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Last Updated : सोमवार, 23 दिसंबर 2019 (19:15 IST)

JHARKHAND ELECTION RESULTS : आडवाणी के रघुबर मोदी-शाह के होते ही कैसे बदले?

Jharkhand Assembly Election Results | JHARKHAND ELECTION RESULTS : आडवाणी के रघुबर मोदी-शाह के होते ही कैसे बदले?
- रजनीश कुमार, बीबीसी संवाददाता
रघुबर दास को विधायक आडवाणी ने बनाया और मुख्यमंत्री मोदी-शाह ने। इस बात को रघुबर दास ख़ुद भी क़ुबूल करते हैं। वो कहते हैं कि उन्होंने अटल-आडवाणी की बीजेपी को इंजॉय किया है, लेकिन मोदी-शाह की बीजेपी को उन्होंने डबल इंजॉय किया है।
 
रघुबर दास 70 के दशक में टाटा स्टील प्लांट के रोलिंग मिल में मज़दूर थे और 21वीं सदी के दूसरे दशक में उसी प्रदेश के मुख्यमंत्री बने। साल 2014 के आख़िर में जब रघुबर दास ने झारखंड के मुख्यमंत्री पद की शपथ ली थी तो उन्होंने कहा था, एक मज़दूर को बीजेपी ही मुख्यमंत्री बना सकती है। मुख्यमंत्री बनने के बाद रघुबर दास को 'मज़दूर रघुबर दास' भला क्यों याद नहीं आता।
 
रघुबर दास के पिता चमन राम भी मज़दूर ही थे। जमशेदपुर के भालुबासा हरिजन हाईस्कूल से दसवीं तक पढ़ाई करने वाले रघुबर दास ने यहीं के को-ऑपरेटिव कॉलेज से ग्रेजुएशन की पढ़ाई पूरी की। रघुबर दास के राजनीतिक करियर की शुरुआत ही एक बड़े पेड़ को गिराने से हुई। जमशेदपुर पूर्वी सीट से पहली बार रघुबर दास को 1995 में बीजेपी ने टिकट दिया। यहां से बीजेपी ने अपने स्थानीय दिग्गज नेता दीनानाथ पांडे का टिकट काटकर रघुबर दास को उतारा था।
दीनानाथ पांडे यहां से 3 बार के विधायक थे, लेकिन पार्टी ने इसकी परवाह किए बिना 40 साल के रघुबर दास को उतार दिया। दीनानाथ पांडे भी बाग़ी बनकर रघुबर दास के ख़िलाफ़ निर्दलीय चुनाव लड़े लेकिन हार मिली।
 
मज़दूर से सीएम की कुर्सी तक का सफर : पहली बार रघुबर दास एक दिग्गज को हराकर 1995 में विधायक बने। ये जीत लगभग 11 सौ वोट की थी। हालांकि इस जीत के बाद रघुबर दास की जीत का अंतर बढ़ता गया।
 
जमशेदपुर पूर्वी सीट से रघुबर दास 1995 से लगातार जीतते रहे। वो 5 बार चुनाव जीतकर विधानसभा में आए, झारखंड बनने के बाद उन्होंने 3 चुनाव जीते और अविभाजित बिहार में 2।
 
2014 के विधानसभा चुनाव में कोल्हान प्रमंडल में रघुवर दास इकलौते प्रत्याशी थे जो 70 हज़ार वोटों से जीते थे। इस प्रमंडल में झारखंड की 14 सीटें हैं और इनमें रघुवर दास ही एकमात्र उम्मीदवार थे, जिन्हें एक लाख से ज़्यादा वोट मिले थे।
 
रघुबर दास का परिवार मूल रूप से छत्तीसगढ़ का है। हालांकि दास का जन्म और पूरी परवरिश जमशेदपुर में ही हुई। रघुबर दास को 1995 का वो पहला चुनाव आज भी याद है।
 
इंटरव्यू में उन्होंने कहा, दीनानाथ पांडे को भी अहंकार हो गया था कि जमशेदपुर में बीजेपी उनकी वजह से है। मैं कहीं से भी उम्मीदवारी की दौड़ में नहीं था। तब पार्टी के अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी थे। स्थानीय बीजेपी में कई तरह के विवाद थे। इसी को देखते हुए आडवाणी जी ने गोविंदाचार्य जी को भेजा। उन्होंने यहां आकर सर्वे किया और मुझे टिकट मिला। जब बीजेपी ने रघुबर दास को टिकट दिया तो वो ज़िला महामंत्री थे।
 
रघुबर दास कहते हैं, बीजेपी ने एक मज़दूर को टिकट दिया और उस मज़दूर ने एक दिग्गज नेता को मात दी। अख़बार वाले मेरी ख़बर तक नहीं छापते थे। मैं संपादकों के पास जाकर कहता था कि मेरी भी ख़बर चला दो कहीं तो मुझे रखो। संपादक कहते थे कि अरे आप तो हार रहे हैं। आप लड़ाई में कहीं नहीं हैं। मैं उन संपादकों से कहता था कि चाहे जितनी उपेक्षा करनी है कर लो लेकिन जीतेगा तो रघुबर दास ही।
 
रघुबर दास कहते हैं कि किसी उम्मीदवार की जीत नहीं होती है, बल्कि जीत बीजेपी की होती है। वो कहते हैं कि 'यहां जिसके हाथ में कमल का फूल दे दो वो जीत जाएगा'। झारखंड बनने के बाद पहली बार हुआ कि बीजेपी ने किसी ग़ैर-आदिवासी को मुख्यमंत्री बनाया और यह मौक़ा मिला रघुबर दास को। दास बनिया समुदाय से हैं और झारखंड में बनिया ओबीसी में हैं।
 
दोबारा नहीं चल पाया बीजेपी का प्रयोग : बीजेपी के लिए रघुबर दास एक नया प्रयोग थे। यह प्रयोग हरियाणा में मनोहर लाल खट्टर और महाराष्ट्र में देवेंद्र फडणवीस का एक्सटेंशन था। प्रयोग इस मामले में कि तीनों राज्यों में मुख्यमंत्री पद पर दावा यहां के ख़ास तबकों का रहता था जिसे बीजेपी ने तोड़ने की कोशिश की थी।
 
महाराष्ट्र में बीजेपी ने मराठा के बजाय ब्राह्मण को सीएम बनाया, हरियाणा में ग़ैर-जाट को और झारखंड में ग़ैर-आदिवासी को। तीनों राज्यों में 5 सालों तक यह प्रयोग सफल रहा, लेकिन इस बार के चुनावी नतीजे बीजेपी के प्रयोग के पक्ष में नहीं रहे। फडणवीस दोबारा मुख्यमंत्री नहीं बन पाए, खट्टर किसी तरह से बने और रघुबर दास भी दोबारा सत्ता तक पहुंचने में नाकाम रहे।
 
रघुबर दास, अर्जुन मुंडा की कैबिनेट में वित्तमंत्री और उपमुख्यमंत्री भी रहे। 2014 में भी अर्जुन मुंडा के नेतृत्व में ही चुनाव लड़ा जा रहा था लेकिन अर्जुन मुंडा खरसांवा से ख़ुद ही चुनाव हार गए। इसके बाद मुख्यमंत्री का उनका दावा कमज़ोर पड़ा और रघुबर दास को मौक़ा मिल गया।
 
पार्टी के भीतर कम हो रही थी साख? : रघुबर दास को विधायकी का टिकट भी एक दिग्गज को किनारे करके मिला था और मुख्यमंत्री बनने का मौक़ा भी एक दिग्गज के हारने के बाद मिला। रघुबर दास के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने 5 साल के शासनकाल में दोस्त से ज्यादा दुश्मन बनाए हैं। आख़िर ऐसा क्यों है?
 
झारखंड के सामाजिक कार्यकर्ता अफ़ज़ल अनीस कहते हैं, रघुबर दास में अहंकार बहुत आ गया था। वो पीएम मोदी की नक़ल करते थे। पार्टी के भीतर भी वो किसी को तवज्जो नहीं देते थे। सरयू राय को टिकट नहीं दिया। अर्जुन मुंडा से अच्छे संबंध नहीं थे। ऐसे में उनके व्यवहार से शिकायत न केवल विपक्षी पार्टियों को थी बल्कि पार्टी के भीतर भी थी।
 
हालांकि रघुबर दास के पीएस मनींद्र चौधरी इस बात को नहीं मानते हैं कि रघुबर दास अहंकारी हैं। वो कहते हैं कि रघुबर जी को ग़ुस्सा ज़रूर आता है, लेकिन वो झूठ बोलने पर ग़ुस्सा करते हैं। उन्हें झूठ बिलकुल बर्दाश्त नहीं है। वो किसी की सिफ़ारिश भी पसंद नहीं करते हैं। सिफ़ारिश करवाने वाला उनकी नज़रों में चढ़ जाता है।जिस व्यक्ति की पृष्ठभूमि अतिसामान्य है, उस पर घमंडी होने का आरोप क्यों लग रहा है?
 
रांची यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर रिज़वान अली कहते हैं, रघुबर दास के पिता चमन राम बहुत ही ईमानदार थे। इस ईमानदारी को रघुबर दास ने भी लंबे समय तक अपने व्यक्तित्व का हिस्सा बनाकर रखा। हालांकि बाद में रघुबर दास के बेटे ललित दास के कारण रघुबर दास की ईमानदारी उस क़दर प्रखर नहीं रही। कुर्सी मिलने के बाद अहंकार सबमें आता है लेकिन रघुबर दास को पार्टी के भीतर के सवर्ण नेता कभी स्वीकार नहीं कर पाए। रघुबर दास के बारे में झारखंड बीजेपी के किसी भी सवर्ण नेता से पूछिए तो तारीफ़ नहीं करेगा।
 
प्रोफ़ेसर रिज़वान कहते हैं, रघुबर दास ने कई अच्छे काम भी किए हैं जिनके लिए उन्हें याद किया जाएगा। झारखंड में उन्होंने महिलाओं के नाम पर रजिस्ट्री फ्री कर दी थी। उनके कार्यकाल में सांप्रदायिक सौहार्द बना रहा। लिंचिंग के कई मामले ज़रूर सामने आए लेकिन यह केवल धार्मिक लिंचिंग नहीं थी। कई हिन्दुओं की भी लिंचिंग हुई। रघुबर दास ने ताजमहल की तरह हज भवन बना दिया है। यह किसी बीजेपी के सरकार में होना अपने आप में चौंकाने वाला है।
 
क्या गठबंधन नहीं होना बना बड़ी ग़लती? : रघुबर दास इस चुनाव में रणनीति के मामले में चूक कर चुके हैं। उन्हें पता था कि विपक्ष गोलबंद है, लेकिन एकमात्र सहयोगी आजसू से भी गठबंधन नहीं हुआ।
 
झारखंड के पत्रकार लगभग एक सुर में कहते हैं कि गठबंधन नहीं हुआ तो इसके लिए रघुबर दास ज़िम्मेदार हैं। रघुबर दास सुदेश महतो की पार्टी और बाबूलाल मरांडी को एकजुट कर सकते थे, लेकिन अति आत्मविश्वास के कारण ही उन्होंने इसकी उपेक्षा की।
 
2014 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने 72 सीटों पर चुनाव लड़ा और 37 सीटों पर जीत मिली थी। तब आजसू ने बीजेपी के साथ चुनाव लड़ा था और उसे 8 में से 5 सीटों पर जीत मिली थी। बीजेपी का वोट शेयर 31.26 फ़ीसदी था।
 
तब विपक्ष एकजुट नहीं था और सबने अलग-अलग चुनाव लड़ा था। कांग्रेस को केवल 6 सीटों पर जीत मिली थी और जेएमएम को 19 पर। बाबूलाल मरांडी को 8 सीटों पर जीत मिली थी। बाद में मरांडी के 6 विधायक दल-बदल कर बीजेपी में शामिल हो गए थे।
 
जमशेदपुर में प्रभात ख़बर के स्थानीय संपादक अनुराग कश्यप कहते हैं, यह रघुबर दास की हार है। मुख्यमंत्री के ख़िलाफ़ लोगों में काफ़ी ग़ुस्सा था। यह जनादेश पीएम मोदी और अमित शाह के ख़िलाफ़ नहीं है, बल्कि विशुद्ध रूप से रघुबर दास के ख़िलाफ़ है। झारखंड में इस बात को बड़े विश्वास के साथ कहा जा रहा है कि रघुबर दास की हार से जितना विपक्ष ख़ुश है उससे ज़्यादा अर्जुन मुंडा का खेमा होगा।
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