रेहान फजल (बीबीसी संवाददाता)
गोरखा रेजिमेंटल सेंटर के ट्रेनीज को बताया जाता है कि आमने-सामने की लड़ाई में खुखरी सबसे कारगर हथियार है। उन्हें इससे इंसान की गर्दन काटने की भी ट्रेनिंग दी जाती है।
1997 में जब लेफ्टिनेंट मनोज कुमार पांडे 1/11 गोरखा राइफ़ल के हिस्सा बने तो दशहरे की पूजा के दौरान उनसे अपनी दिलेरी सिद्ध करने के लिए बलि के एक बकरे का सिर काटने के लिए कहा गया।
परमवीर चक्र विजेताओं पर बहुचर्चित किताब 'द ब्रेव' लिखने वाली रचना बिष्ट रावत बताती हैं, 'एक क्षण के लिए तो मनोज थोड़ा विचलित हुए, लेकिन फिर उन्होंने फरसे का जबरदस्त वार करते हुए बकरे की गर्दन उड़ा दी। उनके चेहरे पर बकरे के खून के छींटे पड़े। बाद में अपने कमरे के एकांत में उन्होंने कम से कम एक दर्जन बार अपने मुंह को धोया। वो शायद पहली बार जान-बूझकर की गई हत्या के अपराधबोध को दूर करने की कोशिश कर रहे थे। मनोज कुमार पांडे ताउम्र शाकाहारी रहे और उन्होंने शराब को भी कभी हाथ नहीं लगाया।'
हमला करने में पारंगत
डेढ़ साल के अंदर-अंदर मनोज के भीतर जान लेने की झिझक क़रीब-क़रीब जाती रही थी। अब वो हमले की योजना बनाने, हमला करने और अचानक घात लगाकर दुश्मन की जान लेने की कला में पारंगत हो चुके थे।
उन्होंने कड़ाके की ठंड में भी बर्फ़ से ढंके पहाड़ों पर साढ़े चार किलो के 'बैक पैक' के साथ चढ़ने में महारत हासिल कर ली थी। उस 'बैक पैक' में उनका स्लीपिंग बैग, एक अतिरिक्त ऊनी मोज़ा, शेविंग किट और घर से आए ख़त रखे रहते थे।
जब भूख लगती थी तो वो कड़ी हो चुकी बासी पूड़ियों पर हाथ साफ़ करते थे। ठंड से बचने के लिए वो ऊनी मोज़ों को दस्ताने के रूप में इस्तेमाल करते थे।
सियाचिन से लौटते समय आया कारगिल के लिए बुलावा
11 गोरखा राइफ़ल की पहली बटालियन ने सियाचिन में 3 महीने का अपना कार्यकाल पूरा किया था और सारे अफ़सर और सैनिक पुणे में 'पीस पोस्टिंग' का इंतज़ार कर रहे थे।
बटालियन की एक 'एडवांस पार्टी' पहले ही पुणे पहुंच चुकी थी। सारे सैनिकों ने अपने जाड़ों के कपड़े और हथियार वापस कर दिए थे और ज़्यादातर सैनिकों को छुट्टी पर भेज दिया गया था। दुनिया के सबसे ऊंचे युद्ध क्षेत्र सियाचिन में लड़ने के अपने नुकसान हैं।
विरोधी सेना से ज़्यादा ज़ालिम वहां का मौसम है। ज़ाहिर है सारे सैनिक बुरी तरह से थके हुए थे। क़रीब-क़रीब हर सैनिक का 5 किलो वज़न कम हो चुका था। तभी अचानक आदेश आया कि बटालियन के बाकी सैनिक पुणे न जाकर कारगिल में बटालिक की तरफ़ बढ़ेंगे, जहां पाकिस्तान की भारी घुसपैठ की ख़बर आ रही थी।
मनोज ने हमेशा आगे बढ़कर अपने सैनिकों का नेतृत्व किया और 2 महीने तक चले ऑपरेशन में कुकरथांग, जूबरटॉप जैसी कई चोटियों पर दोबारा कब्ज़ा कर लिया।
फिर उन्हें खालोबार चोटी पर कब्ज़ा करने का लक्ष्य दिया गया। इस पूरे मिशन का नेतृत्व सौंपा गया कर्नल ललित राय को।
खालोबार था सबसे मुश्किल लक्ष्य
उस मिशन को याद करते हुए कर्नल ललित राय बताते हैं, 'उस समय हम चारों तरफ़ से घिरे हुए थे। पाकिस्तानी हमारे ऊपर बुरी तरह से छाए हुए थे। वो ऊंचाइयों पर थे। हम नीचे थे। उस समय हमें बहुत सख़्त जरूरत थी एक जीत की जिससे कि हमारे सैनिकों का मनोबल बढ़ सके।'
कर्नल राय कहते हैं, 'खालोबार टॉप सामरिक रूप से बहुत महत्वपूर्ण इलाका था। वो एक तरह का 'कम्युनिकेशन हब' भी था हमारे विरोधियों के लिए। हमारा मानता था कि अगर वहां हमारा कब्ज़ा हो जाता है तो पाकिस्तानियों के दूसरे ठिकाने कठिनाई में पड़ जाएंगे और उनको रसद पहुंचाने और उनके वापस भागने के रास्ते में बाधा आ जाएगी। कहने का मतलब ये कि इससे पूरी लड़ाई का रुख बदल सकता था।'
2900 फ़ीट प्रति सेकंड की रफ़्तार से आतीं मशीनगन की गोलियां
इस हमले के लिए गोरखा राइफ़ल्स की 2 कंपनियों को चुना गया। कर्नल ललित राय भी उन लोगों के साथ चल रहे थे। अभी वो थोड़ी दूर चढ़े होंगे कि पाकिस्तानियों ने उन पर भारी गोलीबारी शुरू कर दी और सभी सैनिक तितर-बितर हो गए।
कर्नल राय याद करते हैं, 'करीब 60-70 मशीनगनें हमारे ऊपर बरस रही थीं। तोपों के गोले भी हमारे ऊपर बरस रहे थे। वो लोग रॉकेट लांचर और ग्रेनेड लांचर सभी का इस्तेमाल कर रहे थे।'
वे बताते हैं, 'मशीनगन की गोलियों की रफ़्तार 2900 फ़ीट प्रति सेकंड होती है। अगर वो आपके बाज़ू से चली जाए तो आपको लगता है कि किसी ने आपको ज़ोर का धक्का मारा है, क्योंकि उसके साथ एक 'एयर पॉकेट' भी आता है।'
कर्नल राय कहते हैं, 'जब हम खालोबार टॉप से क़रीब 600 गज़ नीचे थे, 2 इलाकों से बहुत ही मारक और नुकसानदायक फ़ायर हमारे ऊपर आ रहा था। कमांडिंग अफ़सर के रूप में मैं बहुत दुविधा में था। अगर हम आगे चार्ज करें तो हो सकता है कि हम सब ख़त्म हो जाएं। तब इतिहास यही कहेगा कि कमांडिंग अफ़सर ने सबको मरवा दिया। अगर चार्ज न करें तो लोग कहेंगे कि इन्होंने अपना लक्ष्य हासिल करने की कोशिश ही नहीं की।'
'मैंने सोचा कि मुझे 2 टुकड़ियां बनानी चाहिए, जो सुबह होने से पहले वहां पहुंच जाएं, वर्ना दिन की रोशनी में हम सबका बचना बहुत मुश्किल होगा। इन हालात में मेरे सबसे नज़दीक जो अफ़सर था, वो था कैप्टन मनोज पांडे।'
'मैंने मनोज से कहा कि तुम अपनी प्लाटून को ले जाओ। मुझे ऊपर 4 बंकर नज़र आ रहे हैं। तुम उन पर धावा बोलो और उन्हें ख़त्म करो।'
कर्नल राव कहते हैं, 'इस युवा अफ़सर ने 1 सेकंड के लिए भी कोई झिझक नहीं दिखाई और रात के अंधेरे में कड़कती ठंड और भयानक 'बंबार्डमेंट' के बीच ऊपर चढ़ गया।'
पानी का एक घूंट बचाकर रखा
रचना बिष्ट रावत बताती हैं, 'मनोज ने अपनी राइफ़ल के 'ब्रीचब्लॉक' को अपने ऊनी मोज़े से ढंक रखा था ताकि वो गर्म रहे और बेइंतहा ठंड में जाम न हो जाए। हालांकि उस समय तापमान शून्य से नीचे जा रहा था, लेकिन तब भी सीधी चढ़ाई चढ़ने की वजह से भारतीय सैनिकों के कपड़े पसीने से भीग गए थे।'
बिष्ट कहती हैं, 'हर सैनिक के पास 1 लीटर की पानी की बोतल थी। लेकिन आधा रास्ता पार करते करते उनका सारा पानी ख़त्म हो चुका था। वैसे तो चारों तरफ़ बर्फ़ पड़ी हुई थी, लेकिन बारूद की वजह से वो इतनी प्रदूषित हो चुकी थी कि उसे खाया नहीं जा सकता था।'
'मनोज ने अपनी सूखे होठों पर जीभ फिराई लेकिन उन्होंने अपनी पानी की बोतल को हाथ नहीं लगाया। उसमें सिर्फ़ 1 घूंट पानी बचा था। मनोवैज्ञानिक कारणों से वो उस एक बूंद को मिशन के अंत तक बचाकर रखना चाहते थे।'
अकेले 3 बंकर ध्वस्त किए
कर्नल राय आगे बताते हैं, 'हमने सोचा था कि वहां 4 बंकर हैं, लेकिन मनोज ने ऊपर जाकर रिपोर्ट किया कि यहां तो 6 बंकर हैं। हर बंकर से 2-2 मशीनगन हमारे ऊपर फ़ायर बरसा रहे थे। 2 बंकर जो थोड़े दूर थे, उनको उड़ाने के लिए मनोज ने हवलदार दीवान को भेजा। दीवान ने भी फ़्रंटल चार्ज कर उन बंकरों को बरबाद किया लेकिन उन्हें गोली लगी और वो वीरगति को प्राप्त हो गए।'
'बाकी बंकरों को ठिकाने लगाने के लिए मनोज और उनके साथी ज़मीन पर रेंगते हुए बिलकुल उनके पास पहुंच गए। बंकर को उड़ाने का एक ही तरीका होता है कि उसके लूप होल में ग्रेनेड डालकर उसमें बैठे लोगों को ख़त्म किया जाए। मनोज ने 1-1 कर 3 बंकर ध्वस्त किए। लेकिन जब वो चौथे बंकर में ग्रेनेड फेंकने की कोशिश कर रहे थे तो उनके बांए हिस्से में कुछ गोलियां लगीं और वो लहूलुहान हो गए।'
हेलमेट को पार करती हुई माथे के बीचोबीच 4 गोलियां
'लड़कों ने कहा कि सर, अब एक बंकर ही बाकी रह गया। आप यहां बैठकर देखिए। हम उसे ख़त्म करके आते हैं। अब देखिए इस बहादुर अफ़सर का साहस और कर्तव्यबोध!'
उसने कहा, 'देखो, कमांडिंग आफ़िसर ने मुझे ये काम सौंपा है। मेरा फ़र्ज़ बनता है कि मैं अटैक को लीड करूं और कमांडिंग अफ़सर को अपना 'विक्ट्री साइन' भेजूं।'
'वो रेंगते-रेंगते चौथे बंकर के बिलकुल पास गए। तब तक उनका बहुत ख़ून बह चुका था। उन्होंने खड़े होकर ग्रेनेड फेंकने की कोशिश की। तभी पाकिस्तानियों ने उन्हें देख लिया और मशीनगन स्विंग कर 4 गोलियां उन पर चलाईं।'
'ये गोलियां उनके हेलमेट को पार करती हुई उनके माथे को चीरती चली गईं। पाकिस्तानी एडी मशीनगन इस्तेमाल कर रहे थे 14.7 एमएम वाली। उसने मनोज का पूरा सिर ही उड़ा दिया और वो ज़मीन पर गिर गए।'
अब देखिए उस लड़के का जोश। मरते-मरते उसने कहा- 'ना छोड़नूं' जिसका मतलब था- 'उनको छोड़ना नहीं।' उस समय उनकी उम्र थी 24 साल और 7 दिन।
पाकिस्तानी बंकर में उनका ग्रेनेड बर्स्ट हुआ। कुछ लोग मारे गए। कुछ ने भागने की कोशिश की। हमारे जवानों ने अपनी खुखरी निकाली। उनका काम तमाम किया और चारों बंकरों को ख़ामोश कर दिया।'
सिर्फ़ 8 भारतीय जवान ज़िंदा बचे
इस अद्वितीय वीरता के लिए कैप्टन मनोज कुमार पांडे को मरणोपरांत भारत का सबसे बड़ा वीरता सम्मान 'परमवीर चक्र' दिया गया। इस अभियान में कर्नल ललित राय के पैर में भी गोली लगी और उन्हें भी वीर चक्र दिया गया। इस जीत के लिए भारतीय सेना को बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ी।
राय बताते हैं कि वो अपने साथ 2 कंपनियों को लेकर ऊपर गए थे। जब उन्होंने खालूबार पर भारतीय झंडा फहराया तो उस समय उनके पास सिर्फ़ 8 जवान बचे थे। बाकी लोग या तो मारे गए थे या घायल हो गए थे।
उन्होंने बताया कि उस चोटी पर इन सैनिकों को बिना किसी खाने और पानी के 3 दिन बिताने पड़े। जब ये लोग उसी रास्ते से नीचे उतरे तो चारों तरफ़ सैनिकों की लाशें पड़ी हुई थीं। बहुत से शव बर्फ़ में जम चुके थे। वो उसी स्थान पर थे, जहां हमने उनको चट्टान की आड़ में छोड़ दिया था। उनकी राइफ़लें अभी तक पाकिस्तानी बंकरों की तरफ़ थी, उनकी उंगली ट्रिगर को दबाए हुई थीं। मैगज़ीन को चेक किया तो उनकी राइफ़ल में एक भी गोली बची नहीं थी। वो जमकर एक तरह से 'आइस ब्लॉक' बन गए थे।
कहने का मतलब ये कि हमारे जवान आख़िरी सांस और आख़िरी गोली तक लड़ते रहे।
कर्नल ललित राय बताते हैं, 'यूं तो कैप्टन मनोज कुमार पांडे का कद सिर्फ़ 5 फ़ीट 6 इंच था। लेकिन वो हमेशा मुस्कराते रहते थे। वो बहुत ही जोशीले नौजवान अफ़सर थे मेरे। जो भी काम हम उन्हें देते थे, उसे पूरा करने के लिए वो अपनी जान लगा देते थे। हालांकि उनका कद छोटा था, लेकिन साहस, जीवट और ईमानदारी और कर्तव्यनिष्ठा की बात की जाए तो वो शायद हमारी फ़ौज के सबसे ऊंचे व्यक्ति थे। मैं इस बहादुर शख़्स को तहे-दिल से अपना सैल्यूट देना चाहता हूं।'
बांसुरी बजाने के शौकीन
कैप्टन मनोज कुमार पांडे को बचपन से ही सेना में जाने का शौक था। उन्होंने लखनऊ के सैनिक स्कूल में पढ़ाई करने के बाद एनडीए की परीक्षा पास की थी। उनको अपनी मां से बहुत प्यार था। जब वो बहुत छोटे थे तो एक बार वो उन्हें अपने साथ मेले में ले गईं।
सैनिक इतिहासकार रचना बिष्ट रावत बताती हैं, 'उस मेले में तरह तरह की चीज़ें बिक रही थीं। लेकिन नन्हे मनोज का सबसे अधिक ध्यान आकर्षित किया लकड़ी की एक बांसुरी ने। उन्होंने अपनी मां से उसे ख़रीदने की ज़िद की। उनकी मां की कोशिश थी कि वो कोई और खिलौना ख़रीद लें, क्योंकि उन्हें डर था कि कुछ दिनों बाद वो उसे फेंक देंगे। जब वो नहीं माने तो उन्होंने 2 रुपए देकर उनके लिए वो बांसुरी ख़रीद दी। वो बांसुरी अगले 22 सालों तक मनोज कुमार पांडे के साथ रही। वो हर दिन उसे निकालते और थोड़ी देर बजाकर अपने कपड़ों के पास रख देते।'
बिष्ट कहती हैं, 'जब वो सैनिक स्कूल गए और बाद में खड़कवासला और देहरादून गए, तब भी वो बांसुरी उनके साथ थी। मनोज की मां बताती हैं कि जब वो कारगिल की लड़ाई में जाने से पहले होली की छुट्टी में घर आए थे, तो वो अपनी बांसुरी अपनी मां के पास रखवा गए थे।'
छात्रवृत्ति के पैसे से पिता को नई साइकल भेंट की
मनोज पांडे शुरू से लेकर अंत तक बहुत सरल जीवन जीते रहे। बहुत संपन्न न होने के कारण उन्हें पैदल अपने स्कूल जाना पड़ता था।
उनकी मां एक बहुत मार्मिक किस्सा सुनाती हैं। मनोज ने अखिल भारतीय स्कॉलरशिप टेस्ट पास कर सैनिक स्कूल के लिए क्वालीफ़ाई किया था। दाखिले के बाद उन्हें हॉस्टल में रहना पड़ा। एक बार जब उन्हें कुछ पैसों की ज़रूरत हुई तो उनकी मां ने कहा कि वज़ीफ़े में मिलने वाले पैसों को इस्तेमाल कर लो।
मनोज का जवाब था कि मैं इन पैसों से पापा के लिए एक नई साइकल ख़रीदना चाहता हूं, क्योंकि उनकी साइकल अब पुरानी हो चुकी है। और एक दिन वाकई अपने छात्रवृत्ति के पैसों से मनोज ने अपने पिता के लिए नई साइकल ख़रीदी।
एनडीए का इंटरव्यू
मनोज पांडे उत्तरप्रदेश में एनसीसी के सर्वश्रेष्ठ कैडेट घोषित किए गए थे। एनडीए के इंटरव्यू में उनसे पूछा गया था, 'आप सेना में क्यों जाना चाहते हैं?'
मनोज का जवाब था, 'परमवीर चक्र जीतने के लिए।'
इंटरव्यू लेने वाले सैनिक अधिकारी एक-दूसरे की तरफ़ देखकर मुस्कराए थे। कभी-कभी इस तरह कही हुई बातें सच हो जाती हैं।
न सिर्फ़ मनोज कुमार पांडे एनडीए में चुने गए, बल्कि उन्होंने देश का सबसे बड़ा वीरता सम्मान परमवीर चक्र जीता भी।
लेकिन उस पदक को लेने के लिए वे स्वयं मौजूद नहीं थे। ये पदक उनके पिता गोपीचंद पांडे ने 26 जनवरी, 2000 को तत्कालीन राष्ट्रपति केआर नारायणन से हज़ारों लोगों के सामने ग्रहण किया!