तीन बेहद सस्ती और आसानी से मिलने वाली चीज़ें कुपोषित बच्चों की हालत तेज़ी से सुधारने की क्षमता रखती हैं। अमेरिका की वॉशिंगटन यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने एक शोध में पाया है कि ये तीन चीज़ें हैं- मूंगफली, चने और केले।
इन तीनों से तैयार किए गए आहार से आंतों में रहने वाले लाभदायक जीवाणुओं की हालत में सुधार होता है जिससे बच्चों का तेज़ी से विकास होता है। बांग्लादेश में बहुत से कुपोषित बच्चों पर किए गए शोध के नतीज़ों के मुताबिक़, लाभदायक जीवाणुओं की संख्या बढ़ने से बच्चों की हड्डियों, दिमाग़ और पूरे शरीर के विकास में मदद मिलती है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक़ बच्चों में कुपोषण की समस्या पूरी दुनिया के लिए चिंता का विषय है। विश्व भर में 15 करोड़ से अधिक बच्चे इससे प्रभावित हैं। हालात ऐसे हैं कि पांच साल के कम उम्र के बच्चों की मौतों में से आधी कुपोषण के कारण ही होती हैं।
कुपोषित बच्चे न सिर्फ़ सामान्य बच्चों की तुलना में कमज़ोर और छोटे होते हैं बल्कि इनमें से कई के पेट में लाभदायक बैक्टीरिया वगैरह या तो होते ही नहीं हैं या फिर बहुत कम होते हैं।
गुड बैक्टीरिया को बढ़ाना ज़रूरी
इस शोध के प्रमुख रिसर्चर जेफ़री गॉर्डन का मानना है कि कुपोषित बच्चों के धीमे विकास की वजह उनकी पाचन नली में अच्छे बैक्टीरिया की कमी हो सकती है। फिर इस समस्या से निपटा कैसे जा सकता है? शोध कहता है कि कोई भी आहार ले लेने से स्थिति नहीं सुधरती।
वैज्ञानिकों ने बांग्लादेश के स्वस्थ बच्चों के शरीर में रहने वाले बैक्टीरिया की क़िस्मों की पहचान की। फिर उन्होंने चूहों और सूअरों में प्रयोग किया और देखा कि कौन सा आहार लेने से आंतों के अंदर इन महत्वपूर्ण बैक्टीरिया की संख्या बढ़ती है।
इसके बाद उन्होंने 68 महीनों तक 12 से 18 महीनों की आयु तक के 68 बांग्लादेशी बच्चों को अलग-अलग तरह का आहार दिया। जिन बच्चों की सेहत में सुधार हुआ, पाया गया कि एक आहार है जो उनके लिए मददगार रहा। यह था- सोया, पिसी हुई मूंगफली ,चने और केले।
उन्होंने पाया कि इस आहार से आंतों में रहने वाले उन सूक्ष्मजीवों की संख्या बढ़ी है जो हड्डियों, दिमाग़ और रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने में मददगार माने जाते हैं। इस विशेष आहार को बनाने वाली चीज़ें न सिर्फ़ सस्ती हैं बल्कि बांग्लादेश में इन्हें खाया भी जाता है। यह शोध 'साइंस' जर्नल में प्रकाशित हुआ है।
कुपोषण से हुए नुक़सान की भरपाई
वॉशिंगटन यूनिवर्सिटी में प्रोफ़ेसर जेफ़री गॉर्डन और ढाका के इंटरनेशनल सेंटर फ़ॉर डायरिया रिसर्च के उनके सहयोगी बताते हैं कि इस शोध का लक्ष्य कुपोषित बच्चों की सेहत सुधारने में सूक्ष्मजीवियों की भूमिका का पता करना था।
गॉर्डन कहते हैं, "सूक्ष्म जीवी यह नहीं देखते कि क्या केला है और कौन सी मूंगफली; वे बस इनके अंदर के पोषक तत्वों को इस्तेमाल करते हैं।" "यह फ़ॉर्मूला जानवरों और इंसानों के लिए सबसे कारगर रहा और इसने कुपोषण से हुए नुक़सान की भरपाई भी की।"
ज़्यादा चावल और मसूर की दाल वाला आहार इस मामले में मददगार नहीं रहा और कुछ मामलों में तो इससे पेट के अंदर के जीवाणुओं को नुक़सान पहुंचा दिया।
गॉर्डन बताते हैं कि अभी तक यह स्पष्ट नहीं हो पाया है कि यह आहार क्यों इतना क़ामयाब रहा। अब एक और ट्रायल किया जा रहा ताकि देखा जा सके कि इस डाइट का बच्चों के वज़न और क़द पर क्या असर रहता है। वह कहते हैं, "सूक्ष्म जीवों के इस माइक्रोबायोम का असर पेट तक सीमित नहीं है। इसका संबंध इंसान की सेहत से है। अब आगे हमें यह तरीका ढूंढना होगा कि कैसे माइक्रोबायोम को ठीक हालत में रखा जा सकता है।"
माइक्रोबायोम क्या होता है?
- क्या आप जानते हैं कि इंसान से ज़्यादा जीवाणु हैं? दरअसल आप अपने शरीर की कोशिकाओं की गिनती करें तो उनमें 43 प्रतिशत ही इंसानी कोशिकाएं हैं।
-बाक़ी माइक्रोबायोम है। माइक्रोबायोम यानी बैक्टीरिया, वायरस, फ़ंगस और आर्किया (एक कोशिकीय सूक्ष्मजीव)।
-इंसान का जीनोम- यानी इंसान की आनुवांशिक जानकारियां- 20 हज़ार जानकारियों से बनी होती हैं जिन्हें जीन कहा जाता है।
-ऐसे में माइक्रोबायोम को सेकेंड जीनोम कहा जाता है और इसका संबंध बीमारियों, जैसे एलर्जी, मोटापा, पार्किन्सन्स, डिप्रेशन और ऑटिज़्म से भी होता है।