बैठता है। बिल्डिंग के पिछवाड़े से उसके दफ्तर तक सीधी लिफ्ट जाती है जो किसी मंजिल पर नहीं रुकती।
आपसी बातचीत में रॉ के अधिकारी कभी भी इस शब्द का प्रयोग नहीं करते। जब कभी इसका ज़िक्र होता भी है तो इसे 'आर एंड डब्लू' कहा जाता है, न कि 'रॉ'। शायद इसकी वजह ये है कि रॉ का मतलब 'अधूरा' या 'कच्चा' से लगाया जाता है जो एक नकारात्मक छवि प्रस्तुत करता है।
बांग्लादेश की लड़ाई में रॉ की भूमिका
रॉ की उपलब्धियों की बात की जाए तो सबसे पहले ज़ेहन में आता है बांग्लादेश के गठन में इसकी भूमिका।
भारतीय सेना के वहां जाने से पहले मुक्ति वाहिनी के गठन और पाकिस्तानी सेना से उसके संघर्ष में रॉ ने ज़बरदस्त मदद दी थी।
रॉ के एक पूर्व अतिरिक्त सचिव बी रमन ने अपनी किताब 'द काऊ बॉयज ऑफ रॉ' में लिखा है कि 1971 में रॉ को इस बात की पूरी जानकारी थी कि पाकिस्तान किस दिन भारत के ऊपर हमला करने जा रहा है।
लड़ाई से पहले भारत के लिए पलायन करते पूर्वी पाकिस्तानी शरणार्थी
80 के दशक में रॉ के प्रमुख रहे आनंद कुमार वर्मा ने बीबीसी से बात करते हुए कहा था, 'उस समय हमें ये सूचना मिल चुकी थी कि इस तारीख को हमला होने वाला है। ये सूचना वायरलेस के जरिए आई थी जिसे डिकोड करने में थोड़ी गलती हो गई और जो सूचना हमें मिली उसके अनुसार हमला 1 दिसंबर को होना था।
वायु सेना को वॉर्न कर दिया गया और वो लोग हाई अलर्ट में चले गए। लेकिन जब 2 दिसंबर तक हमला नहीं हुआ तो वायु सेना प्रमुख ने रॉ के चीफ़ रामेश्वर काव से कहा कि आपकी सूचना में कितना दम है? वायु सेना को इस तरह हाई अलर्ट पर बहुत दिनों तक नहीं रखा जा सकता।
वर्मा ने कहा, 'काव ने कहा आप एक दिन और रुक जाइए। एयर चीफ मार्शल पी सी लाल बात मान गए और जब 3 दिसंबर को पाकिस्तान का हवाई हमला हुआ तो भारतीय वायु सेना उसके लिए पूरी तरह से तैयार थी। ये जो रॉ का एजेंट था, वो अच्छी लोकेशन पर था और उसके पास सूचना भेजने के लिए वायरलेस भी था।'
सिक्किम का भारत में विलय
1974 में सिक्किम के भारत में विलय में भी रॉ की जबरदस्त भूमिका रही थी। रॉ के एक पूर्व अधिकारी आर के यादव जिन्होंने रॉ पर एक किताब 'मिशन आर एंड डब्लू' लिखी है, बताते हैं, 'सिक्किम के विलय की योजना रॉ प्रमुख काव ने जरूर बनाई थी, लेकिन उस समय तक इंदिरा गांधी इस क्षेत्र की निर्विवाद नेता बन चुकी थीं। बांग्लादेश की लड़ाई जीतने के बाद उनमें गजब का आत्मविश्वास आ गया था। सिक्किम के चोग्याल ने एक अमेरिकी महिला से शादी कर ली थी और उसकी वजह से सीआईए ने उस क्षेत्र में अपने पांव पसारने शुरू कर दिए थे।'
आर के यादव ने बताया, 'काव साहब ने सबसे पहले इंदिरा गांधी को सिक्किम का भारत में विलय करने की सलाह दी थी। सरकार में इसके बारे में सिर्फ तीन लोगों को पता था। इंदिरा गांधी, पी एन हक्सर और रामेश्वरनाथ काव। काव साहब के साथ रॉ के सिर्फ तीन अफसर इस ऑपरेशन को अंजाम दे रहे थे। यहां तक कि काव के नंबर 2 के शंकरन नायर को भी इसकी जरा भी भनक नहीं थी। ये एक तरह का 'ब्लडलेस कू' था और ये चीन की नाक के नीचे हुआ था। इस तरह 3000 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र का भारत में विलय हो गया।'
कहूटा परमाणु संयंत्र की खबर
कहूटा में पाकिस्तान के परमाणु संयंत्र तैयार होने की पहली खबर रॉ के जासूसों ने ही दी थी।
उन्होंने कहूटा में नाई की दुकान के फर्श से पाकिस्तानी परमाणु वैज्ञानिकों के बालों के सैंपल जमा किए। उनको भारत लाकर जब उनका परीक्षण किया गया तो पता चला कि उसमें रेडिएशन के कुछ अंश मौजूद हैं जो इस बात की पुष्टि करता है कि पाकिस्तान ने 'वेपन ग्रेड' यूरेनियम को या तो विकसित कर लिया है या उसके बहुत करीब है।
कहा जाता है कि रॉ के एक एजेंट को 1977 में पाकिस्तान के कहूटा परमाणु संयंत्र का डिजाइन प्राप्त हो गया था। लेकिन तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने न सिर्फ इसे दस हजार डॉलर में खरीदने की पेशकश ठुकरा दी, बल्कि ये बात पाकिस्तान के राष्ट्रपति जनरल जिया उल-हक को बता भी दी।
मेजर जनरल वी के सिंह जो कि रॉ में कई सालों तक काम कर चुके हैं। उन्होंने रॉ पर 'सीक्रेट्स ऑफ रिसर्च एंड एनालिसिस विंग' नाम से एक किताब लिखी है।
वो बताते हैं, 'पाकिस्तान के कहूटा परमाणु संयंत्र का ब्लू प्रिंट रॉ के एक एजेंट ने हासिल कर लिया था। उसने इसे भारत को देने के लिए दस हजार डॉलर मांगे थे। उस समय मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री थे। जब उनको इस ऑफर के बारे में बताया गया तो उन्होंने उसे अस्वीकार कर दिया और ज़िया को फोन कर बता भी दिया कि हमारे पास आपके परमाणु कार्यक्रम की जानकारी है। हमें वो ब्लू प्रिंट कभी नहीं मिला। उल्टे जनरल ज़िया ने रॉ के उस एजेंट को पकड़वा कर 'एलिमिनेट' करवा दिया।'
जब टैप की गई जनरल मुशर्रफ की बातचीत
इसी तरह साल 1999 में कारगिल युद्ध के दौरान जब पाकिस्तान के तत्कालीन सेनाध्यक्ष जनरल परवेज मुशर्रफ चीन की यात्रा पर थे तो उनके चीफ ऑफ जनरल स्टाफ लेफ्टिनेंट जनरल अजीज खां ने उन्हें बीजिंग फोन कर बताया था कि प्रधानमंत्री नवाज शरीफ ने पाकिस्तानी वायु सेना और नौ सेना के प्रमुखों को बुला कर शिकायत की थी कि जनरल मुशर्रफ ने उन्हें कारगिल की लड़ाई के बारे में अंधेरे में रखा था।
रॉ ने टेलीफ़ोन पर हुई इस बातचीत को न सिर्फ रिकॉर्ड किया, बल्कि भारत ने इसकी प्रतियाँ बनवाकर अमरीका सहित भारत में रह रहे सभी देशों के राजदूतों को भेजी।
मेजर जनरल वी के सिंह बताते हैं, 'इस बातचीत की जो रिकार्डिंग की गई वो कोई नई बात नहीं थी। रॉ अक्सर इस तरह की रिकार्डिंग करता रहा है। ये बातचीत बहुत महत्वपूर्ण थी। इससे ये सुनिश्चित हो गया था कि पाकिस्तान की सेना ने ही उस ऑपरेशन को प्लान किया था। जो भी जानकारी हम खुफिया तंत्र से हासिल करते हैं, उसका हमें इस्तेमाल करना चाहिए न कि प्रचार।
अगर आप उसका प्रचार करते हैं तो दूसरे पक्ष को पता चल जाएगा कि उन्हें ये जानकारी किस स्रोत से मिली है और वो उसका इस्तेमाल करना बंद कर देगा। जैसे ही ये जानकारी पब्लिक हुई पाकिस्तान को पता चल गया कि हम लोग उनका सेटेलाइट लिंक 'इंटरसेप्ट' कर रहे हैं और उन्होंने उस पर बातचीत करना बंद कर दिया। हो सकता था कि बाद में उस लिंक पर और भी अहम जानकारी मिलती, लेकिन फिर वो लोग सावधान हो गए।
आईएसआई भी टैपिंग के खेल में शामिल
पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई के पूर्व प्रमुख हमीद गुल रॉ के इस कारनामे को बहुत बड़ी चीज नहीं मानते थे।
उन्होंने बीबीसी से बात करते हुए कहा था, 'इस टेप को सार्वजनिक करके रॉ ने बता दिया कि वो एक पेशेवर संस्था नहीं है, 'टैप करना कोई बड़ी बात नहीं है। आप हमारा यकीन करें, हम भी आपकी सारी बातचीत टैप करते रहे हैं। मैं जब आईएसआई में था और 1987 में राजीव गांधी जब श्रीलंका पर चढ़ाई करना चाह रहे थे तो हमारे पास इस तरह से खबरें आ रही थीं, जैसे हम कोई क्रिकेट मैच देख रहे हों। आप फोन सुन कर सरेआम उसके बारे में बात कर रहे हैं, ये भी कोई 'अचीवमेंट' है? 'अचीवमेंट' वो होती है कि आप अपने सामरिक लक्ष्यों को पूरा कर पांए। दूसरी तरफ आप आईएसआई को लीजिए। उन्होंने एक 'सुपर पॉवर' को शिकस्त दे दी अफगानिस्तान के अंदर और आप यकीन करें अमेरिका ने हमें इसके लिए कोई 'ट्रेनिंग' नहीं दी थी।'
रामेश्वर काव थे रॉ के जनक
1968 में रॉ का ब्लू प्रिंट तैयार किया था इंटेलिजेंस ब्यूरो के उप निदेशक रहे रामेश्वरनाथ काव ने।
उन्हें रॉ का पहला निदेशक बनाया गया था। 1982 में जब फ्रांस की खुफिया एजेंसी के प्रमुख काउंट एलेक्ज़ांद्रे द मरेंचे से पूछा गया कि 70 के दशक के पांच सर्वश्रेष्ठ खुफिया प्रमुखों के नाम बताएं, तो उन्होंने रामेश्वरनाथ काव को भी इस सूची में शामिल किया था।
काव इतने 'लो प्रोफाइल' हुआ करते थे कि उनके जीते जी उनका कोई चित्र किसी अख़बार या पत्रिका में नहीं छपा।
उनके साथ काम कर चुके रॉ के एक पूर्व अतिरिक्त निदेशक ज्योति सिन्हा बताते हैं, 'क्या उनकी सॉफ़िस्टीकेशन थी। बात करने का एक खास ढ़ंग था। किसी को कोई ऐसी चीज नहीं कहते थे, जो उसे दुख पहुंचाए। उनका एक वाक्य मुझे बहुत अच्छा लगता था। वो कहते थे कि अगर कोई तुम्हारा विरोध करता है, तो उसे जहर दे कर क्यों मारा जाए। क्यों न उसे खूब शहद दे कर मारा जाए। कहने का मकसद ये था कि क्यों न उसे मीठे तरीके से अपनी तरफ ले आया जाए। हम लोग उस जमाने में युवा अफसर होते थे और हम काव साहब की 'हीरो वरशिप' किया करते थे।'
रॉ पर सबसे पहले सवाल तब उठाए गए जब वो सिख अलगाववाद की गंभीरता को सरकार तक पहुंचाने में असफल रहा।
कश्मीर की घटनाओं का सटीक विष्लेषण न कर पाना भी रॉ के खिलाफ गया। ये स्वाभाविक है कि रॉ के कारनामों को पड़ोसी देश पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई के कारनामों के साथ तराजू पर रख कर देखा जाए।
मैंने आईएसआई के पूर्व प्रमुख से उनकी मृत्यु से कुछ दिन पहले पूछा था कि आपकी नजर में क्या रॉ एक पेशवर खुफिया एजेंसी के रूप में अपने उद्देश्य में सफल रहा है? हमीद गुल का जवाब था, 'वो पाकिस्तान के 'माइंड सेट' को कभी नहीं बदल पाए। वो हमारी यूनिवर्सिटीज के कैंपस में दाखिल हुए और उन्होंने हमेशा पाकिस्तान को 'डि-स्टेबिलाइज' करने की कोशिश की। यहां शिया-सुन्नी दंगे कराने और बलूचिस्तान में गड़बड़ी भड़काने में भी उनका बहुत रोल था। रॉ को अब सबसे बड़ी मार अफ़गानिस्तान में पड़नी है। अमेरिका जब ये जंग हारेगा तो भारत के अफगानिस्तान में किए गए सारे 'इनवेस्टमेंट' का बेड़ा गर्क हो जाएगा। भारत हमेशा सोवियत संघ से चिपका रहा और उसकी गाड़ी पर सवारी करता रहा और ऊपर से ये भी कहता रहा कि वो तो गुटनिरपेक्ष है। आज कल पूरी दुनिया में 'ग्लोबल इंपीरियलिज़्म' के खिलाफ माहौल बन रहा है। भारत के महरूम तबके के लोग भी महसूस कर रहे हैं कि भारत 'इंपीरियलिज़्म' की गोद में जाकर बैठ गया है। 'इंपीरियलिज़्म' की हार होना तय है और इसके बाद रॉ हो या भारत की सुरक्षा नीति, दोनों को धक्का लगना है।'
रॉ बनाम आईएसआई
दूसरी तरफ रॉ के पूर्व अतिरिक्त निदेशक ज्योति सिन्हा मानते हैं कि आईएसआई को सबसे बड़ा लाभ ये है कि उस वहाँ की सेना का समर्थन हासिल है और वो किसी के प्रति जवाबदेह नहीं है।
लेकिन इसके बावजूद भारतीय उपमहाद्वीप के बारे में उसकी सामरिक सोच वास्तविकताओं पर खरी नहीं उतरी है और उस पर कई सवाल उठाए गए हैं।
ज्योति सिन्हा कहते हैं, 'आईएसआई ने छोटी मोटी लड़ाई जरूर जीती हो, लेकिन युद्ध में उसकी हार हुई है. दूसरी तरफ रॉ छोटी मोटी लड़ाई भले ही हार गया हो, लेकिन उसने हमेशा युद्ध जीता है। आईएसआई ने अपनी समझ में पाकिस्तान को सुरक्षित रखने के लिए जिन रास्तों का सहारा लिया, वो पाकिस्तान पर एक ज़बरदस्त बोझ बन गया। उन्होंने सोचा कि अगर हम इस्लामिक आतंकवाद को भारत के खिलाफ एक हथियार के रूप में इस्तेमाल करेंगे तो भारत बिखर जाएगा और पाकिस्तान की बहुत बड़ी जीत होगी। जिया उल-हक ने इसे 'स्ट्रेटेजिक ब्लीडिंग इंडिया टू डेथ बाई हंड्रेड वून्ड्स' का नाम दिया। आप ही देखिए ये कितना मंहगा पड़ा पाकिस्तान को। इस्लामिक आतंकवाद को इस्तेमाल करने की उनकी नीति की उन्हें भारी कीमत चुकानी पड़ रही है।'
रॉ के एक और प्रमुख एएस दुलत मानते हैं कि रॉ ने अपने कई अभियानों को बिना किसी पब्लिसिटी के अंजाम दिया हैं।
दुलत कहते हैं, 'बहुत सी घटनाओं के पीछे रॉ का हाथ रहा है, लेकिन कभी उसे उनका श्रेय नहीं दिया गया और न ही उसने श्रेय लेने की कोशिश की है। आईएसआई के एक पूर्व प्रमुख असद दुर्रानी ने एक बार मुझसे कहा था कि रॉ आईएसआई से बेहतर नहीं तो बराबर जरूर है। हम जो काम सरेआम करते हैं, आप उसे बिना किसी प्रचार के चोरी छुपे अंजाम देते हैं।'
अमेरिका से संबंध सुधरने में रॉ की भूमिका
खुफिया एजेंसियों की सफलताएं और विफलताएं हर बार उजागर नहीं होतीं। कई बार कुछ ऐतिहासिक घटनाओं की सीधी जिम्मेदारी उनकी होती है, लेकिन इसका श्रेय उन्हें तुरंत या कभी नहीं दिया जाता।
आनंद कुमार वर्मा ने मुझसे बात करते हुए एक ऐसी ही घटना को याद किया। वो बोले, 'ये बात 1980-81 की है, जब इंदिरा गांधी चुनाव जीत कर आईं। वो चाहती थीं कि हम अमेरिका की सरकार के साथ नए सिरे से काम शुरू करें। अमेरिका का रक्षा मंत्रालय पेंटागान भारत के बहुत खिलाफ था क्योंकि उनका मानना था कि सोवियत सैनिक अधिकारी हमें सलाह दे रहे हैं। अमेरिकी विदेश मंत्रालय और रक्षा मंत्रालय में भारत के प्रति सोच में काफी फर्क था। दूसरी तरफ भारत के विदेश मंत्रालय के लोगों का रुझान सोवियत संघ की तरफ़ था. उनको अपना रुख बदलने में काफी दिक्कत आ रही थी।'
वर्मा ने कहा, 'भारत की प्रधानमंत्री चाहती थीं कि भारत की अमेरिका के प्रति नीति की समीक्षा की जाए, लेकिन उनके ही विदेश मंत्रालय के लोग इसके खिलाफ थे। तब आर ए डब्लू पिक्चर में आया। उसने भारत के विदेश और अमेरिका के रक्षा मंत्रालय को विश्वास में लिए बगैर एक दूसरा लिंक तैयार किया और उन्हें समझाया कि भारत उनके साथ अपनी नीति में परिवर्तन करना चाहता है। इस बारे में आपका रक्षा मंत्रालय और हमारा विदेश मंत्रालय जो भी कहे, उसे आप गंभीरता से न लें। 1982 में इंदिरा गांधी को अमेरिका जाने का निमंत्रण मिला। वो वहां गईं और वहां पर उन्होंने एक ऐसा कदम लिया जो प्रोटोकॉल के खिलाफ था। उन्होंने उप राष्ट्रपति जार्ज बुश को राजकीय मेहमान के तौर पर भारत आमंत्रित किया। आमतौर से प्रधानमंत्री 'हेड ऑफ द स्टेट' यानि राष्ट्रपति को अपने यहां आने की दावत देता है। बुश ने इंदिरा गांधी का आमंत्रण स्वीकार किया और वहाँ से भारत-अमेरिका संबंधों की नई नींव रखी गई।